भाषा-साहित्य

हिंद देश में उपेक्षित हिंदी का उद्धार कब होगा?

आज भारत ही नहीं विदेश भी हिन्दी भाषा को अपना रहे हैं तो फिर हम देश में रहकर भी अपनी भाषा को बढ़ावा देने के बजाय उसको खत्म करने पर तुले हैं? विश्व में अनेक देश जैसे- इंग्लैंड, अमेरिका, जापान और जर्मन आदि अपनी भाषा पर गर्व महसूस करते है तो हम क्यों नहीं? चीन की अर्थव्यवस्था भारत से 3 गुनी बड़ी है, आज वहां बिजली, पानी, आवास, चिकित्सा, रोज़गार अथवा गरीबी जैसे मुद्दे काफ़ी हद तक न के बराबर हैं। भारत 1947 में आज़ाद हुआ और चीन जो जापान के साथ द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका में और आतंरिक संघर्षों के कारण लगभग बर्बाद हो गया था, वहां 1949 में कम्युनिस्ट शासन स्थापित हुआ। गरीबी, कुपोषण, अनियंत्रित जनसंख्या, महामारियां और खस्ती आर्थिक व्यवस्था किसी भी देश के लिए बड़ी चुनौती थीं लेकिन चीन ने दृढ़ता से सबका मुक़ाबला किया। आज चीन की तरक्की की कहानी सबके सामने है। सिर्फ़ अपनी मातृभाषा मैंडरिन और कॅन्टोनीज़ को ही आधार मानकर और बिना अंग्रेज़ी शिक्षा के अपनी तकनीक और शिक्षण व्यवस्था को दृढ़ता से संचालित कर के चीन ने मिसाल रखी है।

चीन की भाषा लिखना-पढ़ना हिंदी लिखने-पढ़ने से कहीं अधिक कठिन है किंतु चीन में 99% साक्षरता दर है और यह साक्षरता दर उन्होंने अंग्रेज़ी को या किसी अन्य भाषा को माध्यम बनाकर नहीं पाई है। भारत में साक्षरता दर महज़ 65% के आसपास है, जिसमें अनपढ़ों की बड़ी फ़ेहरिस्त हैं और लगभग 30-35% आज भी अपना नाम लिखना पढ़ना भी नहीं जानते पर पश्चिमी विकार से बुरी तरह ग्रसित है। आज अगर चीन अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर खड़ा है तो अपनी भाषा अपनी मौलिक पहचान खोकर नहीं, उसे आधार बनाकर खड़ा है। फिर हमारे देश की अनपढ़ फ़ौज अंग्रेज़ी शिक्षा व्यवस्था को अपनाकर खुद को और गर्त में धकेल रही, मैं किसी भाषा का विरोधी नहीं हूं, अंग्रेजी एक अंतरराष्ट्रीय वाद-संवाद की भाषा व माध्यम है और अन्य विषयों की तरह ही एक महत्वपूर्ण विषय जिसकी बेहतर जानकारी सभी बच्चों को दी जानी चाहिए किंतु अपनी मौलिकता अपनी पहचान को मिटाकर आप अपने हित की बात तो कर सकते है लेकिन, राष्ट्र हित और संवेदना, तहज़ीब, संस्कार फिर यह बातें खो ही जानी हैं।

आज हिन्दी पूरी तरह उपेक्षित है। हमारे अधिकतर सांसद व मंत्री हिन्दी भाषी होते हुए भी संसद में प्राय: अंग्रेजी में ही वक्तव्य देते हैं। जबकि उनका कर्तव्य है कि राष्ट्रभाषा का मान बढ़ायें। इसी प्रकार ऐसे कुछ लोग, जिन्हें भले ही अंग्रेजी समझ में न आती हो, पर शादी समारोह व उत्सवों के निमंत्रण-पत्र अंग्रेजी में छपवाना अपना सम्मान समझते हैं। आज हमारी युवा पीढ़ी भी अंग्रेजी के मायाजाल में फंसकर दिग्भ्रमित होकर अपने देश की भाषा ‘हिन्दी’ से कटती जा रही है। पर देखा जाय तो यह दोष इस पीढ़ी का नहीं है, दोष है शिक्षा नीति बनाने वालों का। स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद भी हमारे देश में लार्ड मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षा नीति में दीक्षित लोग भारतीयता से कटते चले जा रहे हैं। लार्ड मैकाले के ये दत्तक पुत्र ‘हिन्दी’ की उपेक्षा कर राष्ट्र का अपमान कर रहे हैं। संविधान के अनुसार हिन्दी राजभाषा घोषित की गई थी। यदि सरकार की इच्छा शक्ति रही होती तो उसी समय से हिन्दी पूरी तरह राजकाज की भाषा बन गई होती, लेकिन तत्कालीन सरकार ने यह कार्य किया ही नहीं। केन्द्रीय व राज्य सरकारों व सरकारी संस्थाओं द्वारा हर वर्ष 14 सितम्बर को ”हिन्दी दिवस” मनाया जाता है, यह महज एक औपचारिकता भर रह गई है। केवल एक दिन हिन्दी के बारे में भाषण होता है फिर वर्ष भर अंग्रेजी में कार्य होता है। सच्चे मन से हिन्दी को आगे बढ़ाने का कार्य नहीं होता।

हमें समझना होगा कि भाषा का बहुत बड़ा मार्केट होता है। इसमें सिर्फ किताबें उपन्यास ही नहीं, उद्योग, कला, विज्ञापन, अखबार, टीवी कार्यक्रम, फिल्में, पर्यटन, संस्कृति, धर्म, खान-पान, रहन-सहन, विचारधारा, आंदोलन और राजनीति भी शामिल है। अगर एक वर्ष के लिए ही भारत जैसे विकासशील देश अंग्रेजी पर रोक लगा दें तो अमेरिका और इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था चरमरा सकती है। भारत में अंग्रेजी जितनी फायदेमंद भारतीयों के लिए मानी जाती है, उससे हज़ार गुना ज्यादा लाभ अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा के लिए भारत से कमा लेती है। कभी सोचा है कि अपनी विशाल प्राचीन संस्कृति के रहते भी भारत के लोग एक पिद्दी से देश इंग्लैंड को महान क्यों मानते हैं, जबकि उसके पड़ोसी फ्रांस, जर्मनी, हॉलैंड, स्पेन, पुर्तगाल, इटली इत्यादि उसकी ज्यादा परवाह नहीं करते। इसका कारण है, हमने इंग्लैंड की भाषा को महान मान लिया, लेकिन उसके पड़ोसियों ने नहीं माना।

आज चीन, रूस, जर्मनी, जापान पूर्ण आत्मविश्वास के साथ अमेरिका से प्रतिद्वंद्वीता कर रहे हैं, उसी विज्ञान और तकनीकी में, जिसमें अंग्रेजी नहीं बोलने-लिखने वाले समाज पिछड़ जाने चाहिए थे। इनसे यह स्पष्ट है कि अंग्रेजी का ज्ञान होना तरक्की के लिए जरूरी तो नहीं है। लेकिन फिर भी हमारे देश के कुलीन “इलीट” बार बार अपनी मातृभाषा बचाने के बहाने हिंदी का विरोध क्यों करते है, जबकि अंग्रेजी के खिलाफ एक शब्द भी वो सुनना नहीं चाहते। इसका कारण है, हिंदी ने देश के सभी प्रान्तों के गरीबों को ताकत दी है, हिंदी के सहारे पूर्वोत्तर के गरीब बंगलुरु या हैदराबाद में काम कर रहे हैं, और ओडिशा व बंगाल के गरीब मुम्बई या सूरत में काम कर रहे हैं और गरीबी से बाहर आ रहे हैं। उसी तरह ग्रामीण परिवेश के लोग हिंदी के सहारे अन्य प्रदेशों में व्यापारिक सम्बन्ध बनाकर अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति उन्नत कर रहे हैं। अंग्रेजी के सहारे ऊँची कमाई वाली नौकरियों, पदों और काम-धंधों पर एकाधिकार रखने वाले वर्ग को हिंदी बोलने वाले ऐसे “छोटे” लोगों की प्रगति सहन नहीं हो रही है। इसी कारण कभी बेंगलुरु के मेट्रो स्टेशनों पर कन्नड़ व अंग्रेजी के साथ हिंदी में साइनबोर्ड लगाने का विरोध होता है और कभी ओडिशा की पूर्व मुख्यमंत्री के सांसद बेटे को हिंदी में पत्र मिलने पर बहुत तकलीफ होती है।

अगर हम हिंदी के लिये गम्भीर होकर हिंदी भाषा को उसका देश मे सर्वोच्च स्थान दिलाना चाहते है तो इसके लिये हमारे राजनैतिक नेतृत्व को राष्ट्रभाषा के रूप में सभी संवैधानिक संस्थाओं को प्रथम भाषा के रूप में हिंदी को अपनाने पर जोर देना होगा और राष्ट्र के तीन प्रमुख स्तम्भ कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को अंग्रेजी को एलीट क्लास समझने की मानसिकता से बाहर आना होगा। सभी राज्यों के उच्च न्यायालय तक उस राज्य के राजभाषा और देश के राजभाषा में सुनवाई होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी हो बहस तथा फैसले हो। सभी फैसले की कॉपी उनकी भाषाओँ में देनी चाहिए। जिस दिन भारत का सर्वोच्च न्यायालय नीतिगत फैसले हिंदी में देना शुरू कर देगा, आम नागरिको में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता का स्तर आज के मुकाबले ज्यादा बढ़ जाएगा। क्योंकि अभी जनहित के अनेकों फैसले नौकरशाही की निष्क्रियता के कारण फाइलों में धूल खाते रहते हैं। यही हाल शिक्षा के क्षेत्र में है जहां सिर्फ अंग्रेजी में पिछड़े होने के कारण कई प्रतिभाएं निम्नतर समझने की मानसिकता के साथ दम तोड़ देती है। जबकि खेलों में मेट्रो शहरों की तुलना में छोटे शहरों से आने वाले खिलाड़ी खुद को बेहतर सिद्ध कर रहे है। जरूरत है इच्छाशक्ति की और जब आज हिंदी भाषी प्रधानमंत्री देश के पास है तो आजादी के 70 वर्ष बाद भी हिंदी को सम्मान नहीं मिलेगा तो फिर कब मिलेगा?

देवेन्द्रराज सुथार

देवेन्द्रराज सुथार , अध्ययन -कला संकाय में द्वितीय वर्ष, रचनाएं - विभिन्न हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। पता - गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। पिन कोड - 343025 मोबाईल नंबर - 8101777196 ईमेल - devendrakavi1@gmail.com