हो रहा अम्बर धरा का अनुपम मिलन है चुप रहो,
सांझ सिन्दूरी का स्नेह अभिनन्दन है चुप रहो।।
आलिंगन के साज छेड़ प्रीत रागिनी उकेरी,
मधुर मधुर हास का सुरीला गायन है चुप रहो।
भाव-हविषा में स्पर्श घृत से प्रज्वलित आनन्द,
नयनों ही नयनों में हो रहा हवन है चुप रहो।
खग कलरव सी चहकती मन ही मन गुलाबी धरा,
इंद्रधनुषी रंगों का हुआ मंथन है चुप रहो।
सरस मेघ से बरसे मधु से लिपटे अम्बर-धरा,
प्रेमी मन्त्रमुग्ध सा कर रहा मनन है चुप रहो।
‘विपुला’ अनुपम हैं वे पल जिनमें प्रिय रस रच रहे,
हो रहा आत्मा से आत्मा का सृजन है चुप रहो।
— डॉ. अनिता जैन ‘विपुला’