सृष्टिपूर्व मैं सत्य था !
सृष्टिपूर्व मैं शब्द था, फिर अंड – पिंड – ब्रह्माण्ड बना,
जनक-जननी, भ्रातृ-बहना, गुरु-शिष्य औ’ खंड बना ।
हूँ काल मैं, शव-चक्र समान, सत्य-तत्व, रवि-ज्ञान भला,
प्रकाश-तम, जल-तल, पवन-पल, युद्ध-शांत, विद्या-बला।
परम-ईश्वर, सरंग-समता, पूत – गुड़- गूंग आज्ञाकारी बना,
देव-दनुज, यक्ष-प्रेत-कीट, मृणाल-खग मनु उपकारी बना।
युग-युग में अनलावतार हो, जम्बूद्वीप में कर्म बना,
मर्म के जाति-खंड पार हो, कि कर्तव्य राष्ट्रधर्म बना ।
हूँ संत-पुरुष, अध्यात्म-विज्ञ, तो पंचपाप को पूर्ण जला,
अकर्म-शर्म, कर्मांध-दर्प, तांडव – नृत्य – कृत्य स्वर्ण गला ।
हर्ष – उत्कर्ष हो सहर्ष मित्र , अपना जीवन – संग बना ,
त्याग – सेवा, संतोष – उपासना का, क्लीव – अंग बना ।
रस – अपभ्रंश में, गीति – नाट्य – कवि, ऊँ – भक्ति बना ,
भक्ति की अभिव्यक्ति से , मुक्ति की शक्ति बना ।