तन पर तुम चंदन उगा दो
शब्द की सारी वर्जनाएं, तोड़कर विस्तार दे दो।
गढ रहे हो प्रेम तो फिर, एक सुघड़ आकार दे दो।
घोल कर कोई सुगंधी, तन पर तुम चंदन उगा दो।
बनकर तुम पारस कोई, मुझको तुम कुंदन बना दो।
नेह से तुम सीच कर, एक नया उपवन बना दो।
टूटते हैं स्वप्न कितने, तुम इसे साकार दे दो।
भाव की सब व्यंजना, लिख दो मेरे श्वास पर।
एक सुखद सा लेप कर दो, मन के इस आघात पर।
मिल रहे हैं दो किनारे, उर के पावन घाट पर।
मांग में लाली भरू में, ऐसा तुम अधिकार दे दो।
यह धरा ,अंबर, नक्षत्र, ले रहे हैं सात फेरे।
मैं बनी हूँ चित्र तेरी, तुम बने मेरे चितेरे।
नेह के इस डोर से, बध गए सब स्वप्न मेरे।
सात जन्मो तक हो बंधन, ऐसा तुम स्वीकार दे दो।
— कामिनी मिश्रा