रमा
ज़िन्दगी क्या चीज है, समझ न आए कभी — हँसी थमी नहीं, रुला देती है. बड़ी जटिल हैं इसकी राहें. आदमी बहुत कोशिश करता है कि अपनी राहों को हमेशा कंटकों से मुक्त रखे. लेकिन सबकुछ क्या अपने वश में होता है? बार-बार आदमी नियति के हाथों पराजित होता है, पर संघर्ष करना भी तो नहीं छोड़ता है. अपनी सामर्थ्य के अनुसार कौन अपना भविष्य संवारने की कोशिश नहीं करता? जन्म से लेकर मृत्यु तक आदमी संघर्ष ही तो करता है. असंख्य संघर्षरत महिलाओं में एक का नाम है, श्रीमती रमा पांडेय. जीवन में उसने खोया ज्यादा है, पाया कम है. फिर भी हंसती रहती है. कभी अपनी दुखभरी दास्तान सुनाकर पास बैठने वालों के मन भारी नहीं करती. न तो वह किसी की व्यक्तिगत समस्याओं में बिना मांगे कोई सलाह देती है और न ही लेना पसंद करती है. उसके पास चर्चा के लिए ढ़ेर सारे विषय हैं. धर्म, राजनीति, समसामयिक घटनाएं, फ़िल्म, टीवी सिरियल, खेल-कूद — सबकी जानकारी रखती है. सामने बैठे व्यक्ति की पसंद के विषय पर घंटों चर्चा करती है. सामाजिक भी है. मुहल्लेवालों के सुख-दुख में सबसे पहले उपस्थित होती है.
बनारस शहर में ही उसका मायका भी है, ससुराल भी. वयःसंधि की उम्र में किस लड़के-लड़की को रंगीन सपने नहीं आते. उसे भी आये थे. लेकिन उसके अध्ययन में वे सपने कभी व्यवधान बनकर नहीं उभरे. जैसे-जैसे यौवन द्वार खटखटा रहा था, उसके चेहरे की आभा भी बढ़ती जा रही थी. गोरी-चिट्टी, साढ़े पांच फीट की लंबाई, इकहरा बदन, बड़ी-बड़ी आंखें, मोती सी धवल दंत-पंक्ति, तराशे गए पतले होंठ और विधाता द्वारा पूरे मन से बनाई गई मूर्ति की तरह उसका मुखमंडल उसके व्यक्तित्व को अनायास ही आकर्षक बना देते थे. होली के अवसर पर सहपाठियों ने उसे ’शकुन्तला’ की उपाधि से विभूषित किया था. सुनकर वह मुस्कुराई अवश्य थी, लेकिन खिलखिलाकर हंसने में कोताही की थी. बीस-इक्कीस की उम्र में उसने बी.ए. पास किया — अच्छे अंकों के साथ, शायद प्रथम श्रेणी में. वह आगे पढ़ना चाहती थी लेकिन पिता पर उसकी शादी की धुन सवार हो गई. उस जमाने में लड़की को बी.ए. इसलिए पास कराया जाता था, ताकि पढ़ा-लिखा योग्य वर प्राप्त हो सके. शकुन्तला के लिए दुष्यन्त की तलाश उसके पिता ने छः महीने में ही पूरी कर ली. सोनारपुरा के पास पांडे हवेली में एक उच्च खानदान का पढ़ा-लिखा सुदर्शन युवक उन्होंने ढूंढ़ ही लिया. लड़का काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अभी-अभी लेक्चरर की नौकरी पर लगा था. पिता स्वर्गवासी हो चुके थे, घर में सिर्फ़ माँ थी. शशिकान्त पांडेय नाम था लड़के का. माँ अपने बेटे के साथ रमा को देखने गई थी. लड़की को देखते ही भावविभोर हो गईं. छाती से लगाकर ढेरों आशीर्वाद दिए और सोने की अंगूठी पहनाकर लड़की छेंक भी दी. घर से ही वे बनारसी साड़ी ले गई थीं. रमा को अपनी लाई साड़ी पहनाकर फलों और मिठाइयों से उसकी गोद भर दी. चट मंगनी पट ब्याह. शीघ्र ही एक शुभ मुहूर्त पर रमा विवाह के बंधन में बंध गई. शकुन्तला की दुष्यन्त की तलाश पूरी हुई.
दो साल तक रमा अपनी सास के साथ सुखपूर्वक रही. एक ही शहर में मायका होने के कारण अपने माता-पिता और भाई-बहनों से भी अक्सर मुलाकात होती रहती. पति का प्यार और सास का दुलार उसे पर्याप्त मात्रा में मिला. उसने आते ही अपनी गृहस्थी संभाल ली. रात में सास को खाना खिलाती, सोने के पहले उनके पैर दबाती और उनके सो जाने के बाद ही अपने कमरे में जाती. दिन खुशी-खुशी बीत रहे थे कि एक दिन रात में उसकी सास को दिल का दौरा पड़ा. अस्पताल चार-पांच किलो मीटर की दूरी पर ही था, लेकिन वहां पहुंचते-पहुंचते माताजी ने अन्तिम सांसें ले ली. उनके परलोक गमन के बाद रमा अकेली हो गई. बड़ा घर काटने ले लिए दौड़ने लगा. पति के विश्वविद्यालय जाने के बाद अकेलापन अखरने लगता. घर में काम ही कितना था. खाना बनाने के बाद खाली हो जाती. रेडियो पर विविध भारती के कार्यक्रमों से मन बहलाने की कोशिश करती, लेकिन उदासी साथ छोड़ने का नाम नहीं लेती. शशिकान्त सारी स्थितियों पर नज़र रख रहा था. उसने रमा का एडमिशन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में करा दिया. दो वर्षों के बाद इधर एम.ए. का परीक्षा परिणाम आया, उधर घर में एक स्वस्थ, सुन्दर बालक का भी आगमन हुआ. खुशियां पुनः लौट आई थीं. रमा अपने बच्चे के लालन-पालन में व्यस्त हो गई. वह और आगे पढ़ना चाहती थी. शशिकान्त की सहमति से पी-एच.डी में रजिस्ट्रेशन करा लिया. इधर बच्चा चार साल का हुआ और उधर उसने अपने नाम के आगे “डाक्टर” लगाने की अर्हता भी प्राप्त कर ली. अब वह डाक्टर रमा पांडेय हो गई. शीघ्र ही घर के पास एंग्लो-बंगाली कालेज में लेक्चरर की नौकरी भी मिल गई.
दिन सुखपूर्वक बीतने लगे. आवश्यकता से अधिक पैसे घर में आने लगे. बेटा नीरज भी धीरे-धीरे बड़ा होने लगा. शशिकान्त और रमा, अपने प्यारे बेटे नीरज को बहुत प्यार करते थे. उसका लालन-पालन दोनों ने एक राजकुमार की तरह किया. जिस खिलौने की फ़रमाइश वह कर देता, उसी दिन उसके हाथ में पकड़ा दिया जाता. पति-पत्नी दिन भर घर से बाहर ही रहते थे, अतः नीरज की देख-रेख के लिए एक आया रख ली गई. नीरज का एडमिशन भी शहर के एक अच्छे कान्वेन्ट स्कूल में करा दिया गया. शीघ्र ही नीरज ने अंग्रेजी की एक-दो कविताएं याद कर ली. उसकी तोतली आवाज़ में रमा जब ट्विंकिल-ट्विंकिल लिटिल स्टार……….सुनती, तो खुशी से पागल हो जाती.
शशिकान्त हिन्दू विश्वविद्यालय की कई कमिटियों का सदस्य हो गया. वह अक्सर देर से आता और आते ही किसी पार्टी या दावत के लिए निकल पड़ता. कुछ दिनों के बाद उसने रमा से भी साथ चलने की ज़िद की. रमा को भी पार्टियों में मज़ा आने लगा. आया की पगार बढ़ा दी गई.अब वह देर तक नीरज के साथ रहने लगी. नीरज की पढ़ाई के लिए एक ट्युटर अलग से रख लिया गया.
शशिकान्त को लगता था कि ज़िन्दगी की सारी खुशियां पैसे से हासिल की जा सकती हैं. उसके पास था भी सबकुछ — अच्छी सुन्दर पत्नी, प्यारा सा बेटा और समाज में प्रतिष्ठा बढ़ानेवाली नौकरी. घर में सारी आधुनिक भौतिक सुख-सुविधाएं उपलब्ध थीं. पहले फ्रीज में मिश्रांबु की ठंढ़ई की बोतलें रहती थीं, लेकिन धीरे-धीरे उनकी जगह विलायती शराब की टेढ़ी-मेढ़ी बोतलों ने ले ली. कभी-कभी छोटी-मोटी पार्टी घर में ही हो जाती. मेहमानों को उच्च कोटि की मदिरा उपलब्ध कराई जाती. रमा ने कभी शराब नहीं चखी, लेकिन पार्टी में उपस्थित अवश्य रहती थी. उसने शशिकान्त को कभी पीने से मना भी नहीं किया. जिस दिन घर में ऐसी पार्टी होती, आया की छुट्टी शाम को ही कर दी जाती. नीरज को निर्देश रहता कि वह अपने कमरे में ही रहकर पढ़ाई करे. लेकिन नीरज अपनी बालसुलभ जिज्ञासा को कबतक दबाता? वह भी धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था. छुप-छुपकर कभी-कभी वह पार्टी की गतिविधियों को देख ही लेता था. खाने की चीजें तो उसे पहले या बाद में मिल जाती थीं, लेकिन ग्लास में रखा रंगीन पेय उसकी जिज्ञासा को हर बार बढ़ा देती थी. वह पेय उसकी माँ उसे कभी नहीं देती थी. कक्षा आठ या नौ में रहा होगा वह. उस पेय की चर्चा उसने अपने खास दोस्तों से की. उसके दोस्त उससे ज्यादा होशियार थे. नीरज के कक्षा आठ में पहुंचने के बाद आया की छुट्टी कर दी गई थी.पढ़ाने के लिए एक की जगह दो-दो ट्युटर रख लिए गए थे. दोनों बारी-बारी से शाम को ही आते. एक दिन स्कूल से छुट्टी होने पर नीरज अपने तीन-चार दोस्तों को अपने साथ घर ले आया. फ़्रीज खोलकर उनके लिए मिठाई निकाल रहा था कि एक दोस्त की निगाह बोतलों पर पड़ी. उसने एक बोतल निकाल ली. नीरज ने बताया कि इसी में रखे पेय का सेवन उसके पिताजी अपने दोस्तों के साथ करते हैं. फिर नीरज के दोस्त पीछे क्यों रहते? सबने ग्लास में थोड़ी-थोड़ी शराब भरी और चीयर्स करके पहली घूंट गले के नीचे उतारी. बड़ा कड़वा स्वाद था उसका. फिर भी दोस्तों ने ग्लास खाली कर ही दी. म्युजिक सिस्टम में अंग्रेजी गाने का एक कैसेट लगाकर सबने खूब डांस किया. यह सिलसिला देर तक चलता, लेकिन तभी नीरज के ट्युटर आ गए और मिनी पार्टी समाप्त हो गई.
नीरज के दोस्तों को शराब का चस्का लग गया. उसे भी मज़ा आने लगा. कुछ महीनों के बाद क्लास कट करके मिनी पार्टी अक्सर होने लगी. एक दिन एक दोस्त एक पुड़िया ले आया. उसमें सफ़ेद पाउडर जैसी कोई चीज थी. उसने नीरज को विशेष ज्ञान दिया कि इस पाउडर की एक चुटकी ग्लास में डाल देने के बाद शराब का स्वाद दूना हो जाता है और नशा चौगुना. सबने उसदिन सफ़ेद पाउडर डालकर शराब पी. बाद में बिना सफ़ेद पाउडर के वे शराब पीते ही नहीं थे. स्कूल जाना पहले से भी कम हो गया. नीरज को पाकेट मनी के रूप में हमेशा इच्छित रुपए मिल जाते थे. दोस्तों के साथ अब दिन गंगा की गोद में बजड़े पर या सारनाथ के खंडहरों में बीतने लगे. बोतल की व्यवस्था नीरज के जिम्मे थी और पुड़िया कि व्यवस्था बाकी तीन के जिम्मे.
नीरज की पढ़ाई की प्रगति के विषय में रमा कभी-कभी ट्युटरों से पूछताछ कर लेती. उसने कभी स्वयं नीरज का होम वर्क या क्लास वर्क चेक नहीं किया. शशिकान्त को तो ट्युटरों पर अटूट आस्था थी. भोला-भाला नीरज अब काफी चतुर हो चुका था. वह अपने ट्युटरों को भी हमप्याला बना चुका था.
सत्य को बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता. कब और कैसे प्रकट हो जाता है, पता ही नहीं चलता. नीरज के हाई स्कूल के परीक्षा-परिणाम ने सबको अचंभे में डाल दिया. वह परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर सका. रमा और शशिकान्त ने कभी उसे उचित मार्गदर्शन देने के अपने कर्त्तव्य का निर्वाह नहीं किया, लेकिन पुत्र की असफलता पर उसे डाँटने के अधिकार का पूरा-पूरा उपयोग किया. शशिकान्त ने दो-चार थप्पड़ भी रसीद किए. नीरज दो-तीन दिनों तक घर से गायब रहा. काफी खोजबीन की गई. पुलिस की सहायता से उसे एक दोस्त के घर से बरामद किया गया. वह नशे में बेहोश था. बड़ी मुश्किल से उसे कार में लादकर घर ले आया गया. एक साल तक उसका उपचार किया गया. नशा उन्मूलन केन्द्र से लेकर हिन्दू विश्वविद्यालय के मनोचिकित्सकों तक की सेवाएं ली गईं. सोनार पुरा और पांडे हवेली दोस्तों के चक्कर में पड़कर वह नशे का आदी हुआ था. शशिकान्त ने पुस्तैनी घर छोड़ने का निर्णय लिया. उसने नवविकसित बृज एन्क्लेव कालोनी में एक सुंदर सा घर बनवाया.
नया घर, नया माहौल, रमा की देखरेख और डाक्टरों की चिकित्सा का प्रभाव नीरज पर भी पड़ा. एक साल के बाद वह सामान्य हो गया. उसे पढ़ाने की जिम्मेदारी रमा ने स्वयं ली. गणित और विज्ञान के लिए कभी-कभी वह अपने पति की मदद ले लेती थी. पिछले कटु अनुभवों के कारण उसने नीरज को ट्युटरों से दूर रखा. रमा की मिहनत रंग लाई. नीरज दो वर्ष पिछ्ड़ जरूर गया, लेकिन जब दुबारा परीक्षा दी, तो द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया. सबने राहत की सांस ली. सत्यनारायण भगवान की कथा कहलवाई गई. पूरे मुहल्ले में प्रसाद बांटा गया.
इंटर कालेज में नीरज का एडमिशन करा दिया गया. अच्छे बच्चे की तरह वह नियमित रूप से विद्यालय जाने लगा. पुराने मित्र वहां फिर से मिले. ड्रग और शराब का सिलसिला फिर शुरू हो गया — इस बार कुछ ज्यादा ही. रमा ने नीरज में आए बदलाव को ताड़ा. तबतक बहुत देर हो चुकी थी. दो साल बीत गए थे. नीरज अब बिना ड्रग के रह ही नहीं पाता था. जबर्दस्ती ड्रग और शराब छुड़ाए जाने पर वह विक्षिप्तों जैसा आचरण करने लगता था. डाक्टरों ने भी धीरे-धीरे ड्रग छुड़वाने की सलाह दी. नीरज कभी सामान्य रहता, तो कभी विक्षिप्त. उसे ड्रग के विभिन्न स्रोतों की अच्छी जानकारी हो गई थी. थोड़ा भी ठीक होने पर वह बाहर निकल जाता और पर्याप्त मात्रा में अपनी खुराक लेकर ही लौटता. मर्ज़ की ज्यों-ज्यों दवा की गई, बढ़ता ही गया. वह इंटर की परीक्षा में भी नहीं बैठा. दिन भर आवारा दोस्तों के साथ घूमना और रात को नशे में धुत होकर घर लौटना उसकी दिनचर्या बन गई. रमा ने अपनी ओर से बहुत कोशिश की, लेकिन सारे प्रयास असफल रहे.
कुछ लोग सोचते हैं कि ऎसे लड़कों की शादी कर देने के बाद वे सुधर जाते हैं. रमा और शशिकान्त के आस-पास भी ऐसे लोगों की कमी नहीं थी. देखते ही देखते नीरज भी बीस पार कर चुका था. रमा ने एक जुआ खेला और पास के ही गांव के एक गरीब ब्राह्मण परिवार की इंटर पास लड़की के साथ नीरज की शादी कर दी. लड़की सुन्दर थी. बीवी के नशे ने बाहरी नशे में कुछ कमी अवश्य की. दहेज में एक मोटर सायकिल मिली थी. अब नीरज दोस्तों के साथ कम, अपनी पत्नी के साथ ज्यादा घूमता था. रमा को लगा, लड़का सुधर गया.
शादी के दो वर्ष बीतते-बीतते नीरज एक बच्चे का बाप बन गया. घर में खुशियां फिर से लौट आई थीं. पन्द्रह दिनों तक जश्न मनाया गया. नीरज के पुराने दोस्तों को घर आने की मनाही थी. लेकिन वे उसके संपर्क में थे. मोबाईल युग की पीढ़ी को कोई मिलने और संपर्क करने से कैसे रोक सकता है? सबने पुत्र-प्राप्ति की खुशी में नीरज से पार्टी मांगी. एक होटल में नीरज ने पार्टी दी. फिर पार्टियों का सिलसिला आरंभ हो गया. पत्नी अब एक बच्चे की माँ बन चुकी थी. उसका नशा भी नीरज के मस्तिष्क से उतरने लगा.
रमा ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया. वह समझ गई कि नीरज नहीं सुधरने वाला. भविष्य को ध्यान में रखकर उसने बहू को बी.ए. कराया, फिर बी.एड. भी कराया. उच्छृंखल नीरज अब किसी की बात सुनता भी नहीं था. अच्छी मात्रा में पाकेट मनी नहीं मिलने पर घर में हंगामा खड़ा कर देता. कई बार तो पास-पड़ोस के लोगों को बचाव करना पड़ता. रोज-रोज के झगड़े से ऊबकर रमा ने उसे उसकी इच्छा के अनुसार रुपए देने शुरू कर दिए. इसके बावजूद उसने पत्नी के गहने एक-एककर बेच ही दिए. रमा अब अपने पोते पर ध्यान केन्द्रित करने लगी. उसने नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली. बहू को एक सरकारी विद्यालय में नौकरी दिला दी. वह दिन-रात पोते में खोई रहती. बड़े प्यार से “पंकज” नाम रखा था उसने अपने पोते का. जो गलती उसने नीरज के पालन-पोषण में की थी, उसे दुहरना नहीं चाहती थी. पंकज भी माँ के पास कम, दादी के पास अधिक रहता था.
मनुष्य सोचता कुछ और है और होता कुछ और है. नीरज का रमा के परिवार में एक फ़ालतू पूर्जे के अलावा कोई अस्तित्व नहीं था. जब वह रमा से लड़ाई करता, तो रमा कहती —
“पुत्र तीन तरह के होते हैं — अजन्मा, मृत और मूर्ख. पहले दो तो एक ही बार दुख देते हैं, लेकिन मूर्ख, नशेबाज और बिगड़ैल पुत्र जीवन भर माँ-बाप को कष्ट देता है. तुम मर जाते, तो मैं संतोष कर लेती. तुम्हें मौत भी नहीं आती.”
रमा को ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी. नशे में धुत नीरज मोटर सायकिल से लखनिया दरी के लिये निकला. वहां उसके दोस्त पिकनिक मनाने जा रहे थे. एक दोस्त उसकी बाइक पर भी बैठा था. दोनों गीत गा रहे थे — “ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे……………..तेज रफ़्तार से आगे बढ़ती मोटर सायकिल सामने से आते हुए ट्रक में कैसे समा गई, कुछ पता ही नहीं चला. डाफी के पास यह दुर्घटना हुई थी. दोनों दोस्तों ने दोस्ती तो नहीं तोड़ी, इस जगत से रिश्ता जरूर तोड़ लिया.
कहना बहुत आसान था — तुझे मौत भी नहीं आती. रमा को क्या पता था कि उसकी जीभ से निकला यह कथन इतनी जल्दी सच का रूप ले लेगा. अपने बेटे की हत्यारिन थी वह. नीरज के शरीर की मृत्यु तो दुर्घटना में हुई थी, लेकिन आत्मा तो कब की मर चुकी थी. शहरी जीवन की चकाचौंध, अनावश्यक व्यस्तता और नौकरी के कारण क्या रमा ने नीरज पर उतना ध्यान दिया था, जितना आवश्यक था? रमा और शशिकान्त अपने ढंग से ज़िंदगी की राह चलते रहे, नीरज अपने ढंग से. रमा का अंतर्मन आहत था. वह ज़िंदगी जीएगी जरूर, लेकिन छाती पर अपराध-बोध का एक बड़ा पत्थर साथ रखकर.
ज़िंदगी में आई तरह-तरह की विसंगतियों के बावजूद रमा घर के बाहर निकलती तो एक स्वाभाविक मुस्कान के साथ ही. अड़ोस-पड़ोस में कथा-पुराण हो या शादी-ब्याह — वह बड़े उत्साह से भाग लेती, सहयोग भी करती. लेकिन नीरज की मृत्यु ने उसे तोड़ दिया. एक साल तक वह घर से बाहर ही नहीं निकली. अपना समय वह अपने पोते को समर्पित कर चुकी थी. बालक पंकज अब स्कूल जाने लगा था.
रमा ने खिड़की से देखा था उसदिन — एक युवक मेनका को मोटर सायकिल से छोड़ गया. मेनका ही नाम था उसकी बहू का. दोनों दो मिनट तक खड़े-खड़े बात करते रहे. फिर मेनका ने हाथ हिलाकर बाय कहा. युवक ने किक लगाई. मोटर सायकिल हवा से बातें करने लगी. यह सिलसिला रोज़ चलता और रमा पथराई आंखों से सारा दृश्य देखती. कबतक अपने को रोकती. एक दिन मेनका को सलाह दे ही डाली —
“बहुत कम उम्र में ही तुम्हें वैधव्य स्वीकार करना पड़ा. तुम्हारा दुख मुझसे भी ज्यादा है. सारी ज़िंदगी अकेले बिताना बहुत कठिन है. लड़का देखने में अच्छा है. तुम उससे शादी कर लो, मुझे कोई एतराज नहीं होगा.”
“शादी? और उससे? माँजी, वह पहले से ही शादी-शुदा है. उसकी पत्नी अपने सास-ससुर के साथ बलिया में रहती है. वह मेरे स्कूल में टीचर है, हम दोनों अच्छे दोस्त हैं, बस. इससे ज्यादा कुछ नहीं.” मेनका ने उत्तर दिया और रमा की प्रतिक्रिया सुने बिना ही झट अपने कमरे में चली गई. रमा बुत बनी उसे जाते हुए देखती रही.
बनारस के मुहल्लों मे ऐसे किस्से चटकारे लेकर कहे और सुने जाते हैं. रमा की बहू के किस्से शीघ्र ही सबकी जुबान पर थे. रमा सब सुनती. सहने के अतिरिक्त चारा ही क्या था उसके पास. वह पोते पर केंद्रित हो गई. उसके जीवन की लौ उसी के लिये जलती थी. पंकज को किसी भी संदिग्ध दोस्त के साथ खेलने नही देती. पंकज का विकास भी उसकी आशा के अनुरूप हो रहा था. वह अपनी कक्षा में प्रथम आता था. हाई स्कूल की परीक्षा उसने बहुत अच्छे अंकों से पास की. इंटर में भी प्रथम श्रेणी आई थी, पचासी प्रतिशत अंकों के साथ. पंकज इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं में बैठा. उसका चयन आई.आई.टी., कानपुर के लिए हो गया. जो साध बेटा पूरा नहीं कर सका, वह पोता कर रहा था. रमा और शशिकान्त, दोनों गदगद थे. खुशी से फूले नहीं समा रहे थे. इस अवसर को यादगार बनाने के लिए अखंड रामायण का आयोजन किया गया. मुहल्ले के सभी लोग आमन्त्रित किये गये. सबको महाप्रसाद (भोजन) के बाद ही जाने दिया गया.
पंकज हास्टल चला गया. रमा कुछ दिनों तक उदास रही, फिर स्वयं को समझाया और परिस्थितियों से समझौता कर लिया. पति भी अवकाश प्राप्त कर चुके थे. उसके समय का अधिकांश पति के साथ और अड़ोसी-पड़ोसी के दुख-सुख में बीतने लगा. रमा के स्वभाव और व्यक्तित्व में स्वाभाविकता पुनः लौट रही थी. हंसमुख रमा पुनः सबके साथ हिलमिलकर रहने लगी. बहू-बेटियों से लेकर हम उम्र पड़ोसिनें अक्सर उसके घर पर जमी रहती थीं. उसे खाली समय मिलता ही नहीं था. लेकिन यह सिलसिला भी लंबे समय तक कहां चल पाया? मेनका के पुरुष-मित्र की ओर से उसने आंखें बंद कर ली थी, लेकिन सहने की भी एक सीमा होती है. मेनका का पुरुष मित्र अब उसी के साथ उसी के घर में रात्रि विश्राम भी करने लगा. रमा ने स्पष्ट विरोध किया. घर में नित्य ही झगड़े होने लगे. घर में शांति न हो तो बाहर शांति कहां मिलती है? अशांत रमा ने मेनका को घर से बाहर चले जाने का आदेश सुना दिया. मेनका पहले की तरह आज्ञाकारिणी, सुशीला और अल्पभाषिणी नहीं रह गई थी. उसने पलटकर जवाब दिया —
“इस घर में मेरा भी हिस्सा होता है. मैं आपके स्वर्गीय पुत्र की विवाहिता हूं. इस घर को छोड़कर जाने का प्रश्न ही नहीं उठता. आपकी परेशानियां कम करने के लिए मैं अपना किचेन अलग कर लेती हूं. मेरे और मेरे मित्र के बारे में किसी तरह का हस्तक्षेप मुझे स्वीकार नहीं है.”
शशिकान्त भी सास-बहू का संवाद सुन रहे थे. खून का घूंट पीकर रह गए वो. सिर चक्कर खाने लगा. पैर लड़खड़ाए और अचानक वे गिर पड़े. उनकी चेतना जाती रही. मुहल्ले में कोहराम मच गया. शीघ्र ही हिन्दू विश्वविद्यालय चिकित्सालय के इमर्जेंसी वार्ड में ले जाया गया. डाक्टरों के अनुसार वे फ़ालिज़ के शिकार हो चुके थे. महीनों वे अस्पताल में भर्ती रहे. उन्हें नया जीवन तो मिला, लेकिन दाएं हाथ और पैर की कीमत पर. वे रमा के सहारे के बिना खड़े भी नहीं हो पाते थे.
समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था. पंकज की पढ़ाई अच्छे ढंग से जारी थी. उसकी प्रगति संतोषजनक थी. अब एकमात्र पंकज ही रमा का सहरा था. वह बड़ा हो गया था. घर में माँ के पुरुष मित्र की उपस्थिति उसे कांटे की तरह चुभती थी, लेकिन मेनका पर उसकी भावनाओं का कोई असर नहीं था. वह अपने आप में जी रही थी. पंकज घर आता तो अपनी दादी के पास ही रहता, माँ से बात भी नहीं करता. फाइनल इयर में पहुंचते ही कैंपस में कई बड़ी-बड़ी कंपनियां आईं. पंकज का सेलेक्शन ऊंचे पैकेज पर इन्फ़ोसिस कंपनी में हो गया. परीक्षा के बाद दो महीने का समय था. वह घर आ गया. अपनी आंखों के सामने एक पराए मर्द को अपनी माँ के कमरे में आते-जाते देख अत्यन्त घृणा से भर उठा वह. उसे कोई समाधान नज़र नहीं आ रहा था. वह गुमसुम रहने लगा. एक रात वह देर से घर लौटा. रमा गेट पर टहल रही थी. घर के सभी लोग सो चुके थे, लेकिन रमा की आंखों में नींद कहां? पंकज लड़खड़ाते कदमों से गेट के अंदर दाखिल हुआ. उसके मुंह से शराब की तीखी गंध आ रही थी. रमा ने उसे संभाला, लेकिन स्वयं टूट चुकी थी. पंकज से उसे ऐसी उम्मीद नहीं थी. उसके सपने बिखर चुके थे. स्वयं पर उसका नियंत्रण समाप्त सा हो गया. पूरी शक्ति से पंकज की गाल पर एक तमाचा जड़ते हुए वह रो पड़ी —
“मेरी सारी तपस्या निष्फल रही. ज़िंदगी ने मुझे हर कदम पर धोखा दिया, लेकिन सिर्फ तुम्हारे सहारे मैं संघर्ष करती रही. अब मैं जीकर क्या करूंगी? घर के अंदर चलो और अपने हाथों से मेरा और अपने दादा का गला घोंट दो.”
पंकज देर तक उससे लिपट कर रोता रहा. उसने बार-बार माफ़ी मांगी और ऐसी गलती फिर न दुहराने का आश्वासन देता रहा. रमा चुप बैठी रही — शांत, पत्थर की तरह. पंकज ने विह्वल होकर उसकी गोद में मुंह छुपा, सुबकते हुए कहा —
“क्या बताऊं दादी! मुझसे माँ का यह आचरण देखा नहीं जाता. पिता की सूरत भी मुझे याद नहीं. सुना है नशे ने उनकी ज़िन्दगी लील ली थी. वे आपके अच्छे पुत्र नहीं बन सके. फिर भी माँ के कमरे में पराए मर्द की उपस्थिति मैं सह नहीं सकता.”
बहुत मार्मिक कहानी है. अगर माता-पिता अपने बच्चे पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते, अपनी अधिक से अधिक कमाई के चक्कर में पड़े रहते हैं, तो उसका कुपरिणाम भोगना ही पड़ता है.