अनुबंध
मत अनुबंधो में बांधो तुम
मैं उसमे बंध न पाऊँगी
मैं खुली हवा सी बहने वाली
खुद को रोक न पाऊँगी।
नित नवल गीत मेरे अधरों पर
गाने को व्याकुल हैं,
मेरी प्रीत अनुरागी मन की
बंद अनुबंधों में आकुल हैं।
ये सोने का पिंजरा देखो
मुझे तनिक न भाये
मैं उड़ने को आतुर हूं
पँख मेरे फड़फड़ाये।
अनुबंधों की सीमा में
प्रेम स्वांस न पाये
खुले विचरते खग को
पराधीनता न भाये।
मैं सागर की मीन जैसी,
तालाब मेरा अस्तित्व नहीं
मेरा स्वयं पर शासन है
मैं किसी की स्वामित्व नहीं।
जब तक प्राण जीवित है मेरे
स्वछंद बयार बहूँगी मैं
विशाल आकाश है मेरा जीवन
अनुबंधो में न बंधूगी मैं।
— सपना परिहार
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