कविता

अनुबंध

मत अनुबंधो में बांधो तुम

मैं उसमे बंध न पाऊँगी

मैं खुली हवा सी बहने वाली

खुद को रोक न पाऊँगी।

नित नवल गीत मेरे अधरों पर

गाने को व्याकुल हैं,

मेरी प्रीत अनुरागी मन की

बंद अनुबंधों में आकुल हैं।

ये सोने का पिंजरा देखो

मुझे तनिक न भाये

मैं उड़ने को आतुर हूं

पँख मेरे फड़फड़ाये।

अनुबंधों की सीमा में

प्रेम स्वांस न पाये

खुले विचरते खग को

पराधीनता न भाये।

मैं सागर की मीन जैसी,

तालाब मेरा अस्तित्व नहीं

मेरा स्वयं पर शासन है

मैं किसी की स्वामित्व नहीं।

जब तक प्राण जीवित है मेरे

स्वछंद बयार बहूँगी मैं

विशाल आकाश है मेरा जीवन

अनुबंधो में न बंधूगी मैं।

— सपना परिहार 

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सपना परिहार

श्रीमती सपना परिहार नागदा (उज्जैन ) मध्य प्रदेश विधा -छंद मुक्त शिक्षा --एम् ए (हिंदी ,समाज शात्र बी एड ) 20 वर्षो से लेखन गीत ,गजल, कविता ,लेख ,कहानियाँ । कई समाचार पत्रों में रचनाओ का प्रकाशन, आकाशवाणी इंदौर से कविताओ का प्रसारण ।