कहानी – नया सवेरा
अलका सिंह मायके में जितनी सबकी प्रिय थी उतनी ही प्रिय ससुराल में भी थी। ससुर योगेन्द्र प्रताप उसे बेटी सा सम्मान और दुलार देते थे। परिवार के कुछ लोगो को कई बार आश्चर्य भी होता कि ठाकुर साहब बहु को बेटी सा प्यार क्यों देते हैं, पति फ़ौज में कमान्डेंट ऑफिसर होने के चलते उन्हें छुट्टियाँ कम ही मिलती। अलका को कभी पति के साथ जाना होता, कभी ससुराल को देखना होता। वह सारी जिम्मेदारियाँ बखूबी निभा रही थी।
जब कभी वह पति के पास रहने चली जाती, ससुराल वाले परेशान हो जाते। कौन सा सामान कहाँ रखा है, किसे कब क्या चाहिए, किसे खाने में क्या पसंद है, वगैरह-वगैरह, सबका वही तो ख्याल रखती…। उसके न होने पर सब अफरा-तफरी का सा माहौल हो जाता, उसे गए बमुश्किल दस दिन भी न होते, पीछे-पीछे ससुर की चिट्ठी या तार पहुँच जाता- मजमून यही होता कि अलका के बिना पूरा घर अस्त-व्यस्त हो गया है, जितना जल्दी हो बहु की वापसी की व्यवस्था हो जाए।
अलग अलग जगहों पर पति की पोस्टिंग का सबसे बुरा असर उनके बेटे देवेश की पढाई पर पद रहा था। पति की लद्दाख पोस्टिंग के बाद अलका ने निर्णय लिया कि बेटे का दाखिला केन्द्रीय विद्यालय में करा दिया जाये और तीन साल पतिदेव के साथ रहा जाये, पति विश्वजीत का भी ऐसा ही मानना था। आखिरकार देवेश का दाखिला करा कर अलका ने चैन की साँस ली।
अभी दो महीने भी बमुश्किल हुए थे कि ससुराल से खबर आई कि ससुर की तबियत बहुत ख़राब है। अलका को बुझे मन से ही सही वापिस सुसराल आना पड़ा। ससुर की हालत देखी तो उसने उन्हें कार में लेकर दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल ले आने का प्लान बनाया। गॉव-ज्वार के लोगो को घोर आश्चर्य हुआ कि ठाकुर साहब की बहु कार चलाकर ससुर को दिल्ली तक कैसे ले जाएगी? ठाकुर परिवार का मान-सम्मान पूरे इलाके में था। पत्ता भी हिलता तो इस परिवार की मर्जी से। योगेन्द्र प्रताप का पूरे इलाके में नाम था, कितने ही कारिंदे घर और खेत में होते, आम के बगीचे.और आम का व्यापार, सैकड़ों एकड़ जमीन..इलाके के राजा थे योगेन्द्र प्रताप… तीन बेटे और दो बेटियाँ, सब की शादी संपन्न परिवारों में हुई थी। बेटियां विदेश में थी, एक बेटा डॉक्टर, एक इंजीनियर, डॉक्टर बेटा अमेरिका चला गया, इंजीनियर बेटा बुकारो और मझला बेटा सी. ओ। खुशहाल परिवार लेकिन ठाकुर साहब हवेली में पत्नी के सतह नितान्त अकेले।
अलका अपने परिवार में सबसे छोटी थी, उन्होंने अपनी पसंद से शादी की थी, , विश्वजीत दूर के रिश्ते से भाई लगते थे लेकिन रिश्ता इतने दूर का था कि शादी में कोई अड़चन नहीं होनी थी, शुरू में सबने ऐतराज़ किया लेकिन अलका के सौन्दर्य और शिक्षा देखकर किसी को ऐतराज़ न रहा, रिश्तों में अत्मीयता थी चुनांचे हँसी-खुशी विवाह सम्पन्न हुआ और फिर अलका का सबके दिलों पर राज़ हो गया।
अलका ने ससुर योगेन्द्र प्रताप को कार से लाकर के अस्पताल में भर्ती कर लिया गया। उनकी तकलीफ बढती गयी, साँस रुकने लगी तो उन्हें आईसीयू में ले जाया गया। डॉक्टर पूरी कोशिश क्र रहे थे, लेकिन हालात बिगड़ती चली गयी, दो हफ्ते जीवन सुरक्षा तकनीक पर रखकर इलाज करने के बाद डाक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। इस दौरान अलका ही उन्हें लेकर वापिस ससुराल गयी। जल्दी ही पूरा परिवार इकठ्ठा हो चुका था।
अंतिम संस्कार की पूरी तैयारी हो चुकी थी, श्मसान ले जाने के वक़्त परिवार के वकील ने कहा –“ठाकुर साहब अपनी वसीयत लिखकर गए है… वे चाहते थे कि उनके अंतिम संस्कार से पहले उनकी वसीयत पढ़ी जाये।”
किसी ने कहा- “अभी तो अंतिम संस्कार करना ही उचित है, वसीयत तो बाद में भी देखी जा सकती है।
अलका सिंह ने कहा–“बाबूजी की इच्छा का हमें सम्मान करना चाहिए, यदि वो चाहते थे कि अंतिम संस्कार से पहले उनकी वसीयत पढ़ी जाये तो जरुर कोई वजह रही होगी। बाबूजी बिना वजह कुछ भी नहीं करते थे।”
वकील साहब ने वसीयत से संपत्ति का बंटवारा बताकर आगे बोला, ठाकुर साहब लिखवा कर गए हैं कि “मेरी चिता को अग्नि मेरी बहु अलका देगी।”
सुनकर सबको काटो तो खून नहीं, ठाकुर साहब ऐसा कैसे कर सकते हैं? हमारे कुछ रीति-रिवाज हैं, ठाकुरों में औरतें श्मशान तक नहीं जाती और यहाँ बहु अग्नि देगी? अनर्थ हो जायेगा, रीति-रिवाज भी कुछ हैं कि नहीं…। सब में कानाफूसी होने लगी… परिवार के लोग भी स्तब्ध… क्या करें..? तभी अलका सिंह ने कहा- “बाबु जी की आज्ञा का उल्लंघन उनके रहते किसी ने किया जो अब होगा?”
सब मौन… कोई उत्तर नहीं.. कोई शोर-शराबा नहीं… ।
अलका ने आगे कहा-“बाबूजी पुरानी सड़ी-गली प्रथाओं पर कभी विश्वास नहीं करते थे। उनकी प्रगतिशील विचारों में आस्था थी…, वे तो कभी अपनी आसामियों का भी शोषण नहीं करते थे… वे एक स्वस्थ समाज चाहते थे… हमें उनकी इच्छा का सम्मान करना चाहिए… ।”
अलका के तर्क के आगे परिवार और गाँव- ज्वार के सब स्त्री-पुरुष नतमस्तक हुए… चिता को श्मशान घाट ले जाया गया।
सारी औपचारिकता पूरी करने के बाद अलका ने दाह-संस्कार एक लिए प्रज्वलित अग्नि को हाथ में लिया, चिता का भ्रमण करके मुखाग्नि दे दी…, पंडित जी ने विवशता में ही सही कपाल-क्रिया भी अलका के हाथों सम्पन्न कराई। चिता धू-धू करके जल उठी… अलका देख रही थी- चिता के साथ जलते पुराने विचार कि महिलाएं श्मशान भूमि नहीं जाती…।
एक नया सवेरा समाज में पसरते हुए वह साफ़ देख रही थी।
— सन्दीप तोमर