विवेकानंद का राष्ट्र चिन्तन
राष्ट्र चिंतन की चर्चा करने से पूर्व यह समझना अति आवश्यक है की जिस राष्ट्र के चिंतन की हम बात करना चाहते हैं वह राष्ट्रक्या है?
विष्णु पुराण में कहा गया है–
उत्तरं यत्समुद्रस्य, हिमाद्रैश्र्चैव दक्षिणम्, वर्ष तद् भारतम् नाम, भारती तत्र संतति।।
ऋग्वेद में भी अनेक बार राष्ट्र शब्द का उल्लेख आया है–
अहं राष्ट्री स़ंगमनी वसूनाम।
यानि राष्ट्र एक ऐसी ईकाई हुआ जो आपस में मिली जुली हो और खुद ही में एक जगह भी है। राष्ट्र का मूल आधार है लोगों की भावना, यह लोगों की मानसिकता से बनता है। राष्ट्र एक भूखंड भी होता है लेकिन भूखंड मात्र नहीं होता है। राष्ट्र मतलब उसके नागरिक होते हैं। संघ विचारक आदरणीय गोलवलकर जी ने कहा था- इसकी तीन शर्ते हैं
1- जिस देश में रहे उसके प्रति उन लोगों की भावना।
2- इतिहास के में घटित भावनाओं के संबंध में भावनात्मक समानता।
3- सबसे जरूरी शर्त कि वे लोग समान संस्कृति वाले हों।
स्वामी विवेकानंद एक ऐसे संत थे जिनका रोम-रोम राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत था। उनके सारे चिंतन का केंद्र बिंदु राष्ट्र ही था। भारत राष्ट्र की प्रगति और उत्थान के लिए जितना चिंतन और कर्म इस तेजस्वी सन्यासी ने किया उतना समर्पित राजनीतिज्ञों और समाज सुधारकों ने भी संभवत नहीं किया। विवेकानंद के कर्म और चिंतन की प्रेरणा से अनेकों युवकों ने राष्ट्र रथ को आगे बढ़ाने का कार्य करते हुए अपना जीवन समर्पित कर दिया। आज भी स्वामी विवेकानंद के अनेकों अनुयायी राष्ट्र चिंतन की मशाल को प्रज्वलित कर आगे बढ़ा रहे हैं।
“राष्ट्रवाद केवल राजनितिक कार्यक्रम नहीं है। राष्ट्रवाद ईश्वर की इच्छा से उत्पन्न एक धर्म है। राष्ट्रवाद वह धर्म है जिसे आपको जीना है। अगर आप खुद को राष्ट्रवादी कहते हैं तो आपको यह भी याद रखना है कि आप अपनी मातृभूमि की मुक्ति के लिए परमात्मा के उपकरण मात्र हैं। राष्ट्रवाद ईश्वर की शक्ति से संचालित होता है और इसे कुचलने के लिए चाहे लाख हथियार उठाये जाएँ, इसे समाप्त करना संभव नहीं है। राष्ट्रवाद अनश्वर है, यह मर नहीं सकता, क्यूंकि यह मानवीय वास्तु नहीं है। राष्ट्रवाद ईश्वर है और ईश्वर को मारा नहीं जा सकता, ईश्वर को सलाखों के पीछे नहीं डाला जा सकता।” (श्री अरविन्द )
“राष्ट्रीयता का आधार धर्म व संस्कृति होता है।” विवेकानंद
लगभग 130 वर्ष पूर्व का स्वामी विवेकानंद का यह चिंतन आज विश्व व्यापी परिलक्षित होता दिख रहा है। 9 /11 /2001 की घटना के बाद अमेरिका के रणनीति विशेषज्ञ सेम्युएल हेन्तिन्ग्त्न ( semual hantingtan) ने पिछले 25 -30 वर्षों की खोज के बाद कहा “हम कौन हैं?” और इसके निष्कर्ष में बताया “अमेरिका में भले ही विश्व के लगभग सभी समुदायों के लोग बसते हैं किन्तु अमेरिका की मौलिक पहचान श्वेत(wasp -white), आंग्ल सैक्शन(anglo -saxon ), प्रोतेस्तंत (protestant ) ही हैं। बाकी सभी समुदाय इसमें शामिल हैं “|
हाल ही में क्रिश्मस के अवसर पर ऑक्सफोर्ड में बोलते हुए ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने घोषणा की—-
” ब्रिटेन एक ईसाई राष्ट्र है और इसे कहने में किसी को संकोच अथवा भय की आवश्यकता नहीं।”
स्वामी विवेकानंद का चिंतन 130 वर्ष बाद सत्य सिद्ध हो रहा है। उन्होने कहा था “राष्ट्रीयता का आधार धर्म व संस्कृति” ही होता है। उन्होंने “हिन्दुत्व” को भारत की राष्ट्रीय पहचान के रूप में प्रतिष्ठित किया। 17 सितम्बर 1893 को शिकागो में धर्म सभा में उन्होंने भारत को “हिन्दू राष्ट्र” के नाम से महिमा मंडित किया और स्वयं के “हिन्दु होने पर गर्व” को विस्तार से विश्लेषित किया। उन्होंने बताया ” हिन्दू धर्म पर प्रबंध” ही हिन्दुत्व की राष्ट्रीय परिभाषा है। इसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में समझने पर हमें हमारे विशाल देश की बाहरी विविधता में अन्तर्निहित एकता के दर्शन होते हैं। सहस्त्राब्दियों से यह भारत वर्ष आर्यावर्त एक संघ संस्कृतिक राष्ट्र रहा है। शिकागो से वापसी पर उन्होंने कहा कि “केवल अंध देख नहीं पाते, और विक्षिप्त बुद्धि समझ नहीं पाते कि यह सोया देश अब जाग उठा है। अपने पूर्व गौरव को प्राप्त करने के लिए इसे अब कोई नहीं रोक सकता।” उन्होंने सभी हिन्दुओं को सब भेदों से ऊपर उठकर अपनी राष्ट्रीय पहचान पर गर्व करना सिखाया। एक बार लाहौर में उनके सम्मान में सनातनी, आर्यसमाजी तथा सिखों ने अलग अलग सभाओं का आयोजन करना चाहा तो उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया और सबको एक ही मंच पर आह्वान किया। वहां उन्होंने “हिन्दुत्व के सामान्य आधार” पर अपना आख्यान दिया।
भारत वर्ष के सन्दर्भ में उन्होंने यथार्थ दर्शाते हुए कहा “भारत भूमि पवित्र भूमि है, भारत मेरा तीर्थ है, भारत मेरा सर्वस्व है, भारत की पुण्य भूमि का अतीत गौरवमय है, यही वह भारत वर्ष है जहाँ मानव, प्रकृति एवं अंतर्जगत की रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे।” उन्होंने कहा था चिंतन मनन कर राष्ट्रचेतना जाग्रत करो लेकिन आध्यात्मिकता का आधार न छोडो।” उनका स्पष्ट मत था कि पाश्चात्य जगत का अमृत हमारे लिए विष हो सकता है। युवाओं का आह्वान करते हुए स्वामी जी कहा करते थे “भारत के राष्ट्रीय आदर्श सेवा व त्याग हैं। नैतिकता, तेजस्विता, कर्मण्यता का अभाव न हो। उपनिषद ज्ञान के भंडार हैं, उनमे अद्भुत ज्ञान शक्ति है, उसका अनुसरण कर अपनी निज पहचान व राष्ट्र का अभिमान स्थापित करो।”
यही तो है राष्ट्र चिंतन।
1896 कि विदेश यात्रा के बाद विवेकानंद ने पुरे देश का दौरा किया। उन्होंने कहा “एक शताब्दी के ब्रिटिश शासन ने जो आघात किया है उतना अब तक के कोई आक्रान्ता नहीं कर पाए। भारत के मन को तोड़ने का कार्य ब्रिटिश लेखकों, शिक्षाविदों ने सफलता पूर्वक किया। उन्होंने पूछा “यह कौन सी शिक्षा है जो आपको पहला पाठ पढ़ाती है कि आपके माता पिता व पूर्वज मुर्ख हैं और आपके आराध्य देवी -देवता शैतान? आज से 50 वर्ष पूर्व जिस देश के युवाओं की आँखों में भय अथवा संकोच नहीं था, आज उस देश के युवा निस्तेज क्यूँ हैं? स्वामी जी ने इस पीड़ा को अनुभव किया और कन्याकुमारी में देश के युवाओं का सिंहत्व जगाने का चुनौती पूर्ण संकल्प लिया। स्वामी विवेकानंद ने बार-बार कहा कि “भारत के पतन का कारण धर्म नहीं है अपितु धर्म के मार्ग से दूर जाने के कारण ही भारत का पतन हुआ है। जब जब हम धर्म को भूल गए तभी हमारा पतन हुआ है और धर्म के जागरण से ही हम पुनः नवोत्थान की और बढे हैं।”
स्वामी जी ने धर्मग्लानी के तीन कारणों को प्रमुखता से चिन्हित किया—
- जन सामान्य का अनादर
*नारी शक्ति का अपमान
*शुभ कार्य में रत लोगों में आपसी ईर्ष्या।
उन्होंने जोर देकर कहा कि उपरोक्त तीन समस्याओं का निदान ही भारत के उत्थान का एक मात्र उपाय है। स्वामी जी की प्रेरणा से तीनों समस्याओं के निराकरण के लिए अनेक अभियान चलाये गए और बड़ी मात्रा में जागृति भी हुई। विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन “राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ” भी स्वामी विवेकानंद जी कि प्रेरणा से ही बना जो आज सम्पूर्ण विश्व में नि:स्वार्थ भाव से सेवा कर रहा है| स्वामी जी ने स्पष्ट किया कि जब तक भारत में धर्म प्रतिष्ठित नहीं होता तब तक सारे प्रयास अधूरे हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय होने का क्या अर्थ है ,इसे समझें और इसे समझने के लिए अपने पूर्वजों के धर्म एवं संस्कृति के आधार पर राष्ट्रीयता को जाने। स्वामी जी का मानना था कि मात्रभूमि की सेवा के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती है।
नरेंदर नाथ से विवेकानंद का सफ़र——-
मात्र 30 वर्ष की आयु में विश्व धर्म सभा में भारतीय ज्ञान एवं गौरव का ध्वज फहराने वाले स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ था | इनके बचपन का नाम वीरेश्वर था और इनकी माता जी इन्हें “विले” कहकर पुकारती थी तथा इनके पिता द्वारा इनका नाम नरेंदर नाथ रखा गया था | नरेंदर नाथ अपने गुरु के आदेश से विवेकानंद बन चुके थे। 1893 में शिकागो में विश्व धर्म संसद का आयोजन किया गया। शिकागो के प्रथम गिरिजाघर के वरिष्ठ पादरी जान हेनरी बेरोज (jaun henary beroj ) के नेतृत्व में इसका आयोजन किया गया था। जिसका मूल उद्देश्य कहीं न कहीं ईसाई धर्म को श्रेष्ठ बताना ही था। बाद में स्वामी जी ने अपने पत्र में लिखा “ईसाई धर्म का अन्य सभी धार्मिक विश्वासों के ऊपर वर्चस्व साबित करने हेतु विश्व धर्म महासभा का संगठन किया गया था।” अपने एक साक्षात्कार में भी स्वामी जी ने कहा “मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह विश्व धर्म महा सभा जगत के समक्ष अक्रिस्तियों का मजाक उड़ाने हेतु आयोजित कि गई है।” यधपि इस आयोजन कि कल्पना श्री चार्ल्स कराल बोनी (charls karal bauni )जो सुविख्यात वकील व अंतर राष्ट्रीय कानून एवं आदेश लीग के अध्यक्ष पद पर सुशोभित थे, ने 1889 में की थी।
जिस समय शिकागो में 1893 में धर्म सम्मलेन हुआ, उस समय पाश्चात्य जगत भारत को हीन दृष्टि से देखता था। वहां के लोगों ने बहुत प्रयास किया कि विवेकानंद को सर्व धर्म परिषद् में बोलने का समय ही ना मिले, मगर एक अमेरिकी प्रोफ़ेसर के प्रयास से उन्हें थोडा समय मिला। उनके विचारों ने अमेरिका में तहलका मचा दिया। वहाँ के मिडिया ने उन्हें “साइक्लोनिक हिन्दू”का नाम दिया।” अध्यात्म विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा” कहकर स्वामी जी ने पुन: भारत को विश्व गुरु पद पर प्रतिष्ठित कर दिया।
गुरुदेव रविंदर नाथ टैगोर के अनुसार—
“यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए, उसमे सब कुछ सकारात्मक पायेंगे, नकारात्मक नहीं।”
रोमा रोला ने कहा था —
“उनके द्वितीय होने कि कल्पना करना भी असंभव है, वे जहाँ भी गए सर्व प्रथम हुए| हर कोई उनमे अपने नेता का दिग्दर्शन करता है। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमाचल प्रदेश में एक बार एक अनजान व्यक्ति उन्हें देख कर ठिठक गया और आश्चर्य पूर्वक चिल्ला उठा
“शिव “! यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उन के माथे पर लिख दिया हो |”
स्वामी विवेकानंद केवल एक संत ही नहीं थे, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक व मानवता प्रेमी वह चिन्तक भी थे | स्वतंत्रता आन्दोलन में उन्होंने देशवासियों का आह्वान किया कि नए भारत के निर्माण के लिए मोची की दुकान, भड़भूजे के भाड़, कारखाने से, हाट से, बाज़ार से, निकल पड़ो खेत से खलियान से, झाड़ियों और जंगलों से, पहाड़ों और पर्वतों से, तब ही नव भारत का निर्माण होगा | परिणाम स्वरुप जनता निकल पड़ी। आज़ादी कि लड़ाई में गाँधी जी को जो जन समर्थन मिला था, यह उसी आह्वान का प्रतिफल था।
महात्मा गाँधी ने कहा था—-
मैंने स्वामी जी के ग्रन्थ बड़े ही मनोयोग से पढ़े हैं और इसके फलस्वरूप देश के प्रति मेरा प्रेम हजारों गुना बढ़ गया है |”
नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने अपने विचारों में कहा—
“स्वामी विवेकानंद का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजना देने वाला धर्म था| स्वामी जी ने स्पष्ट रूप से राजनीति का एक भी सन्देश नहीं दिया था, पर जो कोई भी उनकी रचनाओं के संपर्क में आया, उसमे अपने आप ही देशभक्ति और राजनैतिक मानसिकता उत्पन्न हो गई|”
पंडित जवाहर लाल नेहरु के अनुसार—
“पता नहीं आज की युवा पीढ़ी में से कितने लोग स्वामी विवेकानंद के लेख व्याख्यान पढ़ते हैं पर मेरी पीढ़ी के बहुत से नवयुवक उनसे अत्याधिक प्रभावित हुए थे। मेरा विचार है कि वर्तमान पीढ़ी भी अगर स्वामी जी की रचनाओं का अनुशीलन करे तो उसका बड़ा ही कल्याण होगा |”
महाकवि दिनकर ने स्वामी जी के लिए कहा था—
“विवेकानंद वह सेतु हैं जिस पर प्राचीन और नवीन भारत परस्पर आलिंगन करते हैं | विवेकानंद वह समुद्र हैं जिसमे धर्म और राजनीति, राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता तथा उपनिषद और विज्ञान, सबके सब समाहित होते हैं |”
उनका कहना था “उठो , जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने मानव जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए |”
4 जुलाई 1902 को उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद कि व्याख्या कि और कहा ” एक और विवेकानंद चाहिए, यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है |” शायद उन्हें अपनी मृत्यू का पूर्वाभास हो गया था। उसी दिन बेलूर के राम कृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानावस्था में ही प्राण त्याग दिए।
यूं तो राष्ट्र चिंतन को लेकर अनेक तथ्यों पर चर्चा और चिंतन किया जा सकता है मगर राष्ट्र का निर्माण कैसे हो, इससे बड़ा चिंतन का विषय कोई हो ही नहीं सकता।
राष्ट्र चिंतन की जब बात हो, सर्वप्रथम विवेकानंद को पढ़ें,
सनातन की परिभाषा- हिन्दुत्व का सार क्या? उनको गहें।
गर्व हो भारत भूमि पर, दरिद्र नारायण में भगवान देखिये,
संस्कार, सभ्यता और संस्कृति समन्वय, नरेन्द्र में फूले बढ़ें।
— डॉ. अ. कीर्तिवर्धन