कविता

खरीददार

खरीददार है मौजूद यहाँ
पर बिकने वाला है बदनाम,
वो ही सहे क्यों अपमान
खरीददार का क्या नहीं योगदान?

ऊँचे पदों पर हैं आसीन
गिने जाते हैं वह नामचीन
पर अपनी रातें करते रंगीन
क्या उनकी इज्जत नहीं होती छिन्न?

उसका तो हो गया नामकरण
और तुम करो स्वच्छंद विचरण!
कहता नहीं कुछ तेरा अंतःकरण?

कुछ तो कर ले तू भी शर्म
देकर पैसे गंवाई इज्जत
फिर कैसे मिल गई तुझको शोहरत?

तुझे क्या लगता है तूने
कुछ भी नहीं गँवाया है
हो सकता उसके घर में
पल रहा तेरा ही जाया है,
उसकी परवरिश के खातिर ही
बेच रही वो खुद की काया है।

खरीद-दार गर ना रहे
फिर खुद को बेचेगा कौन ?
प्रश्न है ये नामचीनों
क्यों हो गये अब तुम मौन?

— सविता सिंह मीरा

सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - [email protected]