हास्य व्यंग्य

नागराज की खारिज अर्जी

नागराज बहुत क्रोधित और खीझें हुए मन के साथ बैठे थे। जब दुनिया में अपने मन की बात ना हो तो खीझनें के अलावा कोई कर ही क्या सकता है। अपना रोष प्रकट करने का भला और क्या उपाय है। यह खींझ दुनिया से ज्यादा अपनी असमर्थता के ऊपर आती है। वैसे किसी वस्तु से खींझना भी बहुत काम की चीज है। आसान बिल्कुल नहीं है किसी से अचानक से खींझ जाना। बहुत ज्यादा अपने आप को या लोगो द्वारा प्रताड़ित होना पड़ता है। तब कही जाकर यह खींझ आती है।
अक्सर खींझने पर ही कोई नया मार्ग सुझाई पड़ता है। वरना हर कोई इतना आराम तलब हो चुका है। जो जैसा है वैसे ही ढर्रे पर चलता रहता है। जीवन में कोई नई राह खोजना ही नही चाहता है। कुछ नया
सूझने के लिए खींझना जरूरी हो जाता है। खींझने बिना तो इस धरती पर कोई परिवर्तन नही होने वाला है। इसीलिए सबको थोड़ा बहुत खींझना चाहिए। और स्वयं की भलाई इसी में है कि मौका महल देखकर ही यह खींझने का कार्यक्रम करे। ऐसा ना हो कि व्यक्ति को लेना का देना पड़ जाय।
यह बात भी हास्यास्पद है कि नागराज के पास दांत होने के बावजूद उन बेचारे की यह दुर्गति हो रही थी। अतः खींझना स्वभाविक ही था।
नागराज की खोपड़ी हिली हुई थी। वह मनुष्य के लैब में थे। और रोज उनसे बिना उनकी इच्छा के जहर ले लिया जाता था। और उसके बाद उठाकर उन्हें फिर से डब्बे में फेंक दिया जाता था। आगे दो-चार चूहे भींख के जैसे फेंक कर मिल जाता था। इज्जत के साथ भी तो दिया जा सकता था। पर इंसान तो वही है जिसको जलील करता है जी भर कर जलील करता है। चाहे वह कहीं का महाराजा ही क्यों ना रहे।
उनकी हालत जैसे किसी पालतू कुत्ते जानवर की तरह थी। ऐसा लगता चार तमाचे गाल पर किसी ने लगा दिए हो। और वह व्यक्ति कुछ नहीं कर पाया हो। आखिर नाराज होकर फुंफकाराने के अलावा कुछ कर नहीं पा रहे थे। अपने हलाहल विष का कोई सटीक प्रयोग नही कर पा रहे थे। बल्कि उनके विष का प्रयोग कोई और ही कर रहा था।
नागराज का विचार था कि कम से कम इंसानों को एक बार पूछना तो चाहिए। उनके जहर का आखिर वह लोग क्या कर रहे हैं। लेकिन सबका सोचा एक तरफ और इंसान का मन एक तरफ था।
और वह चाह कर भी स्थिति बदल नहीं पा रहे थे। और कहा जाता है कि जिसका कोई नहीं होता है उसका ऊपर वाला होता है।
अतः वह भी अपनी अर्जी लेकर ऊपर वाले के दरबार में पहुंच गए। तो प्रभु ने पूछा कहिए-“नागराज आपका आना क्यों हुआ?।”
“भगवान हम सांपों को जहर के अलावा कुछ और भी शक्ति दीजिए। मात्र जहर की शक्ति से काम नहीं चल रहा है धरती पर।”
“अरे गजब बात करते हो किसी की जान लेने की शक्ति दे दिए हैं अब तुम्हें क्या चाहिए?।”
“यह तो आपको लगता है कि हम लोगों को बहुत दे दिए हैं। लेकिन हमारी खूबी ही हमारी खामी बन चुकी है और हमारा जीना दुश्वार हो चुका है।”
“क्यों क्या हुआ?।”
“प्रभु अनजान मत बनिए आपको सब पता है हम सांपों की धरती पर क्या दुर्गति हो रही है.. हमारे जहर में वह बात नहीं रही जो इंसान के जहर में है।”
“तो आखिर चाहते क्या हो?।”
“प्रभु हम लोग तो बस इतना चाहते हैं की धरती पर हम लोग चैन से जिए लेकिन चैन से जीने के लिए या तो आपको इंसानों को रखना पड़ेगा या जानवरों को रखना पड़ेगा।”
“अरे ऐसा क्यों कह रहे हो?।”
“प्रभु एकदम सही बात कह रहे हैं धरती पर इंसानों के साथ रहना आसान बात नहीं है।”
“अब ऐसा क्या हो गया।”
“प्रभु जैसा कि आप जानते हैं मैं सांपों का राजा कोबरा हूं लेकिन मुझे मनुष्य ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे मैं गुबराला हूं ..उन्हें मुझसे कोई डर कोई भय नहीं है ..मेरे काटने का भी उन सभी के पास एंटी डोज पहले ही तैयार रहता है।”
भगवान सिर खुजाते हुए -“तो बताओ तुम्हारे लिए क्या किया जाए।”
“भगवान आप कुछ मत कीजिए आप बस हम सांपों को भी मनुष्यों के जैसे दिमाग दे दीजिए बाकी सब कुछ हम लोग खुद कर लेंगे।”
“इंसानों को दिमाग देकर पहले ही पछता रहा हूं धरती पर और बखेड़ा मुझे नहीं चाहिए।”
और भगवान ने सर्प राज की अर्जी रिजेक्ट करते हुए उन्हें वापस धरती लोक भेज दिया।

— रेखा शाह आरबी

रेखा शाह आरबी

बलिया (यूपी )