शरीफों से कौन मिलता है
इस ज़माने में शरीफों से कौन है मिलता
टूटे दिल के टुकड़ों को कौन है सिलता
पड़ोसी को सुखी देख कर दुखी रहते हैं सारे
दूसरे को सुखी देख चैन कहाँ है मिलता
कैसे गिराएं लगे रहते हैं इसी उधेड़ बुन में
बिना किसी का अनिष्ट किये है चैन कहां मिलता
बरसात आने पर ही बरसती हैं बूंदें
बिना मौसम के है फूल है कहां खिलता
शहर में चर्चे होते है बदमाशों के
सत्ता के गलियारों में अपनी चमक है दिखाते
ठाठ से रहते हैं कोई उनका नहीं कुछ बिगाड़ पाता
शरीफ तो गुमनामी में ही मर हैं जाते
हद से ज़्यादा शरीफ होना भी है एक गुनाह
शराफत का सब हैं फायदा उठा जाते
अपना उल्लू सीधा करके नज़र नहीं हैं आते
शरीफ के कंधे पर रखकर बंदूक हैं चलाते
— रवींद्र कुमार शर्मा