इच्छाएँ
मन अंतहीन इच्छाओं का जन्मदाता हैं । वह कभी कुछ,कभी कुछ चाहता ही रहता हैं पर सब कुछ मन मुताबिक हो यह संभव ही नहीं हैं । सब इच्छाएँ जिसकी हों पूरी ऐसा कोई व्यक्ति ही नहीं हैं क्योंकि सब इच्छाएँ किसी की न आज तक पूरी हुई हैं, न होती हैं। यह तथ्य है कि इच्छाएँ अन्तहीन हैं जबकि शास्त्र वचन है जब तक इच्छाएँ अनन्त हैं आदमी शान्ति विहीन है। इच्छाओं का मकडजाल के घेरे में जब घुसते हैं तो उससे निकलने के लिए फिर कहीं मार्ग नहीं है। इच्छायें फिर ऐसा ताना बाना बुनती है कि उसका फिर समुद्र के दो किनारों की तरह कोई ओर छोर नहीं हैं । इन्सान की इच्छापूर्ति कभी पूरी नहीं होती हैं । एक पूरी हो भी जाये तो दुगुनी इच्छा मुँह बायें सामने खड़ी रहती है ,तभी तो कहते हैं कि इच्छाओं का आसमान अन्तहीन है। एक बाबा थे। उनके पास पहनने को सिर्फ़ एक लँगोटी थी। एक दिन एक भक्त जो कपड़ों का व्यापारी था आया और कुछ कपड़ा लेने का बहुत आग्रह किया। बाबा ने सोचा इतना आग्रह कर रहा है एक लँगोटी जितना कपड़ा रख लेता हूँ। एक धोकर सूखाऊँगा दूसरी लँगोटी काम आ जायेगी। एक दिन लंगोटी घास पर सूख रही थी चूहे ने काट ली। दूसरे दिन फिर दूसरी भी चूहे ने काट ली। भक्त को पता चला तो बिल्ली रखने की सलाह दी। पालतू बिल्ली पाल ली। अब बिल्ली म्याऊँ म्याऊँ करने लगी तब लगा इसको तो पीने के लिए दूध चाहिये , तब गाय की चाह पैदा हुयी। भक्त ने गाय ला दी। अब गाय दुहने वाली चाहिये , तो बाबा ने शादी कर ली ।परिवार बढ़ा। एक बार पुराने भक्तों की टोली बाबा के दर्शन करने पहुँची। वहाँ खेल रहे बच्चों से पूछा – यहाँ बहुत पहले एक अकेले बाबा रहते थे वो कहाँ है ? इतने में बाबा आये कहा- मैं ही वो बाबा हूँ पर सिर्फ़ एक चाह ने केवल आश्रम की जगह गृहस्थ आश्रम बना दिया। अत: यही शिक्षा जीवन में उतारनी चाहिये कि छोटी सी चाह भी बहुत बड़ा संसार बढ़ा देती है। इच्छाएँ आकाश के समान अनंत होती है जैसे आकाश अंतहीन होता है वैसे ही इच्छाओं का भी अंत नही होता है । इच्छाएँ बढ़ – बढ़ कर जितनी आँनलाइन होती जा रही है ,सुख की नींद उतनी ही ज़्यादा – ज़्यादा आँफलाइन होती जा रही है । एक कहावत सुनी थी कि जिसके पास दांत है उसके पास चने नही और जिसके पास चने है उसके पास दांत नही है अर्थात जिसके पास पैसा तो है उसके पास करने को साथ में काम नही है और जिसके पास करने को काम है उसके पास साथ में पैसा नही और जिसके पास काम और पैसा दोनो है लेकिन काम सही से करने का तरीका नही है आदि – आदि । जीवन में कुछ न कुछ कमी सबके पास है और इस मृग मरिचिका को पाने इंसान इच्छाओं की लम्बी – लम्बी कतार या आशाओं के ऊँचे – ऊँचे अम्बार लगाता हैं परंतु सही से प्रसन्नता का ताला केवल और केवल आत्म संतुष्टि की चाबी से ही खुलता है।इसलिए ये उपाय हैं -हम आवश्यकताएँ हो सके जितनी कम करें और सही रहकर परिस्थितियों से लगातार तालमेल बिठाएँ। इंसान जितना हल्का होता हैं उतना ऊपर उठता हैं पर हमारा समूचा जीवन अतिअपेक्षा से भरा है। भोजन-मकान-वस्त्र तो न्यूनतम आवश्यकतायें हैं ।शिक्षा-चिकित्सा की सुविधा भी चाहिए पर जब अति हो जाए तो समस्याएँ आती हैं।सोने के महल में भी आदमी दुखी हो सकता है यदि पाने की इच्छा समाप्त नहीं हुई हो और झोपड़ी में भी आदमी परम सुखी हो सकता है यदि ज्यादा पाने की लालसा मिट गई हो तो , हम अनुकूल व प्रतिकूल दोंनो में संतोष रखें, सुख का संबंध साधनों व धन से नही होता है , जिसका मन संतुष्ट उसके लिए सब जगह संपदा होती है । हम संतोष की साधना में आगे बढ़े, इच्छाओं का व भोग-उपभोग का सीमाकरण हो,पूर्णतया इच्छा खत्म होना मुश्किल है पर ज्यादा लालसा भी न हो, संतोष जीवन में हो,अतः इच्छाओं का अल्पिकरण करने से जीवन में शांति आ सकती है।
— प्रदीप छाजेड़