लघुकथा – मैं और तुम
अप्रैल का महीना और गर्मी का ये आलम ,शीला का गर्मी के मारे बुरा हाल था।”सुनो जी ! मुझसे अब कोई काम नहीं होगा।रसोई की तरफ जाने का मन ही नहीं होता है। ”
अभी तो ग्रीष्म का आगमन ही हुआ है प्रिये जून तो जला ही डालेगा रमेश हँसता है। “सुनो ! अब बाहर के कमरे में भी ए.सी. लगवा दो।एक ही कमरे में भी तो बैठे बैठे जी ऊब जाता है “तभी प्रिया भी बोल पड़ती है पापा मेरे कमरे में भी।
“क्या ? ए सी से इस समस्या का समाधान हो जायेगा ज़िंदगी कोई चार दीवारी में सिमटी तो है नही घर से बाहर का सफ़र कैसे तय करोगे ? ये समस्या तो प्रकृति के दोहन से मानव नेस्वयं उत्पन्न की है।”
” देखो ना शहरों के विकास मेट्रो के आगमन ने हज़ारों की संख्या में बडे पेंड काट गिराये।अन्यान उपकरणो से निकलने वाली जहरीली गैसो ने वायु मंडल के सुरक्षा कवच को कई जगह से क्षतिग्रस्त कर दिया।जो इस तपन का मुख्य कारण है और तापमान दिनो दिन बढ रहा है।” सच कह रहें है आप शीला ने रमेश को देखते हुए कहा।
दोनो अपने बोन्साई गार्डेन में आकर बैठते हैं प्रिया चाय लाती है। चाय पीकर शीला अपने पौधों में पानी डालने लगती है।
शीला आम के पेड़ से उलझे अपने आंचल को छुड़ाती है तो उसे लगता है की जैसे उसने कुछ कहा वो सभी पौधो को बारी बारी से छूती है। उसे लगता है उससे आम ,पीपल ,बरगद,नीम सभी एक स्वर में कह रहे हैं मुझे भी स्व्छन्द बढने दो मत बाँधो तारों से। जब हम ऊँचाइयो से लहलहायेगे तो स्वच्छ वायु बहेगी वायुमंडल का जहर मुझमे अवसोशित होगा ओजोन सुरक्षित होगी। तपन भी स्वयं कम होजागी।
शीला आवाक थी उसके कानों में ध्वनित हो रहा था……
“तुम से हम और हम से तुम्हारा अस्तित्व है। दोहन नहीं संरक्षण करो मेरा।आओ थाम लो मुझे और मैं वायुमन्डल के विनाश को थाम लूँगा “।
— मंजूषा श्रीवास्तव “मृदुल”