गीत/नवगीत

जब भी खोलूँ मैं अपने द्वार

जब भी खोलूँ खिड़की द्वार,
दिखे नभ मेघ का प्रणय अपार।

करते दोनो लुका छिपी,
रहते मिल के हँसी खुशी।

बादल के झुँड को देखती,
बना लेती फिर कोई आकृति,

उनके साथ में खेलती,
लगता है वह मेरी प्यारी सखी।

रिश्ता है मेरा कुछ उनसे खास
पल में लगता आ गये पास।

लागे मुझे कालिदास का मेघ,
जिसने बदल कर उसका भेष,

भेजा है बना अपना दूत
ना जाने कहाँ हो गया विलुप्त?

लगता है कि वह बरस गया,
या ओस की बूँदों में ठहर गया।

भर जाते है मेरे जज्बात,
जब भी देखूँ ओस की बूँदे

या खिली पूर्णिमा की चाँद
स्वरित हो जातें हैं वो स्यात्।

प्रकृति से मेरा यह प्यार
देता मुझको खुशियाँ अपार।

— सविता सिंह मीरा

*सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - meerajsr2309@gmail.com

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