मुक्तक/दोहा

मुक्तक

उम्र के साथ सब कुछ बदल जाता है,
बचपन का खेल भी अब नहीं भाता है।
ज़िम्मेदारी का भाव जीने ही नहीं देता,
मरने का भाव दायित्व याद दिलाता है।

घूमना फिरना देशाटन अच्छा लगता था,
अब तन्हा जीवन, यादों संग होना भाता है।
चाट पकौड़ी और मिठाई बहुत प्रिय थी,
भूल गये चग्घे मग्घे, लौकी खाना भाता है।

कभी घूमते कोट पैंट पहन, बाबू से बनकर,
सहज सरल पहनावा, कुर्ता याद आता है।
बहुत घूमते थे गाड़ी में, कोठी बंगले में रहते,
अब अपना कमरा अपना बिस्तर हमें सुहाता है।

— डॉ. अ. कीर्तिवर्द्धन

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