1942 की रानी झाँसी : अरुणा आसफ अली
स्वतंत्रता संग्राम की “ग्रैंड ओल्ड लेडी“ : अरुणा आसफ अली
देश की आजादी में महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। कईयों ने तो अपनी जान भी गँवा दी, फिर भी महिलाओं के हौसले कम नहीं हुए। रानी चेनम्मा और रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं का उदाहरण हमारे सामने है, पर जब आजादी का ज्वार तेजी से फैला तो तमाम महिलाएं भी इसमें शामिल होती गईं। इन्हीं में से एक हैं- अरुणा आसफ अली। उनका जन्म 16 जुलाई 1909 को तत्कालीन पंजाब (अब हरियाणा) के कालका में हुआ था। लाहौर और नैनीताल से पढ़ाई पूरी करने के बाद वह शिक्षिका बन गईं और कोलकाता के गोखले मेमोरियल कॉलेज में अध्यापन कार्य करने लगीं। अध्यापन के साथ-साथ वे स्वाधीनता सम्बन्धी गतिविधियों पर भी निगाह रखती थीं और प्रेरित होती थीं। 1928 में कांग्रेसी नेता और स्वतंत्रता सेनानी आसफ अली से शादी करने के बाद अरुणा गांगुली भी पार्टी सम्बन्धी गतिविधियों और स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने लगीं। शादी के बाद उनका नाम अरुणा आसफ अली हो गया।
अरुणा आरंभ से ही तेज-तर्रार थीं, अतः उनसे अंग्रेजी हुकूमत को शीघ्र ही खतरा महसूस होने लगा। अरुणा आसफ अली ‘नमक कानून तोड़ो आन्दोलन’ के दौरान जेल भी गयीं। 1931 में जब गाँधी-इरविन समझौते के तहत सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया गया, लेकिन अरुणा आसफ अली को नहीं छोड़ा गया। इस पर महिला कैदियों ने उनकी रिहाई न होने तक जेल परिसर छोड़ने से इंकार कर दिया। अंततः अरुणा की लोकप्रियता को देखते हुए ज्यादा माहौल न बिगड़े, अंग्रेजों ने अरुणा को भी रिहा कर दिया। अपने तीखे तेवरों के लिए मशहूर अरुणा ने अंग्रेजों के विरुद्ध कोई भी मौका हाथ से न जाने दिया। 1932 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और तिहाड़ जेल, दिल्ली में रखा गया। पर अरुणा आसफ अली कहाँ शांति से बैठने वाली थीं, वहाँ उन्होंने राजनीतिक कैदियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के खिलाफ भूख हड़ताल आरंभ कर दी, जिसके चलते अंग्रेजी हुकूमत को जेल के हालात सुधारने को मजबूर होना पड़ा। रिहाई के बाद भी अरुणा आजादी के आन्दोलन में सक्रिय बनी रहीं।
8 अगस्त 1942 को जब बम्बई अधिवेशन में गाँधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन की उद्घोषणा करते हुए करो या मरो का नारा दिया तो अरुणा आसफ अली ने भी इसे उसी अंदाज में ग्रहण किया। अंग्रेजी हुकूमत ने इस आन्दोलन से डर कर सभी प्रमुख नेताओं को तुरंत गिरफ्तार कर लिया। पर अरुणा आसफ अली तो गजब की दिलेर निकलीं, वे अंग्रेजों के हाथ तक नहीं आईं। अगले दिन नौ अगस्त 1942 को उन्होंने अंग्रेजों के सभी इंतजामों को धता बताते हुए शेष अधिवेशन की अध्यक्षता की और मुम्बई के ग्वालिया टैंक मैदान में तिरंगा झंडा फहरा कर भारत छोड़ो आन्दोलन का शंखनाद कर अंग्रेजी हुकूमत को बड़ी चुनौती दी। अंग्रेजी हुकूमत ने अधिवेशन में शामिल लोगों पर गोलियां तक बरसाईं, पर अरुणा तो मानो जान हथेली पर लेकर निकली थीं। इस घटना से वे 1942 के आन्दोलन में एक नायिका के रूप में उभर कर सामने आईं। अरुणा आसफ अली की इस दिलेरी और 1942 में उनकी सक्रिय भूमिका के कारण ‘दैनिक ट्रिब्यून’ ने उन्हें ‘1942 की रानी झाँसी’ नाम दिया।
गौरतलब है कि इस आन्दोलन के दौरान जब सभी शीर्ष नेता गिरफ्तार या नजरबन्द हो चुके थे, अरुणा आसफ अली व सुचेता कृपलानी ने अन्य आन्दोलनकारियों के साथ भूमिगत होकर आन्दोलन को आगे बढ़ाया तो ऊषा मेहता ने इस दौर में भूमिगत रहकर कांग्रेस-रेडियो से प्रसारण किया। अंग्रेजी हुकूमत अरुणा आसफ अली से इतनी भयग्रस्त चुकी थी कि उन्हें पकड़वाने वाले को पाँच हजार रुपए का इनाम देने की घोषणा की। उनकी सम्पति को जब्त कर नीलाम तक कर दिया गया। इसके बावजूद अरुणा ने हिम्मत नहीं हारी। इस दौरान उन्होंने राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर कांग्रेस पार्टी की मासिक पत्रिका ‘इन्कलाब‘ का संपादन भी किया। 1944 के संस्करण में उन्होंने युवाओं का आह्वान किया कि वे हिंसा और अहिंसा के वाद-विवाद में न पड़कर क्रांति में शामिल हों और देश को आजाद कराएँ। इस बीच उनका स्वास्थ्य भी खराब हो गया तो गाँधी जी ने उन्हें एक पत्र लिखा कि वह समर्पण कर दें ताकि इनाम की राशि को हरिजनों के कल्याण के लिए इस्तेमाल किया जा सके। अरुणा को गाँधी जी का यह प्रस्ताव तात्कालिक रूप से ठीक नहीं लगा और उन्होंने समर्पण करने से मना कर दिया। अंततः अंग्रेजी हुकूमत द्वारा 1946 में गिरफ्तारी वारंट वापस लिए जाने के बाद ही वह लोगों के सामने आईं।
आजादी के बाद भी अरुणा आसफ अली राजनीति और समाज-सेवा में सक्रिय रहीं। अपनी लोकप्रियता की बदौलत 1958 में वे दिल्ली की प्रथम महापौर निर्वाचित हुईं। 1964 में उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय लेनिन शांति पुरस्कार मिला। राष्ट्र निर्माण में जीवनपर्यन्त योगदान के लिए उन्हें 1992 में भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया।
अरुणा आसफ अली की जीवनशैली काफी अलग थी। वे जनता से जुड़े मुद्दों पर काफी संवेदनशील थीं। यहाँ तक कि अपनी उम्र के आठवें दशक में भी उन्होंने सार्वजनिक परिवहन से सफर जारी रखा। इस सम्बन्ध में एक घटना को उद्धरित करना उचित होगा। एक बार अरुणा आसफ अली दिल्ली में यात्रियों से ठसाठस भरी बस में सवार थीं। बस में कोई सीट खाली नहीं थी। उसी बस में आधुनिक जीवनशैली की एक युवा महिला भी सवार थी। एक आदमी ने युवा महिला की नजरों में चढ़ने के लिए अपनी सीट उसे दे दी लेकिन उस महिला ने अपनी सीट अरुणा को दे दी। ऐसे में वह व्यक्ति भड़क गया गया और युवा महिला से कहा यह सीट मैंने आपके लिए खाली की थी बहन। इसके जवाब में अरुणा आसफ अली तुरंत बोलीं- “माँ को कभी न भूलो क्योंकि माँ का हक बहन से पहले होता है।“ इस बात को सुनकर वह व्यक्ति काफी शर्मसार हो गया।
जीवन को अपने ही अंदाज में भरपूर जीने वालीं अरुणा आसफ अली नारी-सशक्तिकरण के क्षेत्र में एक मील का पत्थर हैं, जिनके योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि 29 जुलाई 1996 को उनके निधन पश्चात अगले वर्ष 1997 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया और उसके अगले वर्ष 1998 में उनकी स्मृति में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया। आज अरुणा आसफ अली भले ही हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके कार्य और उनका अंदाज आने वाली पीढ़ियों को सदैव रास्ता दिखाते रहेंगें। उन्हें यूँ ही स्वतंत्रता संग्राम की “ग्रैंड ओल्ड लेडी“ नहीं कहा जाता है।
— आकांक्षा यादव