उपन्यास : देवल देवी (कड़ी १०)
8. स्वाधीनता की बलवेदी पर
व्यग्र कर्ण देव टहलते हुए चिल्लाए, ”कोई है, कोई है?“ प्रहरी भाग के आया और अभिवादन करके खड़ा हो गया।
”सेनापति, उपसेनापति को बुलाओ।“
”जो आज्ञा महाराज!“ प्रहरी चला गया। राजा फिर व्यग्रता से टहलने लगे।
कुछ समय उपरांत सेनापति ने कक्ष में प्रवेश किया। सेनापति बीस-बाईस वर्ष का नवयुवक है। गोरा वर्ण, लंबा कद, सुगठित देह, बड़ी-बड़ी तेजस्वी आँखें। हल्की-हल्की दाढ़ी-मूछें जो शायद कुछ समय पूर्व ही निकली हैं। इस समय वो राजपूती पोशाक धारण किए है। सेनापति केशव की आंतरिक धांधगर्दी में हत्या कर दी गई है। और इसके बाद इस वीर नवयुवक को राजा ने सेनापति बनाया है। ये युवक राजा के साथ कई युद्धों में भाग ले चुका था। और उनमें इसने अत्यंत वीरता का परिचय दिया था। यह युवक राजपरिवार की ही एक शाखा का था और राजा इसकी वीरता पर मुग्ध था। नाम इंद्रसेन।
राजा को प्रणाम करके इंद्रसेन उनके चरणों में झुकना ही चाहता है, कि राजा उसे कंधे से पकड़कर रोक लेते हैं।
”इंद्रसेन! परीक्षा की घड़ी उपस्थित हो गई। राष्ट्र और धर्म संकट में है और हमें उसकी रक्षा का कोई उपाय दिखाई नहीं पड़ता।“
”हाँ महाराज, संकट की घड़ी अवश्य है पर इतिहास साक्षी है राजपूतों की तलवारें किसी भी संकट के मार्ग को अपनी तलवारों की झंकार से अवरूह कर देने में सक्षम है। आप आज्ञा दें महाराज कि मैं दर्प से उठे इन आतताइयों के सिर झुका दूँ। महल के परकोटे से अब नगर का दृश्य देखा नहीं जाता। दुग्धमुंहे बच्चों के कत्ल करने में भी इन पापियों को लाज नहीं आती। माताएँ और बहने अपने शील की रक्षा के लिए नगर की गलियों में भागती दिखाई देती हैं। उनके बार-बार विनती करने पर भी ये कामुक म्लेच्छ नगर के बीचों-बीच चौकों पर ही उनका बलात्कार करते हैं। और बलात्कार करने के बाद उनके यौनांगों को भालो और नेजों से छेद देते हैं।“
”बस करो इंद्रसेन बस करो अब सुना नहीं जाता।“ आह ये विवशता।
”क्षमा करें महाराज पर हाथ पर हाथ रखकर बैठकर नृत्य का देखने का समय नहीं है। अपने कर्तव्य से आप विवशता का बहाना करके मुँह नहीं मोड़ सकते। एक बार हाथ खड़ग उठाकर टूट पड़ते हैं इन आतताइयों पर फिर देखना ये कैसे नतमस्तक होकर कंदराओं में जा छुपते हैं।“
उप-सेनापति कंचन सिंह प्रवेश करता है लगभग 40 वर्ष का प्रौढ़ और उसकी आँखों से चालाकी झलकती है। राजा को प्रणाम करके इंद्रसेन की ओर देखकर कंचन सिंह कहता है ”आत्महत्या अन्य तरीकों से भी की जा सकती है कदाचित उसके लिए महल वालों को संकट में डालने का कोई औचित्य नहीं है।“
इंद्रसेन ”महलवालों का ही कर्तव्य है कि वो नगरवासियों की रक्षा करे। यदि सेनापति और उप-सेनापति अपनी सुरक्षा के लिए महल से बाहर नहीं निकल सकते तो फिर कौन करेगा प्रजा और राष्ट्र की रक्षा। क्या खेतों में लहलहाती फसलों का जलाया जाना तुम्हें दिखाई नहीं देता, क्या कुँवारी लड़कियाँ जो आक्रमणकारी अपने खेमों में उठा ले गए उनकी चीखें तुम्हारे कानों को स्पर्श नहीं कर पाती, या तुम जानबूझकर कुछ देखना या सुनना ही नहीं चाहते।“
कंचन सिंह ”शत्रु की इस प्रबल वाहिनी का मुट्ठी भर सामना ही क्या कर सकते हैं। उन्हें कुछ ले-देकर भी संतुष्ट किया जा सकता है।“
इंद्रसेन ”ले-देकर, आपके कहने का क्या अर्थ है उप-सेनापति जी। मैं तो नहीं समझा, कदाचित् महाराज समझे हों।“
राजा कर्ण ”कंचन सिंह तुम्हारा अभिप्राय संधि से है तो शायद तुम अब तक म्लेच्छो की संधि शर्तों से परिचित नहीं हो, अन्यथा लेने-देने का विचार तुम्हारे हृदय में न आता। मैं सेनापति इंद्रसेन के विचारों से सहमत हूँ, अपनी सामथ्र्य भर हम युद्ध करेगें, बाकी जैसी भगवान सोमनाथ की अभिलाषा।“
इंद्रसेन ”तब महाराज, मुझे आज रात ही शत्रु खेमे पर आक्रमण का आदेश दें।“
राजा कर्ण ”नहीं इंद्रसेन, हम राजपूत हैं। सोते हुए शत्रु पर आक्रमण अनैतिक है।“
इंद्रसेन ”पर म्लेच्छ नीति-अनीति नहीं देखते।“
राजा कर्ण ”जो भी उनकी करनी उनके साथ, हमारी हमारे साथ।“
इंद्रसेन ”फिर?“
राजा कर्ण ”फिर कल भगवान सूर्यनारायण के निकलते ही बघेल राजपूतों की तलवारें सर्प की तरह आक्रांताओं की गर्दनों पर भगवान शिव के नाग की तरह झपट पड़ेगी। और तब तक रणभूमि को अपने संगीत से झंकृत करती रहेगी जब तक वैरी जिन रास्तों से आया है उन पर भागता हुआ दिखाई न दे। उप-सेनापति कचंन सिंह किले में जो भी है उन्हें बता दो कि कल प्रातः स्वाधीनता की बलवेदी पर अपने मुण्डों को होम करने की घड़ी आ गई है।“
कंचन सिंह सिर झुकाकर अनमने ढंग से कहता है, ”जो आज्ञा महाराज।“
इंद्रसेन म्यान से तलवार निकालकर लहराते हुए, ”भगवान सोमनाथ की जय।“
राजा, इंद्रसेन की जय में जय मिलाता है, पर कंचन सिंह चुप रहता है।
अधिकांश लोग जहाँ विदेशी हमलावरों का मुकाबला करना अपना कर्तव्य मानते थे, भले ही उसमें प्राण क्यों न चले जाएँ, परन्तु बहुत से ऐसे कायर भी होते थे, जो हमलावरों को कुछ ले देकर संतुष्ट करना ही उचित समझते थे. आज भी ऐसे कायरों की संख्या कम नहीं है.
ha sir aur yeahi durbhagya ham aaj tak bhugat rahe he..