कविता : व्यथा पहाड़ की
विकास की छाती पर रख सिर रोता है पहाड़ न देखे उसकी दरकन न ही सुने दहाड़ ।। नंगी हो
Read Moreविकास की छाती पर रख सिर रोता है पहाड़ न देखे उसकी दरकन न ही सुने दहाड़ ।। नंगी हो
Read Moreकिसी रुद्र से परे नही हूं जब अपनी पर आती हूं स्वाभिमान की खातिर तो अग्नि तक से लड़ जाती
Read Moreनींद भी रात की दिवानी थी। सिर्फ ये आँख तक कहानी थी। ख्वाब देखा हरेक बचपन में खुश तभी मेरी
Read Moreमेरे पास और कुछ हो न हो एक दीप है जो प्रज्वलित है आत्मा की ऊष्मा से जो आलोकित है
Read Moreसचमुच गरीब की जिंदगी एक पान के बीडे की तरह सर्वत्र सुलभ है उसे जब चाहो तब खरीद लो और
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