उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 9)

गाँधी शताब्दी समारोह समाप्त हो जाने के बाद मैं अपनी पढ़ाई में लग गया था, हालांकि रात्रि में देर तक पढ़ने की आदत मुझे कभी नहीं रही। इतना अवश्य था कि अगर विद्यालय से कोई गृह कार्य मिलता था, तो उसे मैं घर पर समय निकालकर अवश्य कर लेता था। इससे अधिक पढ़ने की आवश्यकता मुझे नहीं मालूम पड़ती थी। कुछ तो इसलिए कि मैं अपनी कक्षा में सबसे आगे रहता था, अतः अपने होशियार होने का भी कुछ घमंड मुझ में था। दूसरा इसलिए कि घर पर पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता था और जो बातें स्कूल में ही एक बार में मैं समझ लेता था, उस पर घर पर समय बर्बाद करना मुझे उचित नहीं जान पड़ता था। इसका फल यह होता था कि रात्रि के समय जब दूसरे छात्र प्रायः पढ़ा करते थे, तो मैं सोया करता था या कोई फालतू किताब पढ़ रहा होता था।
परीक्षाओं के दिनों में भी जब दूसरे लोग किताबों को घोंटा करते थे और आने वाले प्रश्नों के बारे में अटकलें लगाया करते थे, मैं सोता रहता था और सोचता था कि परीक्षाओं के दिनों में तो दिमाग को अधिक आराम देना चाहिए। फिर भी इसे आश्चर्य ही कहा जायेगा कि मैं प्रायः प्रत्येक पर्चे में पूरी कक्षा में सबसे ज्यादा अंक लाया करता था, जबकि खूब मेहनत करने वाले छात्र औसत अंकों से ही उत्तीर्ण हो पाते थे।

मुझे अपनी सफलताओं का कुछ घमंड भी था और किसी से न दबना मेरा स्वभाव था और काफी हद तक अभी भी है। अतः प्रायः ही ऐसा होता था कि अपनी कक्षा के दूसरे लड़कों से जो शारीरिक बल में मुझसे ज्यादा ताकतवर अवश्य थे, लेकिन पढ़ाई में मुझसे पीछे रहने के कारण प्रायः मुझसे ईष्र्या करते थे। मेरा झगड़ा बना रहता था। दबना मेरे स्वभाव में नहीं था, अतः बहुत बार मारपीट भी होती रहती थी। हालांकि कमजोर होने के कारण प्रायः मैं ही हार जाता था।
मेरी कक्षा का एक छात्र श्री धर्मवीर, जो पास के गाँव गोठा (हसनपुर) का निवासी था। काफी धनवान होने के कारण स्वयं को सबसे श्रेष्ठ मानता था प्रायः मुझसे बहुत ईष्र्या करता था, क्योंकि लाख कोशिश करने पर भी वह पढ़ाई में मुझसे आगे नहीं निकल पाता था और मुझे अध्यापकों से ज्यादा स्नेह मिलने के कारण वह हीनभावना से भी ग्रस्त रहता था। अतः अन्त समय तक ऐसा रहा कि हम दोनों में कभी सच्ची मित्रता स्थापित नहीं हो सकी। कुछ दूसरे लड़के अपने-अपने स्वार्थ के कारण भी हम दोनों को लड़ाने में बहुत रुचि लेते थे। आज जब यह सोचता हूँ तो मुझे बहुत दुःख होता है कि अपने झूठे दंभ में आकर मैंने इतना बहुमूल्य समय अपने सहपाठियों से लड़ने-झगड़ने में बिता दिया।

लड़ाई झगड़े की सैकड़ों घटनायें मुझे याद हैं लेकिन उनमें से एक का जिक्र करना ही काफी रहेगा, जिससे कि आपको मेरे तत्कालीन व्यक्तित्व का कुछ आभास हो जाये।

मेरे गाँव का ही मेरा एक सहपाठी, जिसका नाम लिखना मैं यहाँ उचित नहीं समझता, जाति का जाट होने के कारण स्वयं को औरों से श्रेष्ठ मानता था। हालांकि पढ़ने लिखने में उसकी स्थिति फिसड्डी से कुछ ही ऊपर थी। प्रारम्भ में हम दोनों में काफी मेल-जोल था तथा मैं पढ़ाई लिखाई में उसकी मदद कर दिया करता था और वह भी मेरा साथ दिया करता था। लेकिन एक दिन हम दोनों में कुछ कहा-सुनी हो गयी। बात हाथापाई तक पहुँची और ताकतवर होने के कारण वह मुझे पीटने लगा। मुझसे अब सहन नहीं हुआ और गुस्से में आकर मैंने वहाँ पड़ा हुआ ईंट का एक टुकड़ा उठाकर उसके सिर में दे मारा। गेंद फेंककर मारने का मुझे अभ्यास था ही, अतः मेरा निशाना चूका नहीं और ईंट ने उसके सिर में माथे से कुछ ऊपर एक बड़ा सा घाव कर दिया। ईंट मार कर मैं अपने घर भाग आया।

वह लड़का भी पीछे से रोता हुआ आया और गालियाँ बकने लगा। पिताजी और चाचाजी ने समझा-बुझाकर उसकी मरहम पट्टी कर दी, फिर किसी तरह लोगों ने उसे भगाया और मुझे भी बहुत डाँटा। मैंने बताया कि वह मुझे बिना किसी बात के ही मार रहा था, अतः मैंने भी गुस्से में आकर ईंट मार दी। लेकिन लोगों ने मुझसे कहा कि उसने तेरे साथ जो किया उसे कोई नहीं देखेगा, लेकिन तुमने जो घाव किया है उसे सभी देखेंगे। उस लड़के का बाप भी आकर धमकी दे गया कि मैं इससे दूना घाव तेरे सिर में कर दूँगा। उस लड़के ने भी धमकी दी कि कल जब तू पढ़ने जायेगा तब स्कूल में मारूंगा। मैं कुछ डरा हुआ था, फिर भी स्कूल पहुँच गया। वहाँ जाकर उसने गड़बड़ करने की कोशिश की, तो मैंने अध्यापकों तक बात पहुँचा दी। अध्यापकों ने उसे धमका दिया कि अगर स्कूल में या रास्ते में उसने मुझसे कुछ कहा, तो अच्छा नहीं होगा।

शीघ्र ही वह लड़का समझ गया कि अगर बात बढ़ाई गई तो परिणाम और भी ज्यादा खराब होगा। अतः कुछ बकबकाकर वह चुप बैठ गया और फिर कभी उसने मुझे छेेड़ने की हिम्मत नहीं की। यही नहीं दूसरे लड़के भी अब मुझसे डरने लगे थे, क्योंकि वे समझ गये थे कि यह लड़का टूट सकता है, मगर झुक नहीं सकता। इसी तरह के खट्टी-मीठी घटनाओं के बीच मेरी शिक्षा चलती रही।

उन दिनों मेरी रुचि बागवानी में भी हो गयी थी। मैंने अपने नौहरे (अर्थात् वह स्थान जहाँ पालतू पशु बांधे जाते हैं) में खाली जगह में कई क्यारियाँ बना ली थीं, जिनमें मैंने कई तरह की चीजें बो रखी थीं और गैंदे की बहुत अच्छी फुलवारी भी बनायी थी। मैं प्रतिदिन मुँह अंधेरे ही उठकर क्यारियाँ देखने भागता था और संतुष्ट हो जाने के बाद ही शौच करने के लिए खेतों की तरफ जाता था। लेकिन तभी एक ऐसी घटना घट गयी कि मेरा उत्साह प्रायः समाप्त हो गया।

हुआ यह कि एक दिन मैं अँधरे में ही क्यारियों के पास आया तभी मेरा दायां पैर किसी गुदगुदी चीज पर पड़ा। जो मेरे पैर से लिपट गयी थी। मैं चैंक पड़ा और साँप की सम्भावना का ख्याल करके जोर से पैर को झटक दिया। वह चीज दूर गिर पड़ी और मैंने देखा कि वह साँप ही था, लगभग डेढ़-दो फुट का। वह शायद बच्चा था और जहरीला भी नहीं था। हमारे नौहरे के पास ही एक पोखर थी, जिसमें पानी के काफी साँप रहा करते थे। उन्हीं में से केाई शायद रात में इधर चला आया था। साँप को देखते ही मैं डर कर उल्टा भागा और बाहर सो रहे अपने ताऊजी श्री दानीराम को जगा ले गया। वे तुरन्त मेरे साथ अन्दर गये, लेकिन तब तक साँप भाग चुका था। ताऊजी ने मुझे बहुत डांटा कि इतने अँधेरे में यहाँ आने की क्या जरूरत थी। मेरा सारा उत्साह ठंडा हो चुका था, हालांकि क्यारियों की देखभाल मैं बाद में भी करता रहता था।

कक्षा आठ की परीक्षायें जिला शिक्षा परिषद द्वारा ली जाती थी, जिनका केन्द्र कोई अन्य कस्बा हुआ करता था। हमारा केन्द्र हमारे ब्लाक मुख्यालय बल्देव (दाऊजी) में था। लिखित परीक्षा से पहले हमारी पीटी (शारीरिक शिक्षा) की परीक्षा होनी थी। उसके लिए हम बनियान तथा नेकर की ड्रेस में बल्देव गये थे। मैं अपनी कक्षा का कप्तान बनाया गया था, क्योंकि शारीरिक शिक्षा में भी मैं ही सर्वोत्तम छात्र माना जाता था। हालांकि हमारे विद्यालय में शारीरिक शिक्षा मात्र कदम ताल और एक दो मामूली व्यायामों तक सीमित थी, क्योंकि शारीरिक शिक्षा पर वहाँ ज्यादा जोर नहीं दिया जाता था। खेलकूद के नाम पर हमें कबड्डी से ज्यादा कुछ नहीं खिलाया जाता था और क्रिकेट, हाकी, बैडमिन्टन, टेनिस आदि का हम नाम भी नहीं जानते थे। लेकिन परीक्षा में हमें लगातार आठ व्यायाम के अभ्यास करके दिखाने थे। लिहाजा यह जिम्मेदारी मेरे ही ऊपर डाली गयी थी कि बिना किसी अभ्यास के सारे छात्रों को मैं आठ तरह के व्यायाम करवा दूँं।
धड़कते दिल से मैंने व्यायाम कराना शुरू किया। पहले चार व्यायाम तो मैंने आसानी से करा दिये जो कि हम प्रायः किया करते थे। तीन और व्यायाम भी मैंने अपने ही मन से बनाकर करा दिये जो कि सफलतापूर्वक हो गये। आठवें व्यायाम के लिए मैंने फिर अपनी बुद्धि का उपयोग किया और अपने विचार से एक सरल और नये तरीके का व्यायाम बना लिया, लेकिन मेरा दुर्भाग्य कि स्वयं दो बार सफलतापूर्वक करके बताने के बाद भी कक्षा के अन्य छात्र इस व्यायाम को नहीं कर सके। दो प्रयासों के बाद मुझे यह छोड़ देना पड़ा तथा आगे का कार्यक्रम चला।

लड़के डर रहे थे कि अब उनके फेल होने की संभावना है लेकिन ईश्वर को धन्यवाद कि परीक्षक ने किसी को भी फेल नहीं किया और मुझे तो सबसे ज्यादा अंक मिले ही। बाद में हमारे शारीरिक शिक्षक श्री बल्लेराम जी ने मुझे बताया कि परीक्षक ने उनसे पूछा था- ‘मास्टर जी सच-सच बताना कि आपने उन्हें क्या और कितना सिखाया था? आपका वह मानीटर लड़का तो काफी होशियार मालूम पड़ता था।’ उन्होंने जबाव दिया था- ‘साब, हमने तो कुछ भी नहीं सिखाया था और सारी बात उसी के ऊपर छोड़ दी थी। वैसे वह लड़का हमारे स्कूल का सबसे होशियार लड़का है।’ परीक्षक तब इतना खुश हुआ था कि उसने मुझे सबसे ज्यादा अंक दे दिये। बाद में लड़कों ने मुझे ताने भी मारे कि मैंने उन्हें फेल करा दिया होता, जबकि बात इससे बिल्कुल उल्टी थी।

लिखित परीक्षा के लिए हमें बल्देव में आठ दिन ठहरने का प्रबन्ध करना था। कक्षा के सब लड़के एक साथ ठहरने का निश्चय कर चुके थे तथा अध्यापकों ने भी प्रबन्ध कर दिया था। लेकिन मैंने उनके साथ ठहरना उचित नहीं समझा, क्योंकि मेरी चचेरी बहन मायादेवी भी मेरे साथ पढ़ती थी, वह तथा कक्षा की अन्य लड़कियाँ लड़कों के साथ ठहरना नहीं चाहती थीं। अतः हमने अपना अलग प्रबन्ध किया और सौभाग्य से हमारा प्रयास सफल रहा। सभी पर्चे मेरी आशा के अनुरूप ही सफल रहे तथा कक्षा की तीनों लड़कियाँ – मेरी चचेरी बहन मायादेवी, गाँव की मिडवाइफ की लड़की सावित्री तथा पास के गाँव की एक लड़की गीता देवी – द्वितीय श्रेणी में उत्तीण हुईं। मैं स्वयं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ और सदा की तरह अपनी कक्षा में प्रथम रहा।

हमारे प्रधानाध्यापक श्री मोहन लाल जी शास्त्री ने एक बार हमसे कहा था कि हम अपनी परीक्षाओं के बाद गर्मियों की छुट्टियों में कम से कम एक बार तुलसीकृत रामचरित मानस को पूरा अवश्य पढ़ लें। यह बात मुझे याद रही। मैंने रामचरित मानस, जिसे बोलचाल में गलती से ‘रामायण’ कहा जाता है, पहले भी कई बार पढ़ी थी और काफी चौपाइयाँ और दोहे मुझे कंठस्थ थे (जो कि आज भी हैं), लेकिन पूरी रामचरित मानस पढ़ने का मौका पहले कभी नहीं मिला था। अतः मैंने परीक्षा से वापस आते ही सम्पूर्ण रामचरित मानस एक माह में पढ़ लेने का निश्चय कर लिया। मास परायण के लिए रामचरित मानस को तीस खण्डों में बाँटा गया है और प्रत्येक खण्ड के अन्त में चिह्न भी लगाये गये हैं, अतः मुझे तीस दिन में रामायण पूरी पढ़ लेने में कोई मुश्किल नहीं हुई। यह तो मैं नहीं बता सकता कि मैं रामचरित मानस के गूढ़ रहस्यों को कहाँ तक समझ पाया, लेकिन इतना अवश्य कह सकता हूँ कि इससे मुझे गहरी मानसिक शांति का अनुभव हुआ और साथ में खुशी भी थी कि मैंने अपने गुरु की एक आज्ञा का पालन किया है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उन दिनों मैं बहुत ही धर्मभीरु था। देवी-देवताओं पर मेरी पूर्ण श्रद्धा थी तथा गीता-रामायण आदि ग्रन्थों में लिखी हुई बातों पर आँख मूँद कर विश्वास कर लेता था। मैं खासतौर से हनुमान जी का भक्त था तथा हनुमान चालीसा का पाठ प्रायः किया करता था और हर मंगलवार को प्रसाद भी बाँटा करता था। लेकिन अब जब मैं उन दिनों की क्रियाकलापों पर विचार करता हूँ, तो यह पाता हूँ कि उस सबसे मुझे अगर कोई हानि नहीं हुई, तो कोई लाभ भी नहीं हुआ। स्वामी दयानन्द और आर्य समाज की कृपा से मूर्तिपूजा को मैं ढोंग और मूर्खतापूर्ण मानता हूँ। देवी-देवताओं पर से मेरी श्रद्धा अब लगभग समाप्त हो गयी है। हालांकि गीता, रामायण आदि ग्रन्थों की अच्छी बातों पर मुझे आज भी गहरा विश्वास है और हनुमान जी के चरित्र और गुणों का मैं भारी प्रशंसक हूँ। सैकड़ों चौपाईयाँ, दोहे और श्लोक मुझे आज भी कण्ठस्थ हैं।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

2 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 9)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप के साथ साथ मैं भी उन दिनों को याद कर लेता हूँ . डिस्ट्रिक बोर्ड के एग्जाम में हमें भी एक हफ्ते के लिए शहर फगवारा के जे जे हाई सकूल में इम्तहान देना था . सभी लड़के एक कमरे में रहते थे . रात को जब सभी सो जाते तो कुछ शरारती लड़के एक दुसरे की पीपिओं में से मथाई चुरा लेते थे जो हर एक लड़के के घर वालों ने दी थी . वोह दिन बहुत मज़े के थे .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद भाई साहब ! ऐसी शरारतें बचपन में प्रायः सभी करते हैं और सभी के साथ होती हैं.

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