संस्मरण

मेरी कहानी – 7

ताऊ नन्द सिंह के घर में अब शान्ति हो गई थी। नन्द सिंह के घर के बिलकुल सामने ही ताऊ रतन सिंह का घर था जिस के घर में लूट मार का सामान फेंका गिया था। ताऊ नन्द सिंह तो भमरा खानदान की तीन चार पीडीआं पीछे से हमारा ताऊ था लेकिन रतन सिंह तो सगा ताऊ ही था। यह कुछ इस तरह था की मेरे दादा जी दो भाई थे और दूसरे भाई की ही शादी हुई थी जिस से ताऊ रतन सिंह हुआ था। दादा जी के भाई की अचानक मृत्यु हो जाने के कारण दादा जी की शादी अपनी भाबी से कर दी गई जिस से मेरे पिता जी हुए। पिता जी और ताऊ की माँ एक ही थी। यह ताऊ एक ऐसा शख्स था जैसे फिल्मों में प्रान जैसा विलेन हो। ताऊ का एक बेटा था चरण सिंह। दोनों पिता पुत्तर उतनी देर तक हमें दुःख और नुक्सान पौहंचाते रहे जब तक इस दुनिआ से रुखसत नहीं हो गए।

रतन सिंह शराब बहुत पीता था और शराब पी कर हमारे घर के दरवाज़े को ठोकरें मारता। हम भाई बहन छोटे थे , पिता जी अक्सर अफ्रीका जाते रहते थे। रतन सिंह पिता जी से ही डरता था क्योंकि पिता जी एक तो तगड़े थे दूसरे वोह जवानी के दिनों में पेहलवानी करते थे। जब पिता जी अफ्रीका से आते तो रतन सिंह कहीं दूर शहर चले जाता। जब पिता जी चले जाते तो फिर गाँव आ जाता। दादा जी उस को बहुत डांटते लेकिन वोह उन से डरता नहीं था। चरण सिंह अक्सर अपने नाना जी के साथ ही रहता जिस का गाँव भविआना था। हमारा यह रिश्ता कुछ ऐसा रहा की कभी दोनों बोलने लगते कभी लड़ते। लेकिन एक बात मुझे कभी समझ नहीं आई की ताऊ मुझ से इतना पियार कियों करता था। वोह मुझे अपने साथ सुलाता , मुझे दूकान से कुछ खाने के लिए ले देता। बहुत दफा मैं सोया हुआ पिछाब कर देता तो दूसरे दिन ताऊ बिस्तरे के कपडे रस्सी पर डाल देता और हँसता “साले ने कपडे खराब कर दिए ” यह उस का तकया कलाम हुआ करता था।

रतन सिंह इतने नशे करता था की मुझे आज हैरानी होती है की इतनी देर कैसे ज़िंदा रहा। वोह भांग , पोस्त , अफीम शराब सभी कुछ पी लेता था। कई दफा जब वोह बहुत नशे में होता तो लोग हँसते ,” ताऊ किया पिया है आज ?” . ताऊ बोलता ,” ओ लोगो आज मैं तिरवैनी का इश्नान करके आया हूँ ” . फिर बोलता , सुनो ! पहले मैंने भांग पी , फिर पोस्त और फिर अफीम, किया यह तिरवैनी का इश्नान नहीं?। लोग ताऊ पर हँसते। सब से बुरी बात जो ताऊ की थी वोह थी उस का जमीन बेचना। उस के नाम काफी जमीन थी लेकिन जब उस के पैसे खत्म होने लगते तो एक खेत रहन कर देता। दादा जी इस को खानदान की बेइज़ती समझते और वोह जमीन पैसे दे कर छुड़वा लेते और यही बात झगडे का कारण बनती।

कुछ दिनों से ताऊ ने कुछ ज़्यादा ही दुःख देना शुरू कर दिया था। पता नहीं किया कारण था। मेरी माँ यों तो बहुत शरीफ थी लेकिन एक दिन उस ने भी किरपान निकाल ली। जंग लगी हुई किरपान को उस ने लकड़ी के कोयले से साफ़ किया और रसोई के एक कोने में रख दी। मुझे माँ से इस का कारण पूछने का कभी खियाल नहीं आया लेकिन अब सोचता हूँ की माँ कुछ हो न जाए , तैयार हो चुक्की थी।

फिर अचानक पिता जी अफ्रीका से आ गए। रात का समय था , उस दिन सर्दी भी बहुत थी। घर में किया बातें हुईं मुझे पता नहीं लेकिन पिता जी ने हॉकी निकाली , रतन सिंह का दरवाज़ा खटखटाया। यों ही ताऊ ने दरवाज़ा खोला, पिता जी धक्के से अंदर चले गए। जाते ही ताऊ को कलाई से पकड़ कर दूसरे अंदर जिसे दलान कहते थे उस में पड़ी चारपाई पर फैंक दिया और लगे हाकिओं से पिटाई करने। ताऊ चीखें मारने लगा। सारा मोहल्ला इकठा हो गया। यह देख देख कर मैं सर्दी और डर से काँप रहा था। पिता जी जैसे गुस्से से पागल हो गए थे , ताऊ के मुंह पर थपड़ मारते और बोलते जा रहे थे। मुहलले के लोगों ने बड़ी मुश्किल से छुड़वाया।

धीरे धीरे लोग जाने लगे और मैं भी घर आ कर सो गया। कुछ दिन शान्ति से गुज़र गए जैसे सब कुछ समान्य हो गया हो। एक दिन ताऊ के घर तीन आदमी आए जिन के सर पर नीले रंग की पगड़ीआं बाँधी हुई थीं , एक के कंधे पर राइफल थी। मैं भी वहां चले गया , मुझे माँ या पिता जी ने कभी रोका नहीं था। मैंने देखा ताऊ उस नए आदमिओं के सामने एक शराब की बोतल और कुछ ग्लास रख रहा था , फिर ताऊ ने पकौड़ों की प्लेट रख दी। और ग्लासों में रख कर पीने लगे। मैं वापिस घर आ गिया तो देखा पिता जी ने अलमारी से पिस्तौल निकाला। इस पिस्तौल को मैंने पहले भी एक बार देखा था जब पिता जी मेरे मासड़ जी को दिखा रहे थे । यह पिस्तौल उन्होंने अफ्रीका से एक किताब में छुपा कर लाया था। मैंने देखा था कि एक मोटी किताब में पिस्तौल की जगह काट कर उस में रख कर लाया गिया था। यह बहुत छोटा सा था और बाद में पिता जी शायद अपने साथ अफ्रीका ले गए थे।

पिता जी ऊपर छत पर आ गए और फिर ताऊ नन्द सिंह के मकान की छत पर आ गए और ऊंची आवाज़ में बोले , ” ओ भाई आ जाओ अगर तुम ने मुझे मारना है , मैं यहां खड़ा हूँ “. ताऊ और उन बदमाशों को शायद यह अहसास नहीं था कि पिता जी इस तरह सामने डट कर आ जाएंगे। वोह तो सोचते थे कि वोह पिता जी को डरा धमका कर चले जाएंगे। पिता जी की जेब में पिस्तौल था और दोनों हाथ पैंट की जेबों में थे। लोग सुन कर अपने अपने घरों से बाहिर आ गए और सारी बात जान कर ताऊ को कोसने लगे कि वोह अपने भाई पर ही बदमाश ले आया था।

मैं यह सब देख रहा था , और देख रहा था कि वोह बदमाश आपिस में ही लड़ने झगड़ने लगे थे। एक कह रहा था , चलो यहां से , दूसरे ने शायद ज़्यादा शराब पी हुई थी वोह उस को गालिआं दे रहा था। मोहल्ले की बहुत इस्त्रीआं इकठी हो गई थी और ताऊ को बुरा भला कह रही थीं कि ताऊ ने अपने भाई पर ही हमला करने की स्कीम बनाई थी। कुछ देर बाद यों ही वोह तीनो आदमी बाहिर निकले इस्त्रीओं ने उन पर हमला कर दिया और लगी उन को जूतों से पीटने। विचारे जान बचा कर भाग गए। यह तीनों आदमी इसरोवाल गाँव के थे , बाद में सुना कि एक को तो कुछ दिनों बाद ही किसी ने मार दिया था।

उन दिनों पाकिस्तान बनने के बाद चोर बदमाश बहुत हो गए थे शायद इसी लिए पिता जी ने पिस्तौल लिया होगा। दूसरे दिन ताऊ सुबह ही पता नहीं कहाँ चले गये और फिर शान्ति हो गई। पिता जी भी कुछ महीने रह कर वापिस अफ्रीका चले गए।

अब मेरे लिए खेलने के सिवा कुछ नहीं रह गिया था . हम दोस्त गली में खेलते खेलते पीपलों के दरख्तों की और चले जाते . यह पीपल के दरख़्त यहाँ से हमारी गली शुरू होती थी उस के एक तरफ होते थे .बहुत खुली जगह थी यह और पंदरां सोलां पीपल के दरख़्त थे और इस जगह को पीपल ही बोला करते थे जैसे किसी नें इधर आना हो तो कहते थे “मैं पीपलों को चला हूँ ” . यह जगह सभी बच्चों के खेलने के लिए बहुत अच्छी थी , बच्चे तो क्या बड़े बजुर्ग भी यही आ कर बातें किया करते थे और बहुत बजुर्ग एक छोटे से एक उजड़े हुए मंदिर के पास बैठ जाते और बातें करते रहते . यह मंदिर बहुत छोटा सा था लेकिन इस के दरवाज़े टूटे हुए थे जिस में रात को कुत्ते आ कर बैठ जाते थे .

इस मंदिर का भी छोटा सा इतहास था . कहते हैं बहुत देर पहले एक संत आ कर यहाँ पीपलों में रहने लगा था . वोह बहुत भगत और भगवान् का नाम लेने वाला था . लोगों ने उस के लिए एक झौंपडी बना दी थी . एक दिन किसी ने उस भगत को बुरा भला कह दिया . वोह संत ने कहा कि जब वोह मरे तो राणी पुर गाँव का कोई भी आदमी उस का संस्कार न करे बल्कि पास के गाँव जगपाल पुर के लोग उस का संस्कार करें . जब वोह परलोक सिधार गिया तो संस्कार तो उस का जगपाल पुर वालों ने किया लेकिन राणी पुर के लोगों ने पछतावे के तौर पर वहां एक छोटा सा मंदिर बना दिया जो संभाल ना करने के कारण खराब हो गिया .

इन पीपलों में एक खूही होती थी और पास ही एक दाने भूनने वाली की भट्टी थी जिस पर लोग अपने अपने घरों से दाने ला कर भूनने के लिए उस दाने भूनने वाली को देते थे . दाने भूनने वाली उन में से कुछ दाने रख कर बाकी भून देती थी .सर्दिओं में जब रात आती तो हम दोस्त उस भट्टी के इर्द गिर्द बैठ जाते और बातें करते रहते . वोह दिन कितने अच्छे थे !

चलता …….

6 thoughts on “मेरी कहानी – 7

  • विजय कुमार सिंघल

    आपने तत्कालीन समाज का अच्छा वर्णन किया है। रोचक भी है और ज्ञानवर्धक भी ।

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    रोचक होती जा रही है कहानी

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद विभा बहन .

  • Man Mohan Kumar Arya

    लेख का एक एक शब्द पढ़ा और उसका आनंद लिया। पढ़कर कर याद आया कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. इसकी पुष्टि आपके वर्णन से होती है। आपकी वर्णन शैली प्रसंशनीय है। आपकी लेखनी ने उस समय की घटनाओं को स्पष्टता से दिखाने के लिए दर्पण का काम किया है और ऐसा अनुभव हो रहा है की में उसका प्रत्यक्षदर्शी हूँ। हार्दिक धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन जी , बहुत बहुत धन्यवाद . मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं अभी भी सब कुछ नहीं लिख रहा . आप तो सवय्म लेखक हैं , बहुत दफा सभी कुछ लिखना कलम से होता नहीं .

      • Man Mohan Kumar Arya

        जी हाँ, धन्यवाद।

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