संस्मरण

मेरी कहानी -14

पीपलों की बात मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि यह पीपलों की जगह एक बहुत ही अच्छी जगह थी जो हमारी गली जिस में हम रहते थे उस में दाखिल होने से पहले ही आती थी , इस लिए कोई भी शख्स गली में दाखिल होने से पहले पीपलों की ओर जरूर झाँक कर देखता। पहले तो एक खूही (छोटा कुआ) होती थी (जो कभी मुसलमानों की हुआ करती थी) जिस पर औरतें अक्सर पानी निकालने के लिए खड़ी होती थी और आपिस में बातें करती होतीं और बाल्टीओं  का खटाक  होता ही रहता था।

साथ ही एक दाने भूनने वाली की भट्टी होती थी जिस पर तीन चार वजे से ही रौनक हो जाती थी। इस दाने भूनने वाली का नाम था बंसो। यह जाती की मिशर या झीर थी , इन लोगों  के  सिर्फ दो घर ही थे हमारे गाँव में। यह बंसो सुबह ही बाहिर दरख्तों की ओर चली जाती और गिरे हुए दरख्तों के पत्ते इकठे करती। पतझड़ के मौसम में तो बहुत पत्ते दरख्तों से झड़ जाते थे तो बंसो दरख्तों के कई चकर लगा देती और पत्ते एक कमरे में भर्ती रहती। इस से एक फायदा हो जाता था कि जब बरसात का मौसम होता था तो तब भी उस की भट्टी कायम व गर्म  रहती और भट्टी पर रौनक रहती। बंसो के पति का दूसरा काम था , वोह सुबह को खूही से पानी निकाल निकाल कर गली के सारे घरों के घड़े भर  देता। बंसो का एक ही बेटा  था जिस का नाम था कूड़ा। लोग कहते थे कि बंसो का कोई बच्चा बचता नहीं था , पैदा होते ही भगवान को प्यारा हो जाता था , इसी लिए जब यह बेटा हुआ तो उन्होंने इस का नाम कूड़ा रख दिया ताकि किसी की नज़र न लग जाए और वोह बच गिया , जब वोह बड़ा हुआ तो उस का नाम मोहन रख दिया।

सभी मानते थे कि बंसो झीरी दाने बहुत अच्छे भुनती है। कभी कभी मैं भी उन की भट्टी पर जाता। कुछ दाने वोह रख लेती और बाकी को कड़ाही में डाल  देती और एक दात्री से दानों को हिलाती , दाने खिलने लगते। काले चनों के दानों में वोह एक छोटा सा मट्टी कर बर्तन जिस को कुज्जा कहते थे उन को दानों पे रगड़ती जिस से दाने फुट जाते और वोह उन को एक छाननी से निकाल कर दो चार दफा दानों को ऊपर को उछालती जिस से छिलके इल्लग हो जाते और वोह कपडे में डाल  कर पकड़ा देती। इन गर्म गर्म दानों का एक अपना ही मज़ा होता था। रात को यह भट्टी हमारे मिल बैठने की  जगह होती थी , भट्टी के इर्द गिर्द हम बैठ जाते और गन्ने भट्टी की गर्म गर्म राख में रख देते और जब गन्ने गर्म हो जाते तो एक एक गन्ने को निकाल कर जल्दी से दौड़ कर खूही की ईंटों पर जोर से मारते जिस से पटाखा वजता और उस गर्म गर्म  गन्ने को  मिल कर चूपते।  आप हँसेंगे , अब भी मैं इस वक्त लिखने के साथ साथ  चने के दाने चब्ब (खा ) रहा हूँ। बचपन की वोह आदत छोड़ नहीं पाया हूँ , यहां पैकटों में मिल जाते हैं।

इन पीपलों में  बहुत लड़के पिठू खेला  करते थे और बहुत शोर होता था।  कुछ लड़के बड़े पीपलों से रस्से बाँध कर झूला बना लेते थे और उस को झूलते थे। एक दो लड़के झूला झूलते झूलते इतना ऊंचाई पर पौहंच जाते थे कि पत्तों को छू लेते थे और लड़के तालिआं मारते थे। कई दफा लड़कों में बहस हो जाती कि उस ने पहले जाना , मैंने पहले जाना। कुछ किसान लोग मंदिर के पास बैठे बैठे चारपाईओं के लिए रसीआं बनाते रहते जिस को बाण कहते थे। यह टूटा हुआ मंदिर बहुत ही छोटा था।

इन पीपलों में रौनक तो पहले ही बहुत थी लेकिन एक दिन एक साधू आ गया , जिस से रौनक और भी बढ़ गई। इस साधू महाराज के आने से तो इन पीपलों में जैसे  बहार ही आ गई। इस साधू को नाथ जी कहते थे। उस के कानों में बड़े गोल गोल रिंग थे जिस को मुंदराँ  कहते थे , उस के गले में बहुत सी मालाएं थीं , उस का सर और दाहड़ी बिलकुल क्लीन शेव थी , कपडे भगवा थे और चिलम पीते थे। उस की एक आँख चिट्टी थी जिस से उस को दिखाई नहीं देता था। जो लोग आते , आते ही नाथ जी महाराज  बोलते और वो जय हो कह कर जवाब देते। मंदिर बहुत छोटा होने के कारण इस में सोया नहीं जा सकता था , इस लिए लोगों ने एक झोंपड़ी बना थी। अक्सर कुछ लोग कहते थे कि नाथ जी मिलिटरी से भाग कर आये हुए हैं , कुछ बोलते थे कि उन का अपने भाईओं से झगड़ा हो गया था , इसी लिए उन्होंने घर छोड़ कर सन्यास ले लिया था। एक दफा नाथ जी मेरे दोस्त को साथ ले कर अपने गाँव को गए थे। मेरे दोस्त ने हम को बताया था कि नाथ जी के गाँव वाले उसको ‘ओह साधा !’ कह कर बुलाते थे यानी उस की कोई इज़त नहीं करते थे।

कुछ भी हो , नाथ जी के आने से पीपलों की महमा बड़ गई थी। कभी कभी नाथ जी रास लीला मंडली को बुलाते। यह रास लीला रात को होती थी और लोग  दूर दूर के गाँवों से देखने आते थे। उस समय जब गाँवों से शहर सिनिमा देखने जाना मुश्किल होता था तो यह रास लीला का महत्व बहुत होता था। पहले कुछ लोग गैस लैन्टर्न ले कर आते , इस को एक बड़ा  पोल गाड़ कर उस से बाँध देते। चारों तरफ चाँद सी रौशनी हो जाती। फिर कुछ देर बाद दो आदमी हारमोनियम और तबला ले कर आ जाते और तबले  वाला तबले  को सुर करने लगता जिस से दूर से आने वालों को सुनाई देने लगता और एक दूसरे को बोलते , भाई ! जल्दी जल्दी चलो , शुरू हो गया लगता है.

फिर बाजे वाला कोई सरगम शुरू कर देता और एक आदमी छोटे से एक बालक को जो कृष्ण का रूप धारण किये होता  था  और उस के हाथ में बांसुरी  होती थी , ले आता और उस को एक कुर्सी पे खड़ा कर देता। लोग उस बालक को देखने लगते जो बहुत सुन्दर दिखाई देता होता था।  कुछ देर बाद तीन चार लड़के जो मेक अप्प करके लड़किआं बने होते थे , हाथों में थालिआं जिस में जोतें जलाई होती थीं ले कर आ जाते। थे तो वोह लड़के ही लेकिन वोह खूबसूरत लड़किआं ही परतीत होते थे। फिर वोह बालक कृष्ण जी के आगे खड़े हो कर आरती करते ” बेनती करत तोरे दुआर , राखीं ओ प्रभु मोरी लाज , बेनती  करत तोरे दुआर “. जब आरती खत्म होती तो फिर वोह सख्यां कृष्ण जी से बेनती करती कि उन्हें पानी भरने की इजाजत दे दें।  कृष्ण  जी कहते कि ” जे आई पानी भरण को , तेरी गागर देउँ गिरा “, ऐसी बहुत लम्बी आपस में वार्तालाप होती थी जो मुझे याद नहीं। इस के बाद सख्यां नाचती थी। फिर फ़िल्मी गाने शुरू हो जाते जिस के साथ जब वोह नाचती थीं तो उन के पैरों में बांधे घुंगरुओं की आवाज़ बहुत भली लगती थी। लोग रूपए देने लगते और उन्हें लड़किआं समझ कर अपनी मानसिक भूख को पर्सन कर लेते।

कभी कभी एक हंसाने वाला जिस को मनसुखा  कहते थे आ जाता। यह अक्सर दो आदमी होते थे। उन के सवाल जवाब होते थे जिस में मनसुखा  कभी कभी ऐसा बुरा जवाब देता कि दूसरा आदमी जोर से उस की छाती पर एक चमड़े  की बनी  हुई पटाखी मारता और लोग हंस पड़ते। इस तरह यह सिलसिला बहुत देर तक चलता रहता और फिर शुरू होता एक ड्रामा। यह ड्रामा अक्सर लैला मज़नूं , हीर रांझा ससी पुनूं शीरी फरिहाद या पूरन  भगत का होता। यह पार्ट बहुत रुमान्चित होता था। इस को लोग बहुत धियान से देखते। कभी कभी जब कोई दुखांत सीन होता तो लोग रो उठते। उनकी ऐक्टिंग इतनी अच्छी होती थी कि आज के थिएटर से कम न होती। औरतें अपने मकानों की छतों पर बैठी रो रही होती। दो तीन वजे यह समापत होता और नाथ जी उठ कर उन लोगों को पैसे दे कर उनका सन्मान करते और कभी कभी एक और शो करने के लिए भी उन को कह देते। कभी कभी सोचता हूँ कि यह नाटक मण्डली वाले चर्मकार ही होते थे और यह उन का रूज़्गार था लेकिन आज स्टेजों पर जो फनकार लोगों को एन्टरटेन करके लाखों रूपए कमाते हैं किया यह लोग इन से कम ऐक्टर थे ?

(चलता…)

7 thoughts on “मेरी कहानी -14

  • मनजीत कौर

    भाई साहब बहुत सुन्दर लिखते है आप , आप ने अपने बचपन और गाँव की यादो को कितना संजो कर रखा है सचमुच आपकी लेखनी का जादू हमको भी आप के बचपन में ले जाता है ऐसे लगता है जैसे हम भी आप के साथ आप के गाँव में, आप के उन पलो को जी रहे हो । आप को बताना चाहती हु की दाने भूनने वाली की भट्टी हमारे शहर में भी थी बचपन में मै भी एक बार चने और मकई के दाने भुनवाने गई थी बिलकुल जैसा आप ने बताया वैसे ही उसने दाने भुने थे फिर सभी ने शाम की चाय के साथ मजे से खाए भी , फिर जब हम बड़े हो गए ज़माना बदल गया और भट्टिया गायब हो गयी उस जग्य मकान बन गए । भाई साहब सच बतायु कितने साल हो गए वतन छोड़े हुए पर अब भी सपनो में वहीँ पहुँच जाती हु क्या आप भी सपनो में इंडिया जाते है ?

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपने अपने समय के ग्रामीण जीवन का बहुत ही सरस वर्णन किया है। काश कि वह समय दोबारा आ सकता। आपने नाटक के कलाकारों के रूप में दलित बंधुओं की आजकल के कलाकारों के सामान अदाकारी की बात लिखी है जो कि उचित है। भारत के इतिहास में हम जिस सामाजिक असमानता के दौर से गुजरें हैं वह अति दुखद है। इसके लिए जिम्मेदार लोग आज भी अपना स्वभाव व व्यव्हार बदल नहीं रहे हैं जबकि यह जड़ से समाप्त हो जाना चाहिए था। पता इतिहास में अभी क्या क्या दुर्दिन इस आर्य हिन्दू जाति को देखने हैं। आज की सुन्दर प्रस्तुति के लिए धन्यवाद।

    • मनमोहन भाई , कभी कभी लोग कह देते हैं कि history repeats itself , लेकिन मुझे नहीं लगता कि वोह दिन कभी आएँगे . उस समय लोग गरीब थे लेकिन सतुष्ट थे . एक दुसरे की मदद करते थे , सादगी थी लेकिन आर्थिक बोझ इतना नहीं समझा जाता था जितना आज लगता है . यह जो चर्मकार और हरीजन लोग थे उन की भी लोग मदद करते थे , यह ऐसा भी नहीं कि लोग उन को नफरत की निगाह से देखते थे , बस एक हज़ारों साल पुरानी परम्परा ही थी कि वोह लोग ऊंची जात वालों से भिन्न हैं और उन के बराबर नहीं हो सकते . मेरी ज़ात ऊंची है लेकिन मेरी किया सभी घर वालों की दोस्ती इन लोगों से ही रही है . मेरी धर्मपत्नी की तो इतनी सखियन ऊंची जात वालों की नहीं हैं जितनी चर्मकारों की . एक तो इतनी अच्छी है कि मुझे भाई मानती है और मेरे लिए स्पेशल समोसे बना कर भेजती रहती है जिस में हरे धनियें की नीचे वाली डंडियन छोटी छोटी काट कर समोसे में भर कर तल कर ले आती है किओंकि उन को पता है कि यह नीचे वाला धनियें का हिस्सा मैं बहुत पसंद करता हूँ . एक दोस्त था जो अब संसार छोड़ चुक्का है जिस का नाम रणजीत राए था वोह तर्कशील था , उस के सभी घर वाले बहुत धार्मिक थे लेकिन वोह कभी किसी धर्मस्थान को जाता नहीं था , यहाँ तक कि उस की पत्नी की जब कैंसर से मृतु हो गई तो उस ने कोई भी कर्म काण्ड करने से इनकार कर दिया था , सिर्फ जिन नर्सों ने पत्नी के आख़री दिनों में सेवा की थी उस संस्था को पांच हज़ार पाऊंड दान दे दिया था . यहाँ तक कि उस ने अपनी पत्नी और खुद का शरीर भी दान कर दिया था . किओंकि हम दोनों एक ही विचारधारा के थे इस लिए उस का आना जाना हमारे घर लगा ही रहता था . मनमोहन भाई , मुझे सब से ज़िआदा गुस्सा धर्म गुरुओं पर आता है जो खाली कर्मकांडों पर लोगों को उल्लू बना रहे हैं . अगर यह धर्म गुरु जात पात के कोहड को दूर कर देते तो आज यह धर्म वापसी जैसे मुद्दे न होते . जितना इस जात पात और ना बराबरी ने हिन्दू धर्म का नुक्सान किया उतना किसी चीज़ ने नहीं .

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। मुझे लगता है कि पुराने दिन पुनः आ सकते हैं। उत्थान और पतन संसार का नियम है। दिन के बाद रात्रि और रात्रि के बाद सुबह की तरह उत्थान के बाद पतन और फिर उत्थान होगा तो वह दिन फिर आ सकते हैं। दलित भाइयों के सम्बंद में मुझे आर्यसमाज के नियम की याद आ गई जिसमे कहा गया है कि सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्तना चाहिए। मुझे यह स्वर्णिम सामाजिक नियम लगता है। यदि अतीत में इसे समझकर व्यव्हार किया जाता तो स्थिति बिगड़ती नहीं। श्री रणजीत जी का व्यवहार देश में स्थापित धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थाओं, अंधविश्वासों व कुरीतियों के विरुद्ध लगता है। धर्म का सम्बन्ध हमारे कर्तव्यों से है, मंदिर मस्जिद व गिरिजा जाने से नहीं। मैं भी किसी मंदिर में नहीं जाता। कई बार मुझे वहां जाना समय का अपव्यय लगता है। संगठन की दृष्टि से जाना उचित है। वहां अनेक लोगो से मिलना हो जाता है जो लाभकारी रहता है। मृत्यु होने पर शरीर का अंतिम संस्कार अंत्येष्टि करना आवश्यक है। इससे पंचभौतिक शरीर पांच तत्वों में मिल जाता है। इसके बाद मृतक की वायु व शरीर से उनसृजित परमाणुओं को घर से बाहर निकालने के लिए शुद्धि यज्ञ करना उचित रहता है। मृतक की स्मृति में गरीबो, सामाजिक वा शैक्षिक संस्थाओं को यथा सामर्थ्य दान दे सकतें हैं। जाति पाँति व्यवस्था पर आपके विचार सराहनीय एवं अपनाने योग्य हैं। आपकी ही तरह खिन्न होकर महर्षि दयानंद ने वर्ण व्यवस्था को मरण व्यवस्था तक लिख डाला था। उन्होंने उपाय भी बताएं परन्तु जिस जनता को पालन करना था वह सजग व जागरूक नहीं है। धर्म के ठेकेदार भी इसके लिए दोषी हैं। ईश्वर ही अब कुछ करेंगे। उनसे प्रार्थना करने से भी समस्याएं हल हो जाती हैं। आपका विस्तृत प्रतिक्रिया देने के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं आभार।

  • विजय कुमार सिंघल

    आपकी आज की बात पढ़कर मेरी भी पुराणी यादें ताज़ा हो गयीं. हम भी भड़भूजे से दाने भुनवाने जाया करते थे और खूब पिड्डू भी खेला करते थे. उसकी भट्टी चौकोर होती थी. एक तरफ उसकी औरत बैठी हुई ईंधन डालती थी, जिससे बालू गर्म होती थी. दूसरी ओर से भडभूजा गर्म बालू निकलकर दाने भूनता था. वे बहुत स्वादिष्ट लगते थे.
    भुने हुए चने मैं आज कल भी खाता हूँ. पर भट्टी में भुनवाने का मजा कुछ और ही था.

    • विजय भाई , यह सही है कि भट्टी पर दाने भुनवाने का मज़ा ही और था . अब भी मैं भूने हुए चनों का बहुत शौक रखता हूँ लेकिन इंडिया की मक्की के दाने यहाँ नहीं मिलते , यहाँ जो मक्की मिलती है वोह ब्राज़ील या और देशों से आती है जो बहुत हार्ड है , उस के तो सिर्फ पौपकौर्न ही बनते हैं , फिर भी कभी कोई इंडिया आता है तो उस से एक पैक्ट मक्की के दानों का मंगवा लेता हूँ जो गुड के साथ खाता हूँ .

      • विजय कुमार सिंघल

        भाई साहब, आपने जो नाटक तमाशों का ज़िक्र किया है वैसा हमारे यहाँ भी बहुत होता था । उसे यहाँ स्वाँग कहा जाता है। अब तो फ़िल्मों ने रेड़ मार दी है पर पहले बहुत देखा जाता था। उसकी मंडलियाँ होती थीं।

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