आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 31)

अगले दिन हमें गोरखपुर के लिए प्रस्थान करना था। हमारा विचार था कि अब तक भीड़ छँट गयी होगी तथा बसें चलने लगी होंगी, परन्तु वैसा नहीं हुआ था। पूर्व दिशा की ओर जाने वाला सरयू का पुल वाहनों के लिए बन्द था, उसे केवल पैदल पार किया जा सकता था। यहाँ डा. चैतन्य जी ने हमारी बड़ी सहायता की। वे हमारी एक अटैची लेकर पैदल ही सरयू पुल के पार तक हमारे साथ गये। वहाँ भी बसें उपलब्ध नहीं थीं। अतः हम ताँगे में बैठकर कटरा की ओर चले। वहीं डा. चैतन्य ने हमसे विदा ली। कटरा से हम एक टैम्पो में बैठकर गोंडा रेलवे स्टेशन तक पहुँच गये। उसके थोड़ी देर बाद ही हमें गोरखपुर की तरफ जाने वाली रेलगाड़ी मिल गयी। हम उसमें बैठकर आराम से गोरखपुर पहुँच गये।
वहाँ स्टेशन पर पहुँचकर हमने आम बाजार में स्थित ‘आरोग्य मंदिर’ के लिए रिक्शा किया और इस प्रकार दोपहर बाद लगभग 3 बजे आरोग्य मंदिर पहुँच गये।

वहाँ सबसे पहले हमें डा. रहमान मिले। उन्हें अपना हाल बताकर चिकित्सा पुस्तिका बनवायी तथा भोजन आदि के निर्देश प्राप्त किये। हमारे पास जो रुपये थे, उनमें से थोड़े से रुपये हमने अपने पास रखकर शेष सभी रुपये कार्यालय में जमा कर दिये। कार्यालय प्रमुख श्री राम बालक त्रिपाठी बहुत सहयोगात्मक और सज्जन थे। हमें पास-पास चार-चार सीटों वाले कमरों में एक-एक सीट दी गयी, क्योंकि दो सीटों वाला कमरा लेना हमारी आर्थिक स्थिति के अनुसार सम्भव नहीं था, हालांकि अधिकांश खर्च बैंक से मिल सकता था।

अगले दिन हमारी चिकित्सा प्रारम्भ हुई। डा. विट्ठल दास जी मोदी ने हमें विश्वास दिलाया था कि धैर्यपूर्वक चिकित्सा करने से लाभ अवश्य होगा। मैं पूरे मनोयोग से चिकित्सा करा रहा था और डाक्टर साहब के सभी निर्देशों का पूरी तरह पालन कर रहा था। गर्भावस्था के बावजूद श्रीमती जी की चिकित्सा भी ठीक चल रही थी। वहाँ का भोजन बहुत सादा होता था। उबली हुई बिना मिर्च मसाले की सब्जी, मोटी रोटी, फीका दलिया आदि। सलाद अपना ले जाना होता था। किसी-किसी को घी लेने की इजाजत थी। हर चीज वहाँ कूपनों से मिलती थी और डाक्टर साहब की आज्ञा के अनुसार उचित मात्रा में ही खायी जा सकती थी। भोजन सादा होने के बावजूद बहुत स्वादिष्ट लगता था और सुपाच्य इतना होता था कि खाने के 2-3 घंटे बाद ही भूख लग आती थी। भोजन का समय होने तक तो बहुत कड़ी भूख लग आती थी। भोजन दोपहर को 12 बजे और सायंकाल 7 बजे दिया जाता था। इसके अलावा नाश्ते में रोग के अनुसार दूध, मठा, सेब, नाशपाती, किशमिश, मुनक्का आदि लेने की इजाजत मिलती थी। दोपहर बाद तीन-साढ़े तीन बजे गाजर का एक गिलास जूस दिया जाता था।

हम वहाँ कम से कम दो माह रहने का विचार बनाकर आये थे। परन्तु हमारे दुर्भाग्य से उस समय आरोग्य मंदिर में कुछ ऐसे लोग अपनी चिकित्सा कराने आये थे, जिन्हें प्राकृतिक चिकित्सा में कोई विश्वास नहीं था। ऐसे लोग अन्य सभी पद्धतियों से अपनी चिकित्सा करा चुके होते हैं और कहीं भी फायदा न होने पर ‘चलो इसको भी आजमा लेते हैं’ की मुद्रा में किसी के कहने पर प्राकृतिक चिकित्सा कराने आ जाते हैं। वे यह उम्मीद भी करते हैं कि यहाँ उनका रोग जादू से दूर हो जाएगा। हालांकि वे वर्षों तक अन्य पद्धतियों से अपना इलाज कराकर हजारों रुपये बर्बाद कर चुके होते हैं, परन्तु प्राकृतिक चिकित्सा के लिए एक-दो माह भी धैर्य नहीं रख सकते। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वहाँ उन्हें लम्बे समय तक अपने घर से दूर रहकर दिनभर विभिन्न क्रियाओं में भाग लेना पड़ता है और योग-व्यायाम के साथ ही सादा भोजन भी करना पड़ता है। वे ऐसा करना नहीं चाहते और ऐसी जादू की गोलियाँ चाहते हैं, जिनको गटक लेने पर उनका रोग चला जाये। स्पष्ट रूप से ऐसी कोई गोलियाँ नहीं होतीं, अगर होतीं तो वे पहले ही उनको गटक लेते और वहाँ आते ही नहीं।

अगर इतना ही होता तो गनीमत थी। सबसे बुरी बात यह थी कि ऐसे लोग अन्य लोगों को भी तरह-तरह की बातें करके हतोत्साहित करते रहते थे। ऐसे लोग वहाँ कई थे और प्रायः रोज ही एक-दो लोगों से मेरी इस मामले पर बहस हो जाती थी। ऊपर से हमारी श्रीमतीजी गर्भवती थीं, इसलिए उन्हें प्रायः प्रतिदिन ही यह सलाह मिलती थी कि वे चिकित्सा छोड़कर घर जाकर आराम करें। इसके परिणामस्वरूप श्रीमतीजी रोज ही वापस जाने की जिद करने लगीं। बड़ी मुश्किल से मैं इस जिद को टाल रहा था। तभी आगरा से उनकी मम्मी का पत्र आ गया कि वहाँ एकदम काली पड़ जाएगी, यह हो जाएगा, वह हो जाएगा आदि। इसके बाद तो श्रीमतीजी को वहाँ रोकना लगभग असम्भव ही हो गया। अतः मैंने तंग आकर लौटने का निश्चय कर लिया। एक बार तो मैंने यह भी सोचा कि श्रीमतीजी को अकेले ही आगरा भेज दूँ और मैं यहाँ चिकित्सा कराता रहूँ। परन्तु वे अकेले इतनी दूर जाने को तैयार नहीं थीं और मैं भी खतरा लेना नहीं चाहता था, इसलिए दोनों को लौटना पड़ा। तब तक हमें आरोग्य मंदिर में केवल 12 दिन हुए थे। लौटते हुए हमने मन को यह समझा लिया कि मौका मिलने पर हम एक बार फिर आ जायेंगे। किन्तु वह दिन कभी नहीं आया और आरोग्य मंदिर में अपनी पूर्ण चिकित्सा कराने का मेरा अरमान अधूरा ही रह गया और अभी तक अधूरा है।

जब हम गोरखपुर स्टेशन पर गाड़ी में बैठे हुए थे, तभी वहाँ लखनऊ के एक प्रचारक मा. सत्येन्द्र पाल सिंह बेदी तथा लखनऊ के महानगर कार्यवाह मा. सुरेश चन्द्रा जी के दर्शन हो गये। वे वहाँ ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक पत्रिका का प्रचार करने के लिए आये थे और बाद में वाराणसी भी आने वाले थे। मैंने उन्हें अपना वाराणसी का पता दिया और घर आने का निवेदन किया। इसके दो-तीन दिन बाद वे वाराणसी आये। मैंने उन्हें अपने निवास पर ले जाकर भोजन कराया। फिर वे लखनऊ चले गये। उसके बाद उनके दर्शनों का सौभाग्य नहीं मिला है।

गोरखपुर से लौटने के बाद मैं काफी चिड़चिड़ा हो गया था, क्योंकि मुझे अपना इलाज बीच में ही छूट जाने का बहुत दुःख था। मैं जरा-जरा सी बात पर झल्ला उठता था। इससे श्रीमतीजी परेशान हो जाती थीं। यदा-कदा हमारे बीच झड़प भी होने लगी। मैं उनकी गर्भावस्था के बारे में भी चिन्तित था। बीच-बीच में हम डाक्टर से सलाह लेते रहते थे। वे वाराणसी की प्रसिद्ध महिला चिकित्सिका डाॅ. जमीला दाऊद की सलाह पर चल रही थीं। उन्हें कैल्शियम और आयरन की गोलियाँ तथा कैप्सूल नियमित लेने होते थे। एक बार सोनोग्राफी भी करायी गयी। सब कुछ सामान्य था। उनका प्रसव सितम्बर माह के तीसरे सप्ताह में होने की संभावना थी। अतः अगस्त में ही मेरी मम्मी, पिताजी और छोटी बहिन सुनीता वहाँ आ गये थे।

जैसे-जैसे श्रीमतीजी के प्रसव का समय निकट आ रहा था, वैसे-वैसे मेरी चिन्ता बढ़ रही थी। यों उन्हें प्रत्यक्ष में कोई कष्ट या शिकायत नहीं थी, परन्तु मन आशंकाओं से घिरा रहता था। कभी-कभी वे बातें भी ऐसी करती थीं कि मेरी चिन्ता बढ़ जाती थी। फिर भी मैं ईश्वर पर विश्वास करके कार्य ठीक से सम्पन्न हो जाने की आशा करता था।

उन्हीं दिनों मुझे एक अन्तर्राष्ट्रीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार लेने हेतु जापान यात्रा का आमंत्रण मिला। मेरी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। मैंने सोचा कि मेरी होने वाली सन्तान मेरे लिए सौभाग्य और सफलताएँ लेकर आ रही है। इसके लिए मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया और उसमें मेरा विश्वास पुष्ट हो गया।

प्रसव की संभावित तारीख से दो दिन पहले ही हमने श्रीमती जी को डाॅ. जमीला के नर्सिंग होम में भर्ती करा दिया था। मम्मी और सुनीता उनके साथ थीं। मैं उन दिनों कार्यालय भी जा रहा था और जापान यात्रा के लिए आवश्यक व्यवस्था (फोन, टेलेक्स आदि) भी कर रहा था। इसलिए नर्सिंग होम में अधिक समय नहीं दे पा रहा था। जिस दिन उन्हें प्रसव पीड़ा शुरू हुई उस दिन प्रातः मैं अस्पताल में ही था। श्रीमतीजी को कष्ट सहन नहीं हो रहा था। डाक्टर साहिबा ने उनका कष्ट देखकर कह दिया था कि यदि दोपहर 12 बजे तक प्रसव नहीं हुआ तो आॅपरेशन करना पड़ेगा। परन्तु मैंने श्रीमतीजी के सामने ही मम्मी से कह दिया कि आॅपरेशन नहीं कराना है। श्रीमतीजी ने कहा- ‘चाहे मैं मर जाऊँ?’ मैंने कहा- ‘भले ही मर जाओ, पर आॅपरेशन नहीं कराना है।’ मैं जानता था कि डाक्टर लोग मरीजों के घरवालों को डराकर आॅपरेशन कर डालते हैं और अपनी तगड़ी फीस वसूल कर लेते हैं। ऐसा हमारी छोटी भाभीजी के साथ हो चुका था, इसलिए मैं पहले से ही सावधान था।

सौभाग्य से आॅपरेशन की नौबत नहीं आयी और सामान्य प्रसव हुआ। उस समय मैं कार्यालय में था और एक जरूरी टेलेक्स करने बड़े डाकघर जा रहा था। वहाँ से नर्सिंग होम फोन मिलाया, तो काउंटर से किसी ने बताया कि अभी-अभी डिलीवरी हुई है। फौरन मैं श्री अतुल भारती के साथ स्कूटर से भागकर अस्पताल पहुँचा, तो वहाँ मम्मी और सुनीता मिलीं। उनके चेहरे खुशी से दमक रहे थे। इसी से मैं समझ गया कि मुझे पुत्ररत्न प्राप्त हुआ है। मैंने मम्मी के पैर छुए और सुनीता से गले मिला। उस दिन तारीख थी 22 सितम्बर 1990। मैं प्रसव के समय श्रीमतीजी के साथ नहीं था, इसका मुझे अफसोस है। परन्तु मेरे पहुँचने के समय तक भी वे लेबर रूम में ही थीं। थोड़ी देर बाद जब उन्हें बाहर लाया गया, तब मैं गेट पर ही उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने उनके माथे पर हाथ फेरा और मौन शब्दों में आभार व्यक्त किया। ईश्वर को भी मैंने एक बार फिर धन्यवाद दिया, जो सभी पिताओं का पिता अर्थात् परमपिता है। मैं भी एक पुत्र का पिता बनकर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था।

नर्सिंग होमों में नर्सें तथा अन्य कर्मचारी पिता बनने वाले ग्राहकों से तरह-तरह की अपेक्षाएँ करते हैं। यह नर्सिंग होम भी इसका अपवाद नहीं था। उन्हें मम्मी ने किसी तरह संतुष्ट किया। दो-तीन दिन बाद श्रीमती जी को नर्सिंग होम से अवकाश दे दिया गया और हम उन्हें आॅटोरिक्शा में घर ले आये।

पुत्र के नामकरण के दिन हमारे बड़े भाई डाक्टर साहब, भाभीजी, बच्चे तथा बहनोई श्री यतेन्द्र जी, बहिन गीता तथा उनकी बच्ची रिम्मी तथा श्रीमती जी के भाई आलोक और बहिन गुड़िया ये सब आये थे। मैं आर्यसमाजी पद्धति से नामकरण संस्कार कराना चाहता था, परन्तु कोई आर्यसमाजी पंडित उपलब्ध न होने के कारण सनातनी पंडितजी को बुला लिया। उन्होंने जैसे-तैसे हवन कराया और उसकी राशि ‘तुला’ निकालकर ‘राहुल’ नामकरण किया। लेकिन यह नाम हमें पसन्द नहीं आया, इसलिए काफी सोचकर उसका नाम ‘दीपांक’ रखा।

पुत्र जन्म के कुछ दिनों बाद दीपावली थी। हमें दीपावली पर आगरा जाना ही था और मुझे जापान यात्रा की टिकट और वीजा आदि लेने दिल्ली जाना था, इसलिए सभी लोग दीपावली से दो-तीन दिन पूर्व आगरा चले गये। मैं टिकट की व्यवस्था करने के लिए टूण्डला से सीधा दिल्ली चला गया। वहाँ कितनी मुश्किल से टिकट मिला, यह एक लम्बी कहानी है। दीपावली के दो-तीन दिन बाद ही मुझे जापान जाना था।

अपनी पहली विदेश यात्रा की कहानी मैं आगे की कड़ियों में दे रहा हूँ।

 

(जारी….)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 31)

  • विजय भाई , आरोगिय मंदिर का आप ने लिखा जो वहां होता होगा मैं समझता हूँ किओंकि ऐसे आस्थानों पर इलाज ऐसे ही होता है कि “you are , what you eat “, और मैं इसे मानता हूँ हालांकि इस पर १००% अमल मैं भी नहीं करता हूँ , फिर भी बहुत कुछ करता हूँ जिस की वजाह से ही आज मैं आप से ताल मेल रख रहा हूँ . जो आप ने एक शख्स की बात लिखी थी कि उस के पिछाब में मवाद आता था और सर दुखता रहता था मैं अपनी धर्मपत्नी को भी बताया और यह आज सुबह की बात ही है . उस को फ़ाइब्रोमाएल्जिआ की बीमारी है जिस में शारीरक पेन बहुत होती है . डाक्टरों ने सिर्फ पेन किलर ही दी हुई हैं जो इलाज तो कहा नहीं जा सकता सिर्फ वक्त पास ही है . आज से हम दोनों ने भी फैसला किया है कि पानी ज़िआदा से ज़िआदा पिएंगे . यह बात श्री मति के दिमाग में वस् गई है और मुझे भी सही लगती है किओंकि पानी से इंटर्नल क्लीनिंग होगी जिस से जरुर फैदा मिलेगा , यह मेरा विशवास है . सलाद फ्रूट उबली हुई सब्जिआन तो हम पहले ही खाते हैं . मेरा निओरोलोजिस्त तो पहले ही हैरान है कि मैं कैसे अभी तक ठीक हूँ . ९ अप्रैल को उस से मेरी अपोएन्त्मैन्त है और उस को यह भी बता दूंगा . वोह तो सोचता था कि तीन साल में मैं बैड में कौन्फईन्द हो जाऊँगा लेकिन अब दस वर्ष से ऊपर हो गए हैं अभी तक अपने आप को डोलने नहीं दिया .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाईसाहब! आप और भाभीजी दोनों पानी ख़ूब पीजिए। हर घंटे एक गिलास सादा। जितनी बार पानी पायेंगे उतनी बार पेशाब भी आयेगा। उसे रोकना नहीं है। इससे बहुत लाभ होगा।

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की कड़ी में गोरखपुर आरोग्यमंदिर जाने तथा संतान के जन्म सम्बन्धी घटनाओं का विवरण पढ़ा। जापान की यात्रा की तैयारियों की भी जानकारी मिली। इन घटनाओं को जीवन की धूप छावं कह सकते है। इन मधुर स्मृतियों की जानकारी के लिए धन्यवाद। अगली क़िस्त की प्रतीक्षा है।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत आभार, मान्यवर !

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