कविता

मधुगीति : मन ज्ञात है अज्ञात को

मन ज्ञात है अज्ञात को, अज्ञात ना कुछ ज्ञात को;
चलता है पर अज्ञात सा, रचता जगत अनजान सा !

हर पिपाशा मन हताशा, जो भी रही थी कुयाशा;
थी नियोजित उसकी रही, कर प्रयोजित जाती रही !
है स्व-रूपित भव उसी का, गति संचरी जग ज़मीं का;
सब सोच उसके विचारे, आ शून्य भागें बिचारे !

जो कुछ रहा उसके ही मन, जो भी तका उसके नयन;
संस्कार हमरे उसी से, संकल्प सजते उसी से !
जब भाव होते तिरोहित, उसमें मिले मन समाहित;
‘मधु’ समझते अज्ञात को, अज्ञात से अभिजात को !

रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा
www.GopalBaghelMadhu.com

One thought on “मधुगीति : मन ज्ञात है अज्ञात को

  • विजय कुमार सिंघल

    श्रेष्ठ कविता !

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