गीतिका/ग़ज़ल

गजल

अक्ल गुमसुम-सी हुई है, जिस्म भी बेजान है,
आ रहा है ज़िन्दगी में कौन-सा तूफ़ान है !

झांककर दिल में न देखो तो पता चलता नहीं,
सिर्फ़ चेहरे से कोई होती कहां पहचान है !

जानते हैं सब कि आना-जाना इसका खेल है,
किसलिये दौलत पे करते सब यहां अभिमान हैं !

ईद कैसी, चाँद कैसा, क्या खुशी उनके लिये,
मुफ़लिसों के वास्ते तो रोज़ ही रमजान है !

किस दिशा में भागते हैं लोग मैं समझी नहीं,

आखिरी मंज़िल “शुभी” सबकी ही वो श्मशान है!

शुभदा बाजपेयी [शुभी]

One thought on “गजल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार !

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