गजल
अक्ल गुमसुम-सी हुई है, जिस्म भी बेजान है,
आ रहा है ज़िन्दगी में कौन-सा तूफ़ान है !
झांककर दिल में न देखो तो पता चलता नहीं,
सिर्फ़ चेहरे से कोई होती कहां पहचान है !
जानते हैं सब कि आना-जाना इसका खेल है,
किसलिये दौलत पे करते सब यहां अभिमान हैं !
ईद कैसी, चाँद कैसा, क्या खुशी उनके लिये,
मुफ़लिसों के वास्ते तो रोज़ ही रमजान है !
किस दिशा में भागते हैं लोग मैं समझी नहीं,
आखिरी मंज़िल “शुभी” सबकी ही वो श्मशान है!
शुभदा बाजपेयी [शुभी]
बहुत शानदार !