कविता

चप्पलें

अस्तित्व में आते ही,
आ जाती हैं चप्पलें।
उम्र भर रहता है उनका साथ,
जाडा गर्मी या हो बरसात।
कीचड, कंकड-पत्थर,
कील काँटे कैसा भी हो पथ,
सह कर दुख की आंअच,
देती हैं सुख दूसरे को।
हम भूल जाते हैं,
उनके संघर्षों को।
खुल जाती है उनकी सिलाई,
साथ छोडने लगती है,
उनके मूल्याकंन की खाल।
हो जाती चलते -चलते,
उनके सांस वाले फीते की कटाई।
कुछ चाहते हैं उनका साथ,
कराते हैं, उनकी नई सिलाई-मरम्मत।
कुछ निर्धन हैं या है धन का अभिमान।
छोड देते हैं उन्हे किसी कोने में,
सडक पर या सौंप देते हैं,
किसी गैर के हाथ।

अजयश्री

One thought on “चप्पलें

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया कविता !

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