संस्मरण

मेरी कहानी – 42

मास्टर विद्या प्रकाश और मूलराज के बाद पंजाबी के टीचर आनंदपाल सिंह होते थे, बहुत हंसमुख, बूटिओं  वाली पगड़ी और कोट पैंट में बहुत खूबसूरत लगते थे और रंग के भी गोरे थे। जब बोलते उन के मुंह से हर निकला शब्द फूल जैसा लगता। यह मैं फखर से कह सकता हूँ कि पंजाबी की किताबें पड़ने की आदत मुझे इन से ही लगी। बहुत अच्छे इंसान थे वोह। साइंस रूम में जब जाते तो एक टीचर थे जिन का नाम तो मुझे याद नहीं लेकिन पीठ पीछे हम उस को रणजीत सिंह बोलते थे क्योंकि उस की एक आँख काणी और चिटी थी। शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह पंजाब का महाराजा  होता था जिस की एक आँख चीचक से खराब होने के कारण काणी थी ,इस लिए हर ऐसे शख्स जिस की एक आँख खराब हो उस को रणजीत सिंह ही बोल देते थे। इन को रणजीत सिंह कहने का एक और कारण भी था कि यह बहुत कुरख्त हुआ करते थे। कभी हँसते दिखाई नहीं दिए , कभी हँसते भी तो रोने जैसा चेहरा होता। दो साल हम ने इन से साइंस पड़ी लेकिन कोई ऐसी  याद नहीं जिसको लिख सकूँ। इस के बाद हम को जाना होता था ड्राइंग रूम  में जिस के टीचर थे नरंजन दास जो बहुत बूढ़े थे, क्लीन शेव और ढीली सी पगड़ी, खादी की कमीज़ पजामा , पढ़ाते अच्छा, लेकिन गुम  सुम से रहते। पढ़ाते और पीरीयड खत्म होने पर चले जाते। इन्होने हमें तकरीबन दो महीने ही पढ़ाया होगा कि रिटायर हो कर चले गए। इस के बाद एक सरदार जी ड्राइंग मास्टर आये (नाम याद नहीं) जिन्होंने आते ही अपनी पेंट की हुई तस्वीरें कमरे की दीवार पर लगा दीं। तस्वीरें बहुत खूबसूरत थीँ लेकिन यह मास्टर जी कुछ अहंकारी किस्म के थे, कभी कभी गाली भी निकाल देते लेकिन हंसी भरे लहज़े में। झिड़कते बहुत थे ,बात बात पर टूट पड़ते। मुझे तो कोई दिकत नहीं थी लेकिन भजन और जीत के कहने पर हम ने उस की क्लास में जाना छोड़ दिया। लेकिन मैंने अपने घर ही में ड्राइंग बोर्ड पर बहुत सी स्केल्ज़ बनाईं और मुझे ड्राइंग की अच्छी मुहारत हो गई।

एक महीना जब क्लास में हम नहीं गए तो ड्राइंग मास्टर ने हमारी शकायत हैड मास्टर से कर दी। एक दिन हम को हैडमास्टर के ऑफिस में हाज़र होने का लैटर आ गिया। हमारी किस्मत अच्छी थी कि ऑफिस में असिस्टेंट हैडमास्टर आसा सिंह ही थे , अगर हैड मास्टर अमर सिंह होते तो हमारी शामत ही आ जाती। आसा सिंह ने हम को ड्राइंग की क्लास ना अटैंड करने का कारण पुछा तो मैं तो चुप रहा लेकिन भजन बोल पड़ा और बोला ” सर, यह झिड़कते बहुत हैं और कभी कभी गालिआं भी निकालते हैं”. आसा सिंह हम को बोला, “जाओ ” और ड्राइंग मास्टर को रुकने के लिए कहा। हमें नहीं पता कि आसा सिंह ने ड्राइंग मास्टर को किया कहा लेकिन इस के बाद ड्राइंग मास्टर का रवैया ही बदल गिया। एक दिन उस ने हमें एक टेबल की स्केल बनाने को दी जिस का ऐलिवेशन साइड और प्लेन बनाना था और यही लफ़ज़ हर एक साइड के ऊपर भी लिखने थे। मैंने जब अपनी स्केल खत्म की, मुझे खुद को ही बहुत अच्छी लगी क्योंकि सारे अंग्रेजी के लैटर इस तरह बने थे जैसे प्रिंट हुए हों। जब मैंने अपना ड्राइंग बोर्ड मास्टर जी के टेबल पर रखा तो मास्टर जी ने स्केल देख कर मेरे मुँह की ओर  देखा और बोले ,” ओ भाई ,तू ने तो कमाल कर दी ,इतनी अच्छी ? तुम तो छुपे रुस्तम निकले “. बस मास्टर जी के वोह शब्द अभी तक याद हैं और फिर कभी भी उस का कोई पीरियड मिस नहीं किया। फिर मैंने कप प्लेटें फूलदान जैसी चीज़ों को बनाने का ढंग सीखा जो पैंसिल की सहायता से एक आँख बंद करके और पैंसिल को खड़ी करके पमाएश लेना होता था। फिर घर आ के भी मैं कैलेंडरों की कॉपी करता जिस पर तस्वीरें होती थीं। गुरु नानक देव जी , गुरु गोबिंद सिंह जी ,महात्मा गांधी ,जवाहर लाल नेहरू और इस के इलावा सोहणी महिवाल लेला मजनू और कुछ अन्य तस्वीरें बना  कर मैंने अपने कमरे में लगाईं थीं। ज़्यादा तस्वीरें मैंने पैंसिल शेड में बनाईं और कुछ को कलर किया। अब तो घर वालों ने कहाँ फैंक दी ,पता ही नहीं लेकिन यह सब इसी मास्टर जी की वजह से ही संभव हो सका।

स्कूल में टीचर तो और भी थे  लेकिन उन की कोई ऐसी याद नहीं जिस का कोई ख़ास वर्णन कर सकूँ ,हाँ एक मास्टर हरी सिंह होते थे जिस की मिमक्री करते रहते थे। जैसे जैसे वक्त गुज़रता गिया ,नए नए दोस्त बनते गए। फगवारे के पूर्व की ओर एक गाँव है  “भुल्ला राई” यहां से बहुत लड़के आते थे जिन से दोस्ती हो गई थी ,इन में से एक था निर्मल जो मुझ से भी पहले इंग्लैण्ड आ कर साउथहॉल में सैटल हो गिया था। एक था अजीत  सिंह जो फगवारे की एक फैक्ट्री एशिआ इलैक्ट्रिक कम्पनी के मालिक जुझार सिंह का बेटा  था ,वोह भी मुझ से पहले इंग्लैण्ड आ गिया था। परगट सिंह जो बहुत अच्छा गाता  था। करनैल सिंह जिस की शादी उस वक्त हो गई थी और उस के दो बेटे भी थे  ,हम उस को छेड़ा करते थे। इन के इलावा देव, सुरिंदर, अवतार, गुरमेल खोथड़ां और ख़ास दोस्त बना था” नरिंदर  “. इस की भी छोटी सी कहानी है। इस की शादी भी उस वक्त हो गई थी ,कभी मैं उस के गाँव चले जाता ,कभी वोह मेरे गाँव आ जाता। जब मैं यहां इंग्लैण्ड को आना  था तो उस ने मुझे कालज की कैंटीन में रसगुल्ले खिलाये। मैं यहां आ गिया था और सर के वाल कटवा लिए थे। कुछ सालों बाद जब मैं वापिस इंडिया आया तो एक दिन जलंधर शहर में घूम रहा था तो सामने से मुझे नरिंदर  आता दिखाई दिया। मैंने घंटी बजाई और उस को खड़ा होने का इशारा किया। मैंने उस को सत  सिरी अकाल बोला और हम बातें करने लगे। कुछ देर बाद मुझे कुछ काम है कह कर नरिंदर  चले गिया। मुझे उस का बिहेवियर कुछ अजीब सा लगा। कुछ दिनों बाद हमारे गाँव का एक लड़का जो कालज में पड़ता था हमारे घर आया और उस ने मुझे नरिंदर का मैसेज दिया कि मैं उन को  कालज में मिलूं क्योंकि नरिंदर   कालज में हैड क्लर्क लगा हुआ था। जब मैं कालज पौहंचा तो नरिंदर  पहले ही अपने ऑफिस से बाहर निकल आया और आते ही मुझे बाँहों में ले के जकड लिया और बोला ,” यार मैंने तो तुझे पहचाना ही नहीं था ,घर आ के मैं बहुत देर तक सोचता रहा कि कौन हो सकता है , फिर अचानक मुझे याद आया तो पता चला कि वोह तो तू था “. बहुत बातें हम ने कीं और उस ने उसी कैंटीन से चाय पिलाई।

जैसे जैसे दोस्त बढ़ते गए तैसे ही हमारा एक दूसरे के गाँवों को जाना आना शुरू हो गिया। एक दफा मैं और जीत भुला राई अपने दोस्त अजीत के घर गए और वहां तीन दिन रहे। निर्मल भी वहां आता रहता था। अजीत का घर बहुत बड़ा था और उस के ड्राइंग रूम में एक बहुत बड़ा मर्फी का इलैक्ट्रिक रेडिओ जिस में रिकॉर्ड प्लेअर भी था रखा हुआ था। यह रेडिओ बहुत सुन्दर था जो तकरीबन चार फीट लम्बा और दो फीट ऊंचा होगा। इस में सारी दुनीआं के रेडिओ स्टेशनों के नाम लिखे हुए थे। हम धीरे धीरे सभी स्टेशन सुनने की कोशिश करते। जीत  की तरह अजीत भी बहुत शरारती लेकिन अच्छा लड़का था। अमीर घर होने के बावजूद वोह हमारे साथ घुल मिल कर रहता। उस वक्त मेरी पगड़ी सब से अच्छी होती थी। जीत अजीत दोनों के लिए मैंने बहुत अच्छी पगड़ी बाँध कर उन को दी थी  और हम तीनों ने उस के घर की छत पर खड़े हो कर फोटो खिचवाई जो अब भी कहीं इंडिया घर में रखी हुई है। यह तकरीबन बीस साल की बात होगी जब मैं और मेरी पत्नी सऊथहाल में निर्मल की बेटी की शादी में शामल होने गए। जब हम गाडी पार्क करके कार पार्क से बाहिर आये तो पीछे से किसी ने बोला , “ओए !”. मैंने पीछे मुड़ कर देखा और आवाज़ देने वाले को देखने लगा। जब  मैंने धियान से देखा तो वोह अजीत था। गले लग कर हम मिले। कितने चेहरे हमारे बदल गए थे। वोह अजीत जो बहुत स्मार्ट हुआ करता था अब अजीब सा लगता था। हम ने बहुत बातें कीं। इस के बाद मैं निर्मल और अजीत को दुबारा नहीं मिल सका किओंकि कुछ हालात ही बदल गए। सकूल में निर्मल पड़ने में बहुत हुशिआर हुआ करता था और शरीफ भी अवल दर्जे का था। हर वक्त दुसरे लड़कों की मदद करता रहता। निर्मल की एक बात पर हम बहुत हंसा करते थे। सकूल के नज़दीक ही एक सकूल व् कालज  की प्रिंटिग प्रैस होती थी ,यहाँ से एक पंजाबी की पत्रिका “कौमी सन्देश ” छपता था। मैंने एक छोटी सी कहानी लिखी कौमी सन्देश में छपने के लिए। मैंने निर्मल को दिखाई। इस कहानी की एक लाइन थी ,” आह !बदनसीब अबला “. निर्मल पड़ता हुआ बोला ,” आह बदनसीब घगरा “. इस पर हम इतना हँसे कि यह जोक ही बन गई। मेरी कहानी तो नहीं छपी लेकिन यह बदनसीब घगरा हमेशा के लिए छप गिया जिस को बार बार बोलते रहते।

ए सैक्शन में हम आख़री डैस्क पर बैठा करते थे। मैं, जीत,अवतार और सुरिंदर। अवतार को तारी बोल्ते थे। तारी बहुत ही शरीफ और ड्राकुल था , मूलराज से बहुत डरता था किओंकि तारी पड़ाई में बहुत ही कमज़ोर होता था। मेरी कलाई पर रोमर घड़ी होती थी जो मेरे पिता जी ने अफ्रीका से ला कर दी थी । तारी को बस एक ही बात सूझती थी। कुछ देर बाद मुझे पूछता ,”ओ गुरमेल ओ गुरमेल टैम की होइया ?”मैं कह देता ,”आधा घंटा रहता है  “. तारी निराश हो जाता। कुछ देर बाद फिर पूछता ,”ओ गुरमेल टैम की होइया “. मैं कह देता ,पच्चीस मिनट रहते हैं । तारी फिर उदास हो जाता। इस के दो मिनट बाद ही बैल बज जाती। तारी बोलता ,” गुरमेल तू  तो बोलता था पचीस मिनट रहते हैं “. तारी विचारे की जान में जान आ जाती। भाग्य की बात देखो तारी भी हमारे पीछे इंग्लैण्ड आ गिया और अब हम से दो किलोमीटर की दूरी पर ही रहता है, पुत्र पोते हैं और हमारी तरह बजुर्ग बना हुआ है। दुसरे डैस्क पर हमारे नज़दीक एक लड़का बैठता था जोगिन्द्र सिंह। यह लड़का बहुत गोरा और तगड़ा था और वेट लिफ्टिंग किया करता था लेकिन यह तो मैट्रिक के एग्जाम से पहले ही इंग्लैण्ड आ गिया था और बाद में कभी नहीं देखा।

बारह तेरह वर्ष की बात होगी ,मैं एक पार्क में फिट रहने के इरादे से  तेज चलने के लिए पार्क में जाया करता था। पार्क में एक गोल सड़क है जिस पर चलने से एक किलो मीटर का फासला तय हो जाता है। मैं इस सड़क पर तेज तेज चलता हुआ आगे बढता जाता। दुसरी ओर से एक सिंह जी बड़ी चिटी दाहड़ी में आते हुए मुझ को मुस्करा कर आगे चले जाते। यह चलने की ऐक्सर्साइज़ के बाद मैं पार्क में घूमने लगता और फूलों को निहारता जाता। वोह सिंह जी भी  झाडिओं में बैठी काटो (squirls) की तरफ छिलके वाली  मूंगफली  फैंकते । काटो अपनी छोटी सी टांगों से जो हाथ का काम देती थीं मूंगफली खाने लगतीं। मूंगफली खाती वोह बहुत मनमोहक लगतीं। इसी तरह कई महीने हो गए। एक दिन मैं इसी सड़क पर तेज तेज चल रहा था तो दुसरी तरफ से वोह सिंह जी आते दिखाई दिए। जब नज़दीक आये तो मैंने उस को बुला लिया। मैं ने कहा सिंह जी ,” हम एक्सर्साइज़ तो दोनों करते हैं ,कियों न दोनों एक तरफ इकठे चलें “. हम दोनों इकठे चलने लगे। कुछ दूर जा कर सिंह जी बोले ,” भाई साहब ! आप का नाम गुरमेल सिंह तो नहीं ?”. मैंने उन के चेहरे की ओर देखा लेकिन मुझे कुछ समझ नहीं आया। वोह फिर बोला , ” आप का गाँव राणी पुर है ?”. जब मैंने हाँ कहा तो वोह बोला , ” मेरा नाम जोगिन्दर सिंह है ,हम रामगरिया स्कूल में विद्या प्रकाश से पड़ा करते थे “. अब मुझे याद आ गिया और मैंने उस के हाथ पकड़ लिए। हम ने बहुत बातें कीं और रोज़ रोज़ मिलने लगे। वोह डायबेटिक था और कुछ देर बाद उस के बेटे ने उस को अपने पास बुला लिया और फिर से हम परदेस के  शहरों में गुम  हो कर रह गए। हम ४२ साल बाद मिले थे। ऐसा लगता है इस दुनिआ में हम सब अजनबी हैं।

आखिर में मैं स्कूल के हैड मास्टर जी के बारे में कुछ बताना चाहूंगा। हैडमास्टर जी का नाम था अमर सिंह। सर्दिओं में  स्मार्ट सूट पहनते थे और नेकटाई लगाते थे , पगड़ी भी बहुत अच्छी होती थी। गर्मिओं में ट्राऊज़र और हाफ स्लीव शर्ट पहनते  थे। दाहड़ी फिक्सो लगा कर नीटली बाँधी हुई होती थी। बहुत रोअब होता था उन का। उन से सभी लड़के और टीचर डरते थे। सिर्फ एक दफा ही मैं उन के दफ्तर में किसी काम से गिया था। जब  मैं  अंदर दाखिल हुआ तो रोअब से बोले ,”की गल ऐ ?” . जैसे उन्होंने मेरे साथ बोला ,दुबारा उन के दफ्तर में जाने का मुझ में  हौसला नहीं हुआ और यह मैंने बाहर आ कर सभी को बताया। हैड मास्टर जी का एक लड़का  भी हमारे  सेक्शन में था। हम ने उस को कहा कि ” तेरे बाप से तो डर लगता है “. तो वोह हंस कर बोला ,” मैं किया कहूँ , मैं तो खुद पिता जी से डरता हूँ ” . असिस्टेंट हैड मास्टर होते थे आसा सिंह , बहुत शरीफ , उन की दाहड़ी और पगड़ी गुरु नानक देव जी की रस्वीर जैसी और उन को जब भी मिलते सत  सिरी अकाल बोलते लेकिन अमर सिंह को देख  कर हम दूर ही हो जाते थे।

बहुत वर्षों बाद जब मैं यहां था तो पता चला था कि अमर सिंह रिटायर हो गए थे और उन का एक लड़का उन की जगह हैडमास्टर बन गिया था लेकिन मुझे पता नहीं कि वोह कौन सा लड़का था। हैडमास्टर अमर सिंह की एक लड़की की शादी यहां ही बर्मिंघम में एक लड़के से हो गई थी। मुझे इस बात का तब पता चला जब मैं और बहादर उस लड़के के रैस्टोरैंट में खाना खाने गए थे। उस रैस्टोरैंट का नाम होता था ” eat out ” जो सौहो रोड पर होता था . अब तो वोह हमारी उम्र का ही है और कभी कभी उस को टीवी पर देखते रहते हैं क्योंकि वोह सिआसत में मसरूफ रहता है। हैडमास्टर अमर सिंह कभी कभी यहां अपनी लड़की को मिलने के लिए आता रहता था। जी तो चाहता था कि उस को मिला जाए लेकिन जो उन का सख्त सुभाओ होता था उस  को याद करके दिल ने माना नहीं। कभी कभी सोचता हूँ कि ज़िंदगी में कितने लोग मिले जिन को दुबारा मिलने की चाहत रहती है और कितने ऐसे हैं जो याद तो आते हैं लेकिन उन को मिलने की खाहश नहीं होती। शायद यही ज़िंदगी की सच्चाई है कि हर एक इंसान एक दूसरे से भिन्न है।

चलता। ……

8 thoughts on “मेरी कहानी – 42

  • महातम मिश्र

    सादर धन्यवाद भाई श्री गुरमेल सिंह जी, आप की किस्तों को पढकर पुरानी बातें याद आ जाती है हर जीवन की लगभग यही कुछ दास्ताँयें रह रह याद आती है कुछ चेहेरे कुछ रवानियाँ, जो कहीं दूर बहुत दूर अपने में उलझी हुयी हैं शायद वों भी हमें इसी तरह याद करती होगी और खोजती होगी अपने चाह्बारे में, जहाँ न जाने कितने नए चेहरें नई तहकीकात में उसे घेरे हुए हैं| बहुत बढियां सफर है आप का मान्यवर…….

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मिश्र जी , हम सब की एक जैसी कहानिया ही है , कुछ फरक हो सकता है , एक बात है कि यों तो मुझे सब कुछ याद है लेकिन इन यादों के मणकों को एक माला में पिरो कर बहुत अच्छा लगता है . आप ने सही कहा कि जिन की बातें मैं लिख रहा हूँ वोह भी मुझे याद करते ही होंगे . मेरी कहानी आप को अच्छी लग रही है , आप का बहुत बहुत धन्यवाद .

  • विजय कुमार सिंघल

    प्रणाम, भाई साहब ! आज की क़िस्त भी बहुत रोचक है. आपने जोगिन्दर सिंह वाले वाकये का जिक्र पहले भी एक बार किया है. पुराने दोस्तों और सहपाठियों से मिलना वास्तव में बहुत आनंददायक होता है.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , जोगिन्दर की कहानी मैं दो बार पहले लिख चुका हूँ लेकिन ऐसी ही कहानी मेरी पत्नी के साथ कल हुई . मेरी पत्नी और उस की कुछ सखिओं को एक मंदिर में इनवाईट किया गिया था . जब वोह वहां पौहंची तो उस की एक सखी वहां चालिस साल बाद मिली .उस का बेटा दीपी भी साथ ही था . कोई समय था हम एक ही रोड पर रहते थे और एक दुसरे के घर जाया करते थे और बच्चों के जनम दिनों पर उन को बुलाया करते थे . इस औरत का नाम है तृप्ता और इस का पती मोहन लाल टंडन मेरे साथ काम किया करता था लेकिन अब दस वर्ष हो गए वोह इस दुनीआं में नहीं रहा . तृप्ता का बेटा दीपी हमारे बेटे की उम्र का है यानी ४२ वर्ष का . तो मेरी पत्नी ने उस को पुछा ,” दीपी ! तू संदीप को जानता है ?” तो वोह बोला कि कुछ कुछ याद है . अब तृप्ता को भी अधरंग हुआ है लेकिन धीरे धीरे ठीक हो रही है . मेरी पत्नी ने उन की फोटो खिंची . मैं बीवी को हंस रहा था कि यह तो जोगिन्दर जैसा ही हुआ .

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की पूरी क़िस्त पढ़ी। इसके माध्यम से इंग्लैंड और आपके स्कूल के मित्रो से मिलना व उन्हें और अधिक जानने का अवसर मिला। आपकी ही तरह हमें भी बहुत अच्छे विद्वान मित्र मिले हैं जिनकी कृपा से हम यहाँ तक पहुंचे है। आज भी क़िस्त पढ़ते हुवे रांची झारखण्ड से एक श्री वासुदेव शास्त्री जी का फ़ोन आया। उन्होंने वेदो में विज्ञानं से सम्बंधित लेख को हैदराबाद की एक पत्रिका में पढ़ा और उन्हें अच्छा लगा। लेख की खूब तारीफ़ की। इसी प्रकार मित्र बनते रहते हैं। इससे मन को सुकून मिलता है। सत्संगति से कोयले रूपी जीवन हीरा बन जाता है और कुसंगति से जीवन बर्बाद हो जाता है। सारा विवरण रोचक एवं प्रभावशाली है। धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मन मोहन भाई , आज की किश्त आप को पसंद आई , आप का बहुत बहुत धन्यावाद . जिस तरह आज आप को वासुदेव शास्त्री जी का फून आया और आप को ख़ुशी मिली . यही तो है अछे लोगों की संगत का फल जिन के साथ बात करते ही आप का मन पर्सन हो जाता है . कल मेरी पत्नी भी बहुत खुश थी किओंकि उन को उस की सखी कल ४० वर्ष बाद मिली थी ,ऊपर मैंने विजय भाई को लिखा है . डेढ़ साल पहले मैं विजय भाई को जानता नहीं था और न ही युवासुघोश पत्रिका का कोई गियान था , आज मैं उन की पत्रिका में हिस्सा ले रहा हूँ और आप से भी मुलाकात हो गई . आर्यसमाज के बारे में मुझे कुछ पता ही नहीं था , अब कुछ कुछ जान गिया हूँ . जिंदगी में बुरे लोग भी बहुत मिले लेकिन उन को छोड़ दिया . बस , जीना इसी का नाम है.

      • विजय कुमार सिंघल

        आपसे मिलना हमारा सौभाग्य हैं, भाई साहब ! प्रभु ने चाहा तो कभी आपके प्रत्यक्ष दर्शन भी करूँगा.

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी. आपकी एक एक पंक्ति एवं इसका एक एक शब्द सत्य है और ह्रदय पर असर डाल रहा है। हममे जो कुछ अच्छाइयां है वह हमारे अच्छे मित्रों, अच्छे साहित्य व विद्वानो के कारण तथा जो बुराइयां है वह हमारी अपनी व बुरी संगति के कारण से हैं व होती हैं। आपके प्रेरणादायक एवं बहुमूल्य विचारों व शब्दों के लिए धन्यवाद।

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