मुक्तक/दोहा

दोहे : करती खूब कलोल

सावन की बौछार में, भीगा है संसार
सखियाँ झूला झूलती,सुने मेघ मल्हार |

सजधज सखियाँ आ रही,कर सोलह शृंगार,
सावन की बौछार में, मने तीज त्यौहार |

मचकाती झूले सदा, करती खूब कलोल,
साजन आते याद है,सुन पक्षी के बोल |

बूंद बूंद बरसा रही, कुदरत करे कलोल,
सावन की बौछार में, भीगे खूब कपोल |

बदरा करते है कभी, सावन की बौछार,
चमकाती बिजुरी कभी, सखियों का शृंगार |

चंद्रमुखी मृगलोचनी, तेरा नहीं जवाब
सावन की बौछार में, देखे गाल गुलाब |

लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला

जयपुर में 19 -11-1945 जन्म, एम् कॉम, DCWA, कंपनी सचिव (inter) तक शिक्षा अग्रगामी (मासिक),का सह-सम्पादक (1975 से 1978), निराला समाज (त्रैमासिक) 1978 से 1990 तक बाबूजी का भारत मित्र, नव्या, अखंड भारत(त्रैमासिक), साहित्य रागिनी, राजस्थान पत्रिका (दैनिक) आदि पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, ओपन बुक्स ऑन लाइन, कविता लोक, आदि वेब मंचों द्वारा सामानित साहत्य - दोहे, कुण्डलिया छंद, गीत, कविताए, कहानिया और लघु कथाओं का अनवरत लेखन email- lpladiwala@gmail.com पता - कृष्णा साकेत, 165, गंगोत्री नगर, गोपालपूरा, टोंक रोड, जयपुर -302018 (राजस्थान)

One thought on “दोहे : करती खूब कलोल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छे दोहे !

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