आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 50)
पुरानी पत्र-मित्रों से सम्पर्क
जब दीपांक अपने प्रशिक्षण पर पंचकूला से मैसूर चला गया और मैं लखनऊ वापिस आने की तैयारी में था, तभी मुझे अपनी दो घनिष्टतम पत्र-मित्रों का ई-मेल प्राप्त हुआ। वे हैं श्रीमती अनिता अग्रवाल और श्रीमती नफ़ीसा नाज़। इनके बारे में मैं अपनी आत्मकथा के पहले भाग ‘मुर्गे की तीसरी टाँग’ उर्फ ‘सुबह का सफर’ में विस्तार से लिख चुका हूँ। अनिता को मैं अनी कहता था और नफ़ीसा को शहनाज़ कहता था, जो उसे बहुत पसन्द था। जवाहरलाल नेहरू वि.वि. में पढ़ते समय ही शहनाज़ से मेरा सम्पर्क टूट गया था और अनी का मई 1983 में विवाह हो जाने पर उससे भी मेरा सम्पर्क कट गया था।
मुझे सपने में भी यह ख्याल नहीं था कि वे दोनों फेसबुक पर हो सकती हैं, नहीं तो मैं उनको खोजने की कोशिश करता। एक बार शहनाज़ ने मुझे उलाहना भी दिया कि मैंने उसे खोजने की कोशिश क्यों नहीं की। खैर, उन दोनों ने मिलकर मुझे फेसबुक पर खोज लिया। मैंने फेसबुक पर अपना असली फोटो लगा रखा है, इसलिए उनको पहचानने में मुश्किल नहीं हुई। पहले वे दोनों आपस में भी सम्पर्क में आयीं। फिर दोनों ने एक ही दिन मुझे अपना सन्देश भेजा।
क्रमशः 30 और 28 साल बाद अपनी इन सबसे घनिष्ट दो पत्र-मित्रों का ई-मेल एक ही दिन पाकर मुझे कितनी प्रसन्नता हुई, इसको शब्दों में बयान नहीं कर सकता। वह दिन था 4 फरवरी, 2011 का। मैंने तत्काल उनके ई-मेल का उत्तर दिया। यहाँ दीपांक का लैपटाॅप, जो वह ट्रेनिंग पर अपने साथ नहीं ले गया था और जिसमें हमने इंटरनेट की सुविधा ले रखी थी, मेरे बहुत काम आया। मैंने दोनों को अपने द्वारा दिये गये नामों से पुकारा, इससे उनको शत-प्रतिशत विश्वास हो गया कि उन्होंने सही व्यक्ति को खोजा है। पंचकूला में मैं खाली रहता ही था, इसलिए उनसे थोड़ी चैटिंग अर्थात् नेट पर लिखित बातचीत कर लेता था।
पूछताछ करने पर पता चला कि अनिता जी इलाहाबाद में अपने परिवार की कुलवधू के रूप में सफल गृहस्थी चला रही हैं। उनके एक पुत्र हैं वरुण, जो उस समय अविवाहित थे। अब वे एक बच्ची के पिता हैं। वे एम.टेक. कर चुके हैं, लेकिन अपना कपड़े का व्यापार सँभालते हैं और कभी-कभी पार्ट टाइम आधार पर किसी संस्थान में इंजीनियरिंग पढ़ाते भी हैं। अनिता के कोई पुत्री नहीं है।
शहनाज के एक पुत्र मुस्तफा और एक पुत्री तसनीम है। पुत्र बम्बई में कार्यरत हैं और तसनीम मंगलौर में डाक्टरी की पढ़ाई कर रही हैं। शहनाज़ स्वयं बहुत दिनों तक टीचर रही थीं और अपने पति श्री अबुली जी के साथ भारत के विभिन्न शहरों और लीबिया में रहने के बाद इस समय अबू धाबी में रहती हैं, जहाँ उनके पति एक कम्पनी में महाप्रबंधक के रूप में कार्यरत हैं। बच्चे भारत में और पति अपने कार्यालय में व्यस्त रहने के कारण शहनाज के पास काफी खाली समय होता है, जिसका उपयोग वे घूमने-फिरने में करती हैं। कभी-कभी मुझसे चैटिंग भी करती हैं।
उन दोनों को मेरी उपलब्धियों के बारे में जानकर बहुत प्रसन्नता हुई। दीपांक और मोना के बारे में जानकर दोनों को बहुत अच्छा लगा। जब मैंने बताया कि मेरी कम्प्यूटर पर लगभग 60 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, तो उनको बहुत ही आश्चर्य हुआ। वे मेरी जिन्दगी के बारे में अधिक-से-अधिक जानना चाहती थीं। जब मैंने उन्हें बताया कि मैंने तीन भागों में अपनी आत्मकथा भी लिख रखी है, तो वे उसको पढ़ने के लिए उत्सुक हो गयीं।
मैंने लखनऊ आते ही पहला कार्य यह किया कि उन दोनों को अपनी आत्मकथा का पहला भाग भेज दिया। घोर आश्चर्य कि शहनाज़ ने पहले भाग को केवल दो दिन में पूरा पढ़ डाला और दूसरा भाग भेजने के लिए दबाब डालने लगी। फिर मैंने उसे दूसरा भाग भी भेजा। उस भाग में मैंने राम मन्दिर आन्दोलन की चर्चा करते समय मुसलमानों के प्रति कुछ कड़ी टिप्पणियाँ कर दी थीं। शहनाज़ ने इसका बहुत बुरा माना। मैंने एक जगह राजीव गाँधी पर भी मजाक किया था, वह भी उसे नागवार लगा। जब मैंने अपनी लिखी आत्मकथा को फिर से पढ़ा, तो मुझे भी लगा कि कुछ टिप्पणियों से बचा जा सकता था। इसलिए मैंने उसको कई जगह सुधार दिया और राजीव गाँधी का मजाक उड़ाने वाला प्रसंग तो पूरा ही निकाल दिया। सुधारी हुई आत्मकथा को देखकर शहनाज़ संतुष्ट भी हो गयी, जिससे मुझे प्रसन्नता हुई।
अनिता ने आत्मकथा के पहले भाग को काफी दिनों में पढ़कर पूरा किया। लेकिन जब उसने पढ़ लिया, तो बहुत प्रसन्न हुई। उसे इस बात का सन्तोष था कि मैंने अपनी आत्मकथा में उनके बारे में सत्य ही लिखा था, कोई गलत या काल्पनिक बात नहीं की थी। पहला भाग पूरा करने के बाद उसने भी दूसरा भाग मँगाया, लेकिन उसे अभी तक पूरा नहीं पढ़ पायी है। वह अपनी पोती को संभालने यानी दादीगीरी में व्यस्त है।
मकान किराये पर लेना
मार्च 2011 के आखिरी सप्ताह में मोना की हायर सेकेंडरी यानी इंटरमीडियेट की परीक्षा समाप्त होने वाली थी। मेरे मकान की लीज की अवधि भी तभी पूरी हो रही थी। दीपांक तो मैसूर में था। मुझे ही पंचकूला से सारा सामान लेकर आना था। इससे पहले मुझे लखनऊ में निवास की व्यवस्था करनी थी। बाल निकेतन के निकट रहने का इच्छुक होने के कारण मैं गोमती नगर में मकान चाहता था। सौभाग्य से मुझे विवेक खंड 2 में ठीक-ठाक सा मकान मिल गया। यह मकान बाल निकेतन से मुश्किल से 150 मीटर दूर है। यह मकान हमारे बैंक के एक बाबू श्री एस.पी. तिवारी के बड़े भाई का है, जो नगर निगम से अवकाशप्राप्त हैं। उन्हीं के माध्यम से मकान मुझे किराये पर मिल गया था। वे अपने बैंक के आदमी को ही मकान दिलवाना चाहते थे।
मैंने मार्च के प्रारम्भ में ही यह मकान ले लिया, क्योंकि मार्च के अन्तिम सप्ताह में हमें सामान लेकर आना था, इसलिए एक महीने का किराया मुझे अपने पास से भरना पड़ा। फरवरी के अन्तिम दिन मैंने विश्व संवाद केन्द्र छोड़ दिया और अपने किराये के मकान में आ गया। संयोग से कुछ दिन बाद हमारी छोटी भाभीजी भी लखनऊ आयीं, जहाँ गोमतीनगर में ही उनका मायका है । मेरे आग्रह पर भाभी जी हमारे नये निवास को देखने आयीं। देखकर उन्हें मकान ठीक लगा।
मकान किराये पर लेने से सामान लाने तक के बीच की एक माह की अवधि में मैंने बालनिकेतन के बच्चों के साथ अधिक से अधिक समय बिताना प्रारम्भ किया, ताकि उनकी परीक्षा की तैयारी अच्छी हो जाये। मैं कार्यालय से छूटकर सीधे बाल निकेतन ही जाता था। वहाँ बच्चों को दो-ढाई घंटे पढ़ाकर उनके साथ ही रात्रि का भोजन करता था और कई बार भोजन के बाद भी एक घंटा पढ़ाकर अपने किराये के मकान में जाकर सोता था। बच्चों की पढ़ाई में इस प्रकार मदद करने के कारण मिशन के सभी कार्यकर्ता मुझसे बहुत प्रसन्न रहते थे। इसका एक कारण यह भी है कि बाल निकेतन के कार्य को अधिक समय देने वाला और कोई कार्यकर्ता मिशन के पास नहीं है। बैठकों में तो सभी आ सकते हैं और बीच-बीच में वैसे भी आ सकते हैं, लेकिन प्रतिदिन नियमित समय देने वाले कार्यकर्ता दुर्लभ होते हैं।
सच में अपने पुरने मित्रों का मिलना बेहद ही सुखद होता है, मुझे भी मेरी एक बहुत पुरानी सहेली एफ.बी. के माध्यम से मिली |
पढकर बेहद अच्छा लगा कि आप बाल-निकेतन पर बच्चो को इतना समय देते थे |
बहुत बहुत धन्यवाद, शशि जी !
विजय भाई , आज का परसंग भी बहुत अच्छा लगा ,ख़ास कर पुराने दोस्तों के साथ सम्पर्क का अचानक हो जाना . बाल निकेतन में बच्चों को पडाना और उन के साथ लगाव बहुत पसंद आया . आतम कथा में कुछ भाग आप ने निकाल दिए अच्छा लगा ,किओंकि बहुत दफा हम भावुक हो कर कुछ ऐसी बातें लिख देते हैं जो दूसरों को गवारा नहीं करती ,ऐसी बातों को न लिखना ही बेहतर है .
आभार भाई साहब!
मैं अपनी ग़लती हो तो उसे स्वीकारने और ठीक करने के लिए हमेशा तैयार रहता हूँ। यह बात मेरे सभी दोस्तों को अच्छी लगती है।
आज के दोनों प्रसंग अच्छे लगे। बालनिकेतन के बच्चों को निःस्वार्थ अध्ययन कराने की घटना मन को आनन्दित कर रही है। पुराने पत्र मित्रों का फेस बुक पर मिलना एक सुखद संयोग है।
आभार मान्यवर ! यह बाल निकेतन प्रारंभ कराने में मेरा भी किंचित योगदान था। इसलिए बाल निकेतन के बच्चों से मेरा बहुत लगाव हो गया है। इसलिए मैं उनकी अधिक से अधिक सहायता करता रहता हूँ। बच्चे भी मुझसे बहुत लगाव रखते हैं और अपने मन की बातें भी मुझे बता देते हैं।
देव कोटि के कार्य करने के लिए आपको हार्दिक बधाई। ईश्वर आपको स्वस्थ रखे, आप दीर्घायु हों और आपको संसार की हर ख़ुशी प्राप्त हो। हार्दिक धन्यवाद श्री विजय जी।