गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल : ज़माने गुज़र गये

सस्ताई के वो हाए. ज़माने गुज़र गए,
टमाटर प्याज खाए ज़माने गुज़र गए

खा रहा हूँ रोटी नमक के साथ अब तो,
हरी सब्जियाँ पकाए. ज़माने गुज़र गए

बनिया भी माँगता है अब पैन कार्ड मुझसे,
होटल में खाना खाए ज़माने गुज़र गए

आलू लिए तो गोभी के पैसे नहीं बचे,
हमें गोभी आलू खाए ज़माने गुज़र गए

दूध का बिल देख के आ गया मुझे चक्कर,
पनीर घर में लाए .ज़माने गुज़र गये

चमचों ने सारा मक्खन लगा दिया नेता को,
ब्रेड पे बटर लगाए. ज़माने गुज़र गए

घर में पकाई जाती है पानी में अब तो दाल,
घी वाली दाल खाए. ज़माने गुज़र गए

इक दौर था कि होती थी दावतें हर रोज,
मेहमान को बुलाए ज़माने गुज़र गए

महंगाई डायन खा गई घर का मेरे राशन,
मुझे पेट भर के खाए ज़माने गुज़र गए

— भरत मल्होत्रा

*भरत मल्होत्रा

जन्म 17 अगस्त 1970 शिक्षा स्नातक, पेशे से व्यावसायी, मूल रूप से अमृतसर, पंजाब निवासी और वर्तमान में माया नगरी मुम्बई में निवास, कृति- ‘पहले ही चर्चे हैं जमाने में’ (पहला स्वतंत्र संग्रह), विविध- देश व विदेश (कनाडा) के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं व कुछ साझा संग्रहों में रचनायें प्रकाशित, मुख्यतः गजल लेखन में रुचि के साथ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय, सम्पर्क- डी-702, वृन्दावन बिल्डिंग, पवार पब्लिक स्कूल के पास, पिंसुर जिमखाना, कांदिवली (वेस्ट) मुम्बई-400067 मो. 9820145107 ईमेल- rajivmalhotra73@gmail.com

3 thoughts on “ग़ज़ल : ज़माने गुज़र गये

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    हा हा हा , एक बात जरुर है ,अब पिआज नहीं तो आँखों से पानी भी नहीं निकलेगा .

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    हा हा हा , एक बात जरुर है ,अब पिआज नहीं तो आँखों से पानी भी नहीं निकलेगा .

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