ब्लॉग/परिचर्चा

गुरु को गरिमा दिलाने वाले शिष्य

गुरु शब्द बहुत व्यापक है. सही मार्गदर्शन करने वाला ही गुरु है. माता-पिता-शिक्षक-इष्ट संबंधी-मित्र भी गुरु ही होते हैं. हमने तो अपने शिष्यों से भी बहुत कुछ सीखा है. हमने गुरु शब्द का प्रयोग इसी संदर्भ में किया है. श्रद्धा और विश्वास हो, तो गुरु कभी भी, कहीं भी, कैसे भी मिल सकता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है. एक बार गुरु मिल जाए, तो वह हमारे जीवन की दिशा ही बदल देता है.

 

अक्सर देखा-सुना-पढ़ा जाता है, कि सच्चे गुरु का मिलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. वास्तव में होता क्या है? जन्म-जन्मातर से हमारे मन पर संस्कारों की परत जमती जाती है. उससे बेखबर हम जीवन के क्रियाकलापों में उलझे रहते हैं. अचानक कहीं से उड़ता हुआ कोई बीज आकर गिरता है और ज्ञान का अंकुर फूट पड़ता है. ऐसे ही गुरु का मिलन भी हो जाता है.

 
तुलसी को गोस्वामी तुलसीदास किसने बनाया? आप सभी जानते हैं, उनकी पत्नि रत्नावली की फटकार ने ही उनके अविवेक को चिंगारी दिखाई. पत्नि के मायके चले जाने पर वे भी उनके पीछे चले गए. पत्नि ने तो बस इतना ही कहा-

 
”लाज न लागत आपको, दौरे आयहु साथ,
धिक-धिक ऐसे प्रेम को कहाँ कहहुं मे नाथ।
अस्थि चर्ममय देह मम, तामे ऐसी प्रीती,
तैसी जो श्रीराम मे, छेती न तो भव भीती॥”

 
यह एक चौपाई ही उनका गुरुमंत्र बन गई. उसी समय उनका ध्यान राममय हो गया. गोस्वामी तुलसीदास के साथ गुरु रत्नावली का नाम भी अमर हो गया.

 

सूरदास माधव से उबार लेने की चिरौरी करते. एक दिन आचार्य वल्लभ ने उपालंभ उनका ध्यान लीला के उत्सव की ओर मोड़ दिया. उन्होंने पूछा, ‘शूर होकर घिघियाते क्यों हो?’ सच्चे शिष्य ने गुरु-ज्ञान की गहराई में डुबकी लगा ली. बस फिर सूरदास के सामने कृष्ण लीला की सुंदर से सुंदुर झाकियां खुलने लगीं. सूर के साथ आचार्य वल्लभ का स्मरण स्वतः ही हो जाता है.

 
बुल्लेया को बुल्ले शाह किसने बनाया? पंजाब के महान सूफी संत थे ‘बुल्ले शाह’. उनके पिता मस्जिद में मौलवी थे. सैयद वंश के होने के कारण उनका संबंध हजरत मुहम्मद से था. अरबी, फारसी के विद्वान थे. बुल्ले शाह भी इनके अच्छे ज्ञाता थे. शास्त्र अध्ययन तो गहन था, परंतु परमात्मा के दर्शन का मार्ग नहीं मिल रहा था. इसी खोज में वे सूफी फकीर हजरत इनायतशाह कादरी तक पहुंच गए. वह पहुंचे तो इनायत शाह प्याज के पौधे लगाने में मगन थे, उन्हें आहट सुनाई नहीं पड़ी. बुल्लेशाह उन्हें अपने आध्यात्मिक अभ्यास से प्रभावित करना चाहते थे. इसलिए आसपास लगे आम से लदे पेड़ों की ओर ध्यान लगाकर देखा. आम टपाटप गिरने लगे. शाह ने पूछा ‘आम क्यों गिराए?’ बुल्ले शाह ने कहा ‘सांई! न तो मैं पेड़ों पर चढ़ा न कंकड़ फेंका, भला मैं आम कैसे तोड़ सकता हूं?’ सांई ने सरलता से कहा, ‘तू तो चोर भी है और चतुर भी.’ बस शिष्य उनके चरणों पर लोट गया. सांई ने आने का उद्देश्य पूछा. उनके यह कहने पर कि रब को पाना चाहता हूं, तो सांई ने कहा ‘उठ मेरी तरफ देख.’ वह बोले, ‘बुल्लेया रब दा कि पौणा, एदरों पुटना ते ओदर लौणा’ (ईश्वर की प्राप्ति ऐसे ही जैसे एक पौधा इधर से उखाड़ उधर लगा देना). फिर क्या था! बुल्ले शाह ने मन को संसार से हटा कर ईश्वर की ओर मोड़ लिया. ईश्वर को गुरु में ही देखने लगे. अच्छे शिष्य थे, इसलिए गुरु को अमर कर दिया.

 

 

ग्यारह वर्ष के दादूदयाल ने खेलते-खेलते भिक्षा के रूप में एक साधु के मुंह में पीक डाल दी. बात आई-गई हो गई. 18 वर्ष के दादू अपने पुश्तैनी व्यवसाय (धुनिया) में मग्न थे. वही साधु एक दिन फिर आया. अचानक उधर दृष्टि गई तो सामने सौम्य साधु को देख उसकी आवभगत की. उनका सेवा भाव देख साधु की आंखों से आंसू बहने लगे. वह बोले, ‘मैं तुम्हारे द्वार पर कुछ ही देर खड़ा रहा और तुमने इनती श्रद्धा दिखाई, किंतु भगवान तो हमारे जीवन द्वार पर आ चुके और कब से प्रतीक्षा में खड़े हैं, हमारी दृष्टि उनकी ओर जाती नहीं.’ दादू को मानो गुरु-मंत्र मिल गया. इन शब्दों का दादू पर बिजली का सा प्रभाव पड़ा. ज्ञान के प्रकाश में वे गुरु के चरणों में गिर पड़े. आज अनुपम शिष्य दादूदयाल के साथ संभवतः गुरु बुड्ढन नामक एक अज्ञात संत का नाम भी अमर हो गया है.

 
कहीं पत्नि की फटकार, कहीं संत के उपालंभ, कहीं सांई की सरलता, तो कहीं साधु के एक सहज वाक्य मात्र गुरुमंत्र बन गए. गुरु को गुरुता दिलाकर गुरु बनाने वाले ये शिष्य कहीं भी गुरु को ढूंढने नहीं गए, वे खुद भी तर गए और गुरुओं को भी अमर कर दिया. ऐसे अनुपम शिष्यों के साथ ही ऐसे समर्थ गुरुओं को भी कोटिशः नमन.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

6 thoughts on “गुरु को गरिमा दिलाने वाले शिष्य

  • राजकुमार कंडू

    प्रथम गुरु माँ ही होती है और उसकी दी हुयी शिक्षाओं और संस्स्कारों की बदौलत कामयाबी हासिल कर इंसान अपने प्रथम गुरु अर्थात माँ और फिर अपने सभी गुरुओं की गरिमा में चार चाँद लगा देते हैं । अर्जुन का नाम लेते ही गुरु द्रोणाचार्य की याद स्वतः ही आ जाती है वैसे ही कृष्णा और सुदामा से जुड़े ऋषि संदीपनी की गरिमा भी उनके शिष्यों की वजह से ही बढ़ी ।इतिहास में ढेरों ऐसे प्रमाण हैं ।काबिल शिष्यों की सफलता के लिए तो गुरु भी अपनी पूरी क्षमता लगा देता है जैसा आपने अपनी शिष्या जयश्री के लिए किया और गुरु का यही स्वभाव शिष्य की कामयाबी के बाद उसकी गरिमा बढ़ाते हैं ।
    एक और बढ़ियालेख के लिए आपको बधाई हो ।
    धन्यवाद !

    • लीला तिवानी

      प्रिय राजकुमार भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. स्वस्थ और सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार.

  • Man Mohan Kumar Arya

    इसे लेख में आपने नाना प्रकार से भक्ति के प्रचारक गुरुओं का अच्छा वर्णन किया है। ईश्वर सभी मनुष्यों का आदि गुरु है जो सृष्टि के आरम्भ में वेद ज्ञान के द्वारा हम सबके आदि पूर्वजों का मार्ग दर्शन करता है। योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि ने ईश्वर को गुरुओं का गुरु, आदि गुरु, बताया व सिद्ध किया है। दर्शनकार बताते हैं कि जन्म व मरण के दुखों से मुक्ति अर्थात मोक्ष के लिए ईश्वर का समाधि में साक्षात्कार आवश्यक है। सादर।

    • लीला तिवानी

      प्रिय मनमोहन भाई जी, अति सुंदर, सार्थक व अनमोल प्रतिक्रिया के लिए आभार.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    लीला बहन, इस गुरु शिष्य रिश्ते को दर्शाने के लिए आप ने वोह इतहास सामने रख दिया जिन की वजह से आज हर इंसान उन को श्रधा में सर झुकाता है .

    • लीला तिवानी

      प्रिय गुरमैल भाई जी, अति सुंदर, अनमोल, मार्गदर्शक व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार.

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