हास्य व्यंग्य

स्वर्गारोहण में कुत्तों का योगदान

साधारण मनुष्य, स्वर्ग-प्राप्ति की कामना जीता और मरता है। हमारी संस्कृति में स्वर्ग तक पहुँचने के अनेक साधन और मार्ग बताएँ गये। जिसे जो वाहन और मार्ग जँचे, चयन करने को स्वतंत्र है। इसमें से एक है- गोदान। मान्यता है कि गोदान करने से स्वर्ग का हाइवे खुल जाता है। चौकीदार नाका भी नहीं काटता और आपकी आत्मा रूपी गाड़ी दनदनाते हुए बिना किसी बाधा के स्वर्ग के मुख्यद्वार पर पहुँच जाती है। अपनी यह यात्रा निर्विघ्न संपन्न करने के लिए लोग पहले गाय पालते भी थे और दान भी करते थे। आजकल कोई ये रिस्क नहीं लेता। क्या पता गाय बिदक जाए और यहाँ-वहाँ चली जाए घास चरने!

युधिष्ठिर के साथ कुत्ते को स्वर्ग में प्रवेश मिला था और वह भी शरीर के साथ-सशरीर। इसलिए अब लोगों को स्वर्ग तक पहुँचने का यह ‘कुत्तेवाला’ रास्ता अधिक पसंद आता है। कुत्तेवाले, अपने कुत्ते के साथ प्रातःकाल भ्रमण पर स्वर्ग-प्राप्ति की कामना के लिए निकलते हैं। कुत्ता भी रास्ते भर स्वर्ग का मार्ग तलाशने में लगा रहता है। उचित स्थान न मिलने पर वह सुसु अथवा छीछी कर देता है और अपने मालिक अथवा मालकिननुमा युधिष्ठिर को समझा देता है- ‘फिलहाल गुंजाइश नहीं है। कल देखेंगे।’ असत्यप्रिय और धर्महीन आधुनिक युधिष्ठिर समझ जाते हैं और स्वर्ग-सर्चिंग का वह धार्मिक अनुष्ठान अगली भोर तक टल जाता है।

एक ज़माना था-पिता जी का ज़माना- जब कुत्ता, ‘कुत्ता’ ही होता था। वह शेरू, मोती, सुल्तान, टीपू वगैहर-वगैहर हुआ करता था। आजकल-मेरे ज़माने में- वह डॉग और डॉग से भी आगे डॉगी हो गया है। अब वह टॉमी, टॉम, टफी वगैरह-वगैरह हो गया। पिताजी के ज़माने में उसे वही सम्मान मिलता था जो कुत्ते को मिलना चाहिए। पिछले कुछ दशकों में देशवासियों की साक्षरता और शिक्षा का स्तर सुधरा। वे सभ्य हो गए हैं। उसका लाभ डॉगियों को मिला और उनके स्तर में भी आश्चर्यजनक सुधार हुआ।

मनुष्य के साथ-साथ अब वे भी सभ्यता और संभ्रांत वर्ग में गिने जाने लगे। अब उन्हें कुत्तों जैसा सम्मान नहीं दिया जाता। अब वे कार में घूमते हैं। सोफे और पलंग पर सोते हैं। अधिक भाग्यशाली रहा तो मेडम की नाज़ुक-नर्म बाँहों का झूला भी झूलता है। घर की रखवाली जैसा ओछा काम वह अब नहीं करता अपितु उसकी देखभाल करने के लिए नौकरों की फौज होती है। अगर उसकी शान में कोई कमी आई तो घर के दादा जी और दादी जी को डाँट भी पड़ सकती है। दादा और दादी जी अपनी इस धृष्टता के लिए डाँट सुनते भी हैं क्योंकि अब वे किसी काम के नहीं रह गये। उन्हें इतना काम तो करना ही चाहिए न। कुत्ता भी किसी काम का नहीं। लेकिन अब वह कुत्ता नहीं, डॉगी है। अब उसका सम्मान बढ़ गया है।

साहब, डॉगी पालना हर किसी के बस की बात नहीं। कुत्ता पल जाता है, डॉगी को पालना पड़ता है। डॉगी को साहब, व्यापारी और बड़े-बड़े लोग पालते हैं। साहब, रिश्वत खाते हैं। डॉगी, बिस्कुट खाता है, मटन खाता है। डॉगी को बिजनेस मैन पालते हैं। बिजनेस मैन अपना काम बनाने के लिए साहब को रिश्वत खिलाते हैं, देश के टैक्स की चोरी करते हैं। कुत्ता और डॉगी वफादार होते हैं। साहब और बिजनेस मैन डॉगी पालते हैं, पर….। कुत्ता, जिसकी दो रोटी खाता है, उसके घर की रखवाली करता है। अवसर पड़ने पर जान की बाजी लगा देता है और कुछ न कर सका तो भौंक-भौंककर सारे घर और मौहल्ले को सिर पर उठा लेता है।

साहब और व्यापारी, भौंकनेवाले को उठा लेते हैं। ये लोग भौंकनेवाले के सामने हड्डी डाल देते हैं। डॉगी, मटन खाता है। कुत्ता, हड्डी चूसता है। ये लोग जानते हैं चूसते-चूसते हड्डी गले में फँस जाती है। फिर कुत्ता कुछ नहीं कर सकता, सिवाय पूँछ हिलाने के। डॉगी पालनेवाले, कुत्ता बनने और बनाने का हुनर जानते हैं। कुत्ता, वफादार होता है। नमक की कीमत चुकाता है। साहब और व्यापारी, नमक की कीमत नहीं जानते क्योंकि नमक सस्ता होता है। सस्ती चीज़ों की कीमत जानना बड़े लोगो को शोभा नहीं देता।

उस दिन साहब अपने डॉगी के साथ प्रातःकालीन भ्रमण पर निकले। आज डॉगी स्वर्ग जाने का मार्ग ढूँढ़ ही लेगा, ऐसा लग रहा था। खंभा दिखा, उसे सूँघा। मार्ग न दिखाई दिया तो अपनी पिछली टाँगों में से एक उठा कर खंभे का अभिषेक कर दिया। आगे बढ़ने पर कचरे के ढेर को सूँघा। शायद वहाँ भी उसे स्वर्ग जाने का रास्ता नहीं नज़र आया। कमर को थोड़ा जो़र दे कर झुकाया और पेट खाली कर दिया। अचानक सड़क के उस पार भागा। शायद उसे स्वर्ग का मार्ग दिख गया था। इस बार उसने उस स्थान को सूँघा नहीं। पूरी तरह आश्वस्त था। साहब उसका यह अप्रत्याशित आचरण समझ न पाए और उसे पकड़ने पीछे भागे। दायीं ओर से ट्रक आ रहा था। साहब का ध्यान उस ओर न था। जहाँ स्वर्ग का मार्ग था, ट्रक साहब को वहीं रौंदता हुआ चला गया। डॉगी आसपास खड़ी कुत्तों की फौज के साथ आसमान की ओर देखकर रोने लगा। कुत्ता बन गया। वफादार जो था।

— शरद सुनेरी