कहानी

काश! बेटियाँ होतीं

अरे छाया! तुम यहाँ?
“हाँ ज्योति, मेरा विवाह इसी शहर में हुआ है लेकिन तुम…?
“मेरा भी, छाया…”, ज्योति हँसकर बोली।
बचपन की सहेलियाँ छाया और ज्योति इस समय शहर के माल में अपने-अपने पति के साथ खरीदारी करने आई हुई थीं, और एक ही स्टॉल पर खरीददारी करते हुए ज्योति की नज़र छाया पर पड़ गई। खड़े खड़े ही खूब बातें हुईं फिर दोनों ने अपने-अपने पतियों का परिचय भी अपनी-अपनी सहेली से करवाया और एक दूसरे को अपने घर का पता देकर आने का निमंत्रण भी दे डाला।
यह शायद इत्तफाक ही था कि एक ही शहर के स्कूल, कॉलेज में एक साथ पढ़ने वाली इन दो सहेलियों का विवाह भी निकट के एक ही शहर में हुआ था। फर्क केवल इतना था कि वे मायके में एक दूसरी के पड़ोस में रहती थीं और यहाँ ससुराल कुछ दूर-दूर थे, लेकिन यह दूरी उनकी मित्रता में बाधा नहीं बनी और उनका एक दूसरे के घर आना जाना शुरू हो गया। छाया के पति सुनील प्राइवेट नौकरी में थे तो ज्योति के पति जयेश की सरकारी नौकरी थी। दोनों के दफ्तर अलग-अलग इलाकों में थे, फिर भी अपनी बीवियों की गाढ़ी मित्रता के कारण वे भी आपस में अच्छे मित्र बन गए।
हर सप्ताहांत में उनका मिलना तय हुआ, फिर घूमना खरीदारी करना और खाना-पीना सब एक साथ ही होता। दिन गुजरते गए और दो साल बाद ही छाया की गोद में बेटा और ज्योति की गोद में बेटी आ गई। अब उनका मिलना-जुलना दिनों के बजाय महीनों में होने लगा। दो साल और गुजरे तो छाया ने पुनः बेटे और ज्योति ने दूसरी बेटी को जन्म दिया। पर इस बार मिलने पर छाया ने गर्व से बताया कि दूसरी बार गर्भ में कन्या होने से उसने अबार्शन करवा लिया था और अब दूसरा बेटा होते ही अपना परिवार नियोजित कर लिया है। लेकिन जब ज्योति ने बताया कि बेटे हों या बेटियाँ, उसने सिर्फ दो संतानों के बाद परिवार नियोजित करने का निर्णय लिया था, और उसने भी परिवार नियोजित कर लिया है तो छाया आश्चर्य से बोली-
“लेकिन ज्योति, बेटे के बिना परिवार का वंश-वर्धन कैसे होगा? बेटियाँ तो एक दिन अपने घर चली जाएँगी, तुम्हें अभी ऑपरेशन नहीं करवाना था।”
“छाया, इस आधुनिक युग में भी तुम्हारी रूढ़िवादी सोच जानकार मैं चकित हूँ। वंश-वर्धन क्या केवल बेटों से होता है? बेटियाँ विवाह के बाद जिस परिवार में जाएँगी, उनका भी तो वंश बढ़ाएँगी न! सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए सृष्टि-चक्र के साथ खिलवाड़ करना क्या उचित है? आगे क्या होना है यह कौन जानता है सखी, अभी तो हमें अपनी बेटियों की परवरिश सही ढंग से करनी है और पति के साथ ही मेरे सास-ससुर भी परिष्कृत विचारों के हैं वे हमारे निर्णय से पूर्णतः सहमत और संतुष्ट हैं”।
दो-दो बच्चों के बाद उनकी व्यस्तता बढ़ती गई और मुलाक़ातों के बीच लंबा फासला होने लगा।
जिम्मेदारियों का निर्वाह करते-करते लंबा अरसा बीत गया। छाया का घर दो बहुओं से गुलज़ार हो गया और ज्योति की बेटियाँ ससुराल चली गईं। दोनों सहेलियों के सास-ससुर तो नहीं रहे लेकिन साल-दर-साल पोते पोतियों के आगमन से छाया के परिवार में वृद्धि होने से उसका ज्योति के यहाँ आना-जाना कम हो गया। ज्योति को तो अब सूनापन काटने दौड़ता था, वो एक तरफा ही अपना मन हल्का करने छाया के पास जयेश के साथ आ जाती थी। छाया को न आने का उलाहना देती तो वो अपने बढ़ते परिवार का हवाला देकर कहती-
“भई हमारा समय तो मूलधन-ब्याजधन ने ही आपस में बाँट लिया है… मुझे ये बच्चे नहीं छोड़ते तो सुनील को बाजार के कार्य निपटाने पड़ते हैं। बेटों की नई और प्राइवेट कंपनियों में नौकरी होने से उन्हें छोटे-मोटे कार्यों के लिए समय ही नहीं मिलता। तुम लोग आ जाते हो तो बहुत अच्छा लगता है।
लेकिन ज्योति भी कब तक आना जाना करती, तो मुलाकातों में फासला बढ़ता ही गया. फिर अचानक जयेश का तबादला दूसरे शहर में हो गया और सखियों के मिलने जुलने का सिलसिला सिमटकर मोबाइल पर बातचीत तक रह गया।
नई जगह पर ज्योति का मन बिलकुल नहीं लगता था। यहाँ पड़ोस मुहल्ले में भी आना जाना कम ही था तो ज्योति ने समय काटने के लिए कंप्यूटर से नाता जोड़ लिया।
इस विस्तृत दुनिया में उसका मन खूब रम गया। कहानियाँ पढ़ने और बच्चों को सुनाने का उसे बचपन से ही शौक था। अब उसका यह शौक पुनर्जीवित हो गया। पढ़ते-पढ़ते कब कलम हाथ में आई और कागज़ काले होने लगे उसे पता ही न चला। समय तो जैसे हवा से होड़ लेने लगा था। धीरे-धीरे कहानियों पर उसकी पकड़ अच्छी जम गई।
छाया से बातचीत होती रहती लेकिन मिलना फिर नहीं हो पाया। कभी कभी अपने हालचाल एक दूसरे को अवश्य साझा करतीं। इस तरह एक लम्बा अरसा गुज़र गया। फिर उनकी बातों का सिलसिला भी अचानक बंद हो गया। छाया का मोबाइल हमेशा स्विच ऑफ़ बताता। ज्योति सोचती कि बड़े परिवार की बड़ी परेशानियाँ भी हैं, दस कारण होते हैं. अब वो उसके फोन आने का इंतजार करने के अलावा कर भी क्या सकती थी, घर के कार्यों और साहित्य-साधना में ही उसकी दुनिया सिमट गई।
आखिर वो समय भी आ गया जब जयेश सरकारी नौकरी से सेवामुक्त हो गए। अब वे अपना समय समाजसेवा में काटने लगे। ज्योति को भी अब शारीरिक ऊर्जा में कमी महसूस होने लगी थी लेकिन कलम को इससे क्या लेना देना! उसे तो अपनी खुराक चाहिए ही, तो उसने घर के कार्यों के लिए एक गरीब अधेड़ महिला सुमित्रा को रख लिया। वो दिन भर काम के साथ ही उसका घर भी व्यवस्थित रखती और रात में अपने घर चली जाती थी। अब वो निश्चिंत होकर अपना समय लेखन को दे सकती थी। उसने दिन भर घूम-घूम कर कलम की उदरपूर्ति के लिए अपने आसपास बिखरी कहानियों को सहेजना शुरू कर दिया। झूलाघर, नारी-निकेतन, अनाथालय, आरोग्य-केंद्र, आदिवासी बस्तियाँ आदि स्थानों से नित्य नई कहानी का किरदार खोज लाती और उसे पन्नों पर साकार करती रहती।
कभी-कभी बेटियाँ अपने बच्चों के साथ मिलने आ जातीं, तो कभी पति-पत्नी लम्बे भ्रमण पर निकल जाते। वहाँ भी उसे पहाड़ों और वादियों में कहानियों के किरदार मिल जाते। इस बार होली निकट थी तो उन्होंने वृन्दावन-मथुरा जाकर देवदर्शन के साथ ही श्री कृष्ण की लीला-स्थली ब्रिज भूमि पर बरसाने की लठमार होली देखने का कार्यक्रम बनाया और एक पर्यटन-गाड़ी में अपना आरक्षण करवा लिया। फिर घर की देखरेख की जवाबदारी सुमित्रा को सौंपकर वे निश्चित दिन मथुरा पहुँच गए। होली में अभी ८ दिन बाकी थे, प्रतिदिन वे बारी-बारी वहाँ के प्रसिद्ध पौराणिक स्थल घूम-घूम कर देखते और आनंदित होते रहते। कभी यमुना नदी तट पर पहुँच जाते तो कभी प्राकृतिक दृश्यावली को निहारने एकांत स्थलों पर समय बिताते। ज्योति हर स्थान के अपने अनुभव कलमबद्ध करती रहती। अब केवल वृद्धाश्रम रह गये थे जो ज्योति की नई कहानी के केंद्र बिंदु थे। उसने यहाँ के आश्रय-स्थलों में अपना अंतिम समय व्यतीत करने वाली महिलाओं के बारे में सुना तो खूब था, अब रूबरू होने के लिए होटल से पूरी जानकारी लेकर एक दिन वो सुबह जल्दी ही पति के साथ चल पड़ी और वे सबसे पहले वहाँ के पुराने वृद्धाश्रम पहुँचे।
यहाँ वृद्ध-जन पूरा दिन भजन कीर्तन करने और नाचने गाने में बिताते थे। कुछ वृद्ध वहाँ स्थायी निवास कर रहे थे तो कुछ संपन्न वृद्ध दम्पति अपने अलग घर बनाकर भी रहने लगे थे जो पूरा दिन वहीँ बिताकर रात में घर जाते थे। सबकी अपनी कहानी थी। लेकिन एक बात समान थी कि सब अपनों से ही चोट खाए हुए थे। ज्योति ने महसूस किया कि जैसे एक मोर जब प्रसन्न होता है तो नाचने लगता है लेकिन जब उसकी नज़र अपने भद्दे पैरों पर पड़ती है तो नाचना भूलकर रोने की आवाज़ निकालने लगता है उसी तरह ये बुजुर्ग मन को समझाने बहलाने के लिए कितने भी यत्न करें, नाचें गाएँ, एकांत पाते ही परिजनों द्वारा दिए हुए ज़ख्मों को याद करके उनका ह्रदय चीत्कार करने लगता है।
ज्योति का मन भी सबकी गाथाएँ सुन-सुन कर चीत्कार करने लगा था, बुजुर्गों का ऐसा दर्द भरा जीवन उसने इन वृद्धाश्रमों के अलावा और कहीं नहीं देखा था। आधुनिक आश्रय-स्थल तो और भी डराने वाले थे, जहाँ सब स्वयं से ही अजनबी थे। लगता था, जैसे अपने अज्ञातवास के दिन काट रहे हों। अंत में वे एक पुराने महिला आश्रय-स्थल पर पहुँचे, जहाँ विधवा और परित्यक्ता वृद्ध महिलाएँ अपने अंतिम समय में देश के हर कोने से आकर शरण लेती थीं। ज्योति और जयेश संचालकों से अन्दर जाने की अनुमति लेकर आगे बढ़े तो देखा, कुछ बुजुर्ग महिलाएँ झुण्ड बनाकर कहीं जाने को तैयार थीं। गेरुए वस्त्र, माथे पर गेरुआ तिलक और गले में रुद्राक्ष की माला डाले सबकी वेशभूषा एक जैसी थी, लगता था जैसे कहीं विशेष अभियान पर जा रही हों।
तभी अचानक एक महिला पर उसकी नज़रें स्थिर हो गईं। ज्योति को उसकी सूरत पहचानी सी लगी। गौर से देखा तो आश्चर्य से आँखें खुली रह गईं, पलकें झपकना भूल गईं। वो छाया थी। लगभग बरसों बाद उसे इस हाल में यहाँ देखकर ज्योति सकते में आ गई, चार सालों से उसका मोबाइल स्विच-ऑफ़ मिलने का सारा रहस्य भी उसे समझ में आ गया। तेज़ी से चलकर उसके सामने पहुँची तो छाया भी विस्मित होकर उसे देखती रह गई और एकाएक उसकी आँखों से जैसे रुका हुआ झरना फूट पड़ा।
उसने अपनी साथिनों से क्षमा माँगी और ज्योति-जयेश को अपने कमरे में ले आई।
“यह तुमने क्या हाल बना रखा है छाया? तुम्हारा परिवार, सुनील भाई साहब, सब कहाँ हैं?” ज्योति ने छाया को गले लगाते हुए पूछा। उसे रोते देखकर उसकी ऑंखें भी नम हो चली थीं।
“मैं तुम्हें अपनी इन गुमनाम गलियों में गुम हो जाने की पूरी दास्तान सुनाऊँगी ज्योति, तुम दोनों आराम से बैठो…” कहते हुए उसने टेबल पर ही रखे हुए कुछ ताजे फल उन्हें खाने को दिए, फिर हिचकियों को रोककर अपनी कहानी शुरू की-

“तुम विश्वास नहीं करोगी ज्योति, कि कभी-कभी हमारे साथ ऐसी घटनाएँ घटित हो जाती हैं कि दिमाग चक्करघिन्नी बनकर रह जाता है। नियति हमारे आसपास परिस्थितियों का ऐसा ताना-बाना बुनती है कि हम, न जाने क्यों…? उसमें सहर्ष फँसते चले जाते हैं और हमें पता ही नहीं चलता कि कब हमारी सुखद सपनों सी ज़िन्दगी दुखद दास्तान बन चुकी है। हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ।
ज़िन्दगी अपनी निर्बाध गति से अच्छी तरह गुज़र रही थी कि एक रात अचानक ही नींद में सुनील की चीख सुनकर मैं जाग गई। देखा तो डर के मारे उनके हाथ पैर काँप रहे थे, यह सुबह के लगभग ५ बजे का समय था। मैंने घबराकर पूछा-
“क्या हुआ सुनील, कोई डरावना सपना देखा क्या”?
“हाँ छाया, सफ़ेद कपड़ों में कुछ लोग एक अर्थी लेकर ‘राम नाम सत्य है…’ कहते हुए जा रहे थे, फिर एक बड़े नामपट्ट पर बड़े-बड़े लाल अक्षरों में ‘वृन्दावन’ लिखा हुआ देखा। फिर देखा तो वो अर्थी मेरी थी और तुम…तुम भिक्षुणी के भेष में एक घर के द्वार पर भीख माँग रही थीं। मेरा दिल तो किसी अनिष्ट की आशंका से बैठा जा रहा है।”
सुनकर मैं भी सकते में आ गई थी लेकिन हिम्मत करके उनको हौसला देते हुए कहा-
“सपने भी कभी सच हुए हैं क्या सुनील?, कभी-कभी स्वास्थ्य की गड़बड़ी की वजह से भी हम बुरे सपने देखते हैं। चलो उठ जाओ, सुबह हो चुकी है, मैं बढ़िया सी चाय बनाती हूँ।”
“लेकिन छाया यह सपना बिलकुल अलग था, जो उन्हीं रंगों के साथ मेरे मन-पटल पर अंकित हो गया है। कहते हैं इस तरह के सपनों में कुछ न कुछ सच्चाई अवश्य होती है।”
“अरे! कहा न, यह केवल वहम है, भूल जाओ कि तुमने कोई सपना देखा है।”
बात उस समय आई गई हो गई और धीरे-धीरे सुनील सपने की बात भूल गए। दो तीन वर्ष आराम से गुज़र गए फिर सुनील के रिटायर होते ही घरेलू परिस्थितियों में बदलाव आने लगा। बच्चे बड़े हो चले थे तो सास-ससुर का दो कमरे और हाल वाला पुश्तैनी मकान छोटा पड़ने लगा था। बेटों की शादी के बाद हम एक-एक कमरा उनको सौंपकर हाल में किसी तरह गुजर कर रहे थे, लेकिन अब बेटों को बढ़ते हुए दो-दो बच्चों के साथ एक-एक कमरे में परेशानी होने लगी थी और हमें भी इस थकी उम्र में एक अलग सुविधाजनक कमरे की आवश्यकता महसूस होने लगी थी।
बेटों की आमदनी बच्चों की पढाई लिखाई और घर खर्च में ही पूरी हो जाती थी, तो हमने बेटों के साथ मशविरा करके रिटायरमेंट के बाद मिली रकम से मकान की छत पर कमरे बनाने का विचार किया। लेकिन काम शुरू करने से हमें ही परेशानी होती, क्योंकि ऊपर जाने वाली सीढ़ियाँ हाल के अन्दर से ही जाती थीं, सो बड़े बेटे संजय ने सुझाया कि हर साल सरकार की तरफ से एक विशेष सुविधा संपन्न ट्रेन वरिष्ठ नागरिकों के लिए देश के प्रमुख धार्मिक स्थलों के भ्रमण हेतु चलाई जाती है। एक महीने की समय सीमा में अनेक स्थानों पर देवदर्शन के साथ ही दर्शनीय स्थलों का भी आनंद लिया जा सकता है। अगर हम चाहें तो उस गाड़ी में हमारा आरक्षण करवा लिया जाए, मकान का काम एक बार शुरू हो जाए तो आसपास किसी किराए के मकान में कुछ समय के लिए शिफ्ट हो जाएँगे।

बात सही थी और हम भी एकरसता की ज़िन्दगी से ऊब गए थे, भ्रमण की बात सुनते ही बदलाव के विचार से हम सहर्ष तैयार हो गए और नियत तिथि पर उत्साहपूर्वक लम्बी यात्रा के लिए निकल पड़े।
गाडी हर पड़ाव पर दो दिन रुकती और हम आराम से घूम-फिरकर गाड़ी में ही सोकर रात गुजारते। गाड़ी का अंतिम पड़ाव यही वृन्दावन था। बेटों से प्रतिदिन मोबाइल पर बातचीत होती रहती थी। काम शुरू हो चुका था लेकिन किराए का मकान सुविधाजनक न होने से बड़े बेटे संजय ने हमें कुछ समय यहीं विश्राम करने की बात कही और कहा कि यहाँ हम किसी होटल में ठहर जाएँ, वो कल ही यात्री बस से वहाँ पहुँच जाएगा फिर हमारे रहने की व्यवस्था पर विचार करेंगे। बात ठीक ही थी तो हमने कुछ समय की बात सोचकर सहमति दे दी। अगले दिन देर रात को वो हमारे पास पहुँचा। सुबह होते ही वो होटल से निकल गया और हमारे रहने के लिए एक सरकारी वृद्धाश्रम में फॉर्म भरकर आया। उसके कथनानुसार रहने के अन्य आवास कुछ सुविधाजनक नहीं थे तो कुछ बहुत महँगे थे, प्राइवेट वृद्धाश्रम में भी लाखों रूपए अग्रिम देने के बाद ही प्रवेश मिलता था। हमारे पास और कोई चारा भी नहीं था। सब्र के साथ मन पर पत्थर रखकर हम वहाँ पहुँच गए और बेटा हमें अपना ध्यान रखने को कहकर वापस चला गया।
कुछ दिनों के बाद ही वहाँ की अव्यवस्थाओं से परिचित होते गए, वृद्धाश्रम के कठोर अनुशासन में हमारा दम घुटने लगा था, सुनील कुछ अस्वस्थ महसूस करने लगे थे। घर और बच्चों की याद अलग से सता रही थी। लेकिन पूछने पर बेटों को अपनी तकलीफ कभी नहीं बताई, हमेशा यहाँ सब अच्छा होने की ही बात कही। हमें खर्च के लिए पेंशन का पैसा मिलता ही था, इसलिए हम समय काटने के लिए भोजन के बाद दिन भर घूमने निकल जाते फिर शाम तक लौट आते। दिन गुज़रते रहे और इस तरह ६ महीने निकल गए। बेटों से फोन पर बात होती रहती थी, संजय ने बताया कि मकान का काम पूरा हो चुका है, बस रंग रोगन होते ही वो हमें लेने आ जाएगा। हम बेसब्री से इंतजार करने लगे। तभी अचानक एक दिन सुनील सुबह उठे तो उनके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। डर की छाया स्पष्ट झलक रही थी पूछने पर उसने वही मनहूस सपना पुनः देखने की बात बताई और कहा ज़रूर कुछ अशुभ होने वाला है।
सुनकर मेरा मन भी कुशंकाओं के भँवर में डूबने-उतराने लगा था लेकिन सुनील को मैं कमज़ोर होते नहीं देखना चाहती थी, अतः मैंने हँसते हुए उनको यह वहम मन से निकाल देने के लिये कहा और बताया कि रात में ही संजय का फोन आया था कि वो कल यहाँ पहुँच रहा है। फिर भी सुनील का मन किसी अनहोनी की आशंका से किसी बात में नहीं लग रहा था। जैसे-तैसे वो दिन गुज़रा और दूसरे दिन संजय यहाँ पहुँच गया। उसे देखकर मेरी भी जान में जान आई। उसने हमारा हालचाल पूछा और यह भी कि हमें यहाँ कोई परेशानी तो नहीं? लेकिन लम्बी चौड़ी चर्चा के दौरान उसने हमारी वापसी की बात ही नहीं छेड़ी। मुझे लग रहा था कि वो कुछ ऐसा कहना चाहता है जो कह नहीं पा रहा, आखिर मैंने ही पूछा-
“बेटा, वापसी के लिए कौनसी गाड़ी का आरक्षण है और यहाँ से कब निकलना है?”
सुनते ही उसका मुँह लटक गया और सिर झुकाकर मरी सी आवाज़ में बोलना शुरू किया-
“बात दरअसल यह है माँ, कि आपकी दोनों बहुएँ आपस में लड़-झगड़ कर अलग हो गई हैं और छोटे ने ऊपर वाले मकान में अपनी गृहस्थी जमा ली है। अब हमारे हाथ में कुछ पैसा भी नहीं बचा कि एक कमरा और बाँध सकें। ऊपर नीचे तो दो-दो कमरे ही हैं, समझ में नहीं आता कि आपकी व्यवस्था कहाँ की जाए, अगर आप यहीं रहें तो हम आपको कोई परेशानी नहीं होने देंगे और मिलने ले लिए आते रहेंगे।”
मैं कुछ बोलती उससे पहले ही सुनील उसका आशय समझकर चीख पड़े –
“चले जाओ यहाँ से, तुम्हें हमारे लिए चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं है और फिर कभी अपनी मनहूस शक्ल हमें मत दिखाना…”
मुझे तो जैसे काठ मार गया था, जुबान ही साथ नहीं दे रही थी, कि कुछ कह सकूँ और संजय सिर झुकाकर तुरंत वहाँ से उठकर चला गया।
उसी रात सुनील को दिल का दौरा पड़ा, मेरी चीख पुकार सुनकर वृद्धाश्रम के सब लोग एकत्र हो गए और उन्हें तुरंत चिकित्सालय ले जाया गया। गहन चिकित्सा कक्ष में इलाज शुरू हुआ और दो दिन बाद उन्होंने आँखें खोलीं.”
कहते कहते छाया का कंठ अवरुद्ध होने लगा था। आँखों से अविरल धार बहने लगी थी। ज्योति ने उसे पानी पिलाकर सहारा देकर पलंग पर लिटा दिया और आराम करने की बात कही। कुछ देर बाद सामान्य होकर उसने फिर कहना शुरू किया-
“अब मैं सब कुछ भूलकर दिन-रात उनकी सेवा में जुट गई थी। उन्हें अधिक बोलना मना था। उनका देखा हुआ सपना अब मुझे भी विचलित करने लगा था, फिर भी डर को अपने ऊपर हावी होने न देकर मैं हिम्मत से परिस्थिति का सामना कर रही थी।
धीरे-धीरे सुनील कुछ स्वस्थ हुए तो एक दिन मुझे पास बिठाकर बोले-
“छाया मुझे लगता है, मेरा अन्तकाल निकट है, एक बात तुमसे कहना चाहता हूँ, मेरे बाद तुम खुद को कभी कमज़ोर न होने देना। मेरी मृत्यु की खबर बेटों तक न पहुँचे। मेरा क्रियाकर्म भी इसी देव-भूमि पर हो और तुम भी कभी किसी भी विपरीत स्थिति में वहाँ वापस जाने की बात न सोचना, स्वयं को मजबूत रखते हुए यहीं पर अपने जीवन के शेष दिन बिता देना। तुम्हें वादा करना होगा कि मेरी यह अंतिम इच्छा अवश्य पूरी करोगी। मेरी पेंशन तुम्हें मिलती रहे, इसकी व्यवस्था मैं पहले ही कर चुका हूँ।”
कहते हुए वे बच्चों जैसे फफककर रो पड़े। मेरा दिल स्वयं हाहाकार कर रहा था पर सुनील की ज़िन्दगी के लिए अपने मन के भाव भाव चेहरे पर नहीं आने देकर उनको आश्वस्त कर रही थी कि वे शीघ्र ठीक हो जाएँगे। हम दोनों मिलकर यहाँ ज़िन्दगी गुज़ार लेंगे।
शीघ्र ही उन्होंने वृद्धाश्रम के संचालकों की सहायता से हम दोनों के मोबाइल नंबर भी बदलवाकर बेटों से हमेशा के लिए संपर्क काट दिया।
उसके लगभग दो माह बाद ही उन्हें दूसरा दौरा पड़ा और सब कुछ ख़त्म हो गया। मुझे उनकी अंतिम इच्छा पूरी करनी ही थी, तो सबके समझाने के बावजूद बेटों को खबर नहीं की। पर मेरा मन अब उनके बिना उस आश्रम में नहीं लगा। तुम्हीं बताओ सखी, वहाँ रहना अब कैसे संभव होता? मैंने संचालकों से किसी अन्य आश्रय स्थल पर भेजने की विनती की। इस तरह मैं इस निराश्रित और विधवा महिलाओं के आश्रम में पहुँच गई। मैं तुम्हें कभी नहीं भूली ज्योति, बीते दिनों की बातें और यादें पल-पल सताती रहतीं। सोचा करती कि शायद बेटी को गर्भ-मृत्यु देने का ही दंड हमको मिला है। मूलधन-ब्याजधन के गणित में उलझकर हमने अपना जीवन धन ही दाँव पर लगा दिया।
सुनील का वो खौफनाक सपना आश्चर्यजनक रूप से सच हो गया था। जब तुम यहाँ आईं तो मैं अपनी साथिनों के साथ भिक्षाटन के लिए ही जा रही थी। हम सब आर्थिक अभाव न होते हुए भी शरीर के अंगों को सक्रिय रखने के लिए प्रतिदिन घर घर जाकर भिक्षा माँगती हैं और मिले हुए पैसों से अभावग्रस्त महिलाओं की सहायता करती हैं।
बस ज्योति, यही मेरी कहानी है। मैं अपनी कथा सुनाने के चक्कर में तुमसे पूछना ही भूल गई कि तुम लोग कैसे अपना समय काट रहे हो।”
“हमारी कथा सीधी सी है सखी, बेटियों के ससुराल जाने के बाद मैंने कलम का और जयेश ने समाजसेवा का सहारा लिया। यहाँ भी मैं कहानी की खोज में ही आई थी तो तुमसे मुलाकात हो गई। अब इतना दर्द मेरी कलम किस तरह कागज़ पर उतारेगी? क्या लिखते हुए ये हाथ नहीं कापेंगे?”

“तो तुम अब लेखिका बन गई हो ज्योति…! एक रहस्य आज सिर्फ तुम्हारे सामने खोल रही हूँ कि पहली बार मेरे गर्भ में बेटी थी तो मैंने पुत्र मोह वश अबार्शन करवा लिया था. लगता है, उसी का ही दंड शायद मैं अब भुगत रही हूँ. काश! हमारी भी बेटियाँ होतीं तो हम इस तरह बेघर न हुए होते…!!मेरी कहानी तुम ज़रूर लिखना, साथ ही मेरा यह सन्देश भी समस्त माँ-बहनों को पहुँचाना कि वंश बढ़ाने की चाह में बेटों के मोह में पड़कर बेटियों, यानी अपने ही अंश को गर्भ में ख़त्म करके कुदरत को कुपित करने की भूल कभी न करें…”

-कल्पना रामानी

*कल्पना रामानी

परिचय- नाम-कल्पना रामानी जन्म तिथि-६ जून १९५१ जन्म-स्थान उज्जैन (मध्य प्रदेश) वर्तमान निवास-नवी मुंबई शिक्षा-हाई स्कूल आत्म कथ्य- औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद मेरे साहित्य प्रेम ने निरंतर पढ़ते रहने के अभ्यास में रखा। परिवार की देखभाल के व्यस्त समय से मुक्ति पाकर मेरा साहित्य प्रेम लेखन की ओर मुड़ा और कंप्यूटर से जुड़ने के बाद मेरी काव्य कला को देश विदेश में पहचान और सराहना मिली । मेरी गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि है और रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं। वर्तमान में वेब की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की उप संपादक। प्रकाशित कृतियाँ- नवगीत संग्रह “हौसलों के पंख”।(पूर्णिमा जी द्वारा नवांकुर पुरस्कार व सम्मान प्राप्त) एक गज़ल तथा गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन। ईमेल- kalpanasramani@gmail.com