हास्य व्यंग्य

बूचड़खाना (व्यंग्य)

गाय, एक पालतु प्राणी है। इसका उपयोग भारत में समय-समय पर हिन्दू और ‘मुसलमान के बीच दंगे करवाने के लिए होता आया है। कट्टर हिन्दू, गाय को अपनी माता मानते हैं। उसकी पूजा-अर्चना करते हैं, उसे नैवैद्य खिलाते हैं। ये बात अलग है कि वे अपने माँ-बाप की सेवा नहीं करते किन्तु गोरक्षा उनका प्रधान धर्म होता है। गोरक्षा न करने पर कट्टर हिनदुओं को उनका धर्म नष्ट और भ्रष्ट होने का डर हमेशा बना रहता है। कट्टर मुस्लिम किसी की पूजा नहीं करते- गाय की भी नहीं, माँ की भी नहीं और मातृभूमि की भी नहीं। उनके “वहाँ” वैसा सिस्टम जो नहीं। सिस्टम तो गाय काटने का भी नहीं है,पर काटते हैं। शायद इसे ही “अपना-अपना सिस्टम” कहा जाता है।कट्टर मुस्लिम गाय को माता तो क्या अपनी खाला भी नहीं मानते,बल्कि उसकी खाल खींचकर बिरयानी का स्वागत लेने पर आमादा रहते हैं।
शेर, एक खूंखार और हिंसक पशु है। बेचारा कभीकाल, विवशतावश पेट की आग शांत करने किसी इंसान का शिकार कर लेता है, तो सभ्य-शिष्ट और सदाचारी मानव समाज द्वारा “आदमखोर” की पदवी से सम्मानित किया जाता है। गाय, एक मासूम और अहिंसक प्राणी है, लेकिन अपने कारण हुई हिंसा में सैकड़ों भोले-भाले मनुष्यों को कटवाने का दम रखती है। एक दंगे में कई लोगों को “आदमखोर” बना देती हैं। समझ नहीं आता कौन ज़्यादा आदमखोर है- शेर! गाय!! या आदमी!!! पता चले तो बताइएगा?
गाय काटने का ‘धर्म’ हमारे देश में सदियों से चल रहा है। कबीरबाबा बनारसवासी थे। तब की ‘रमजान-लीला’ पर उन्होंने कहा था-
“दिनभर रोज़ा रखत है, रात हनत हैं गाय।
यह तो खून वो बंदगी, कैसी खुशी खुदाय।।”
बाबा जी साहसी थे। छ: सौ साल पहले के पिछड़े समाज और देश में पैदा हुए थे, पर थे प्रगतिशील। धर्म के नाम पर होने वाली गोहत्या का विरोध डंके की चोट पर करते थे। तब उन्हें किसी ने सांप्रदायिक सा असहिष्णु नहीं कहा। क्या करें,वे प्राचीन भारत में रहते थे और हम ‘ठहरे, मॉडर्न इंडिया’ के बाशिंदे !प्रगतिशील!! सोचिए…?
हिन्दू मान्यता के अनुसार गाय और कुत्ता, दोनों ही मनुष्यों को स्वर्ग तक पहुँचाने के साधन हैं। गाय मरने के बाद पूँछ थमाकर, उसे वैतरणी पार करवाती है और स्वर्ग पहुँचा की है।कुत्ता ,धर्मराज युधिष्ठिर को सशरीर स्वरोहण पर ले गया था। इसलिए पाखंडी,धूर्त और झूठे धर्मराज, कुत्ता अधिक पालते हैं, गाय नहीं पालते।ये बात और है कि वे कितने ही चीरहरणों के समय धर्मराज की तरह मूक दर्शक बने रहते हैं और कालेधन को सफेद करने के लिए जुँआ खेलते रहते हैं। मरने के बाद बिना शरीर के स्वर्ग का क्या मज़ा? जंगल में मोर नाचा! किसने देखा?
गाय और नारी, दोनों ही भोली-शांत और सरल प्राणी है। कभीकाल ही कोई गाय सींग से मारती है या दुलत्ती फटकारती है। ठीक वैसे ही सदियों या युगों में कोई औरत काली- दुर्गा या ‘ लक्ष्मी बाई’ के रूप में अवतरित होती हैं। गाय और नारी, दोनों में ही माँ कहलाने की समानता होती है। दोनों ही अबला और सरल होती है। संभवत: उनकी यही विशेषताएँ एक को “बूचड़खाने” तक जाने और दूसरी को तलाक या बलात्कार का ज़हर पिलाकर मारती है। ये आधुनिक भारत है साहब?
आजकल अंग्रेजी शिक्षा ने सब गड़बड़ कर रखा है। बच्चों को मामूली शब्दों के अर्थ तक नहीं पता रहते। मेरी दसवीं में पढ़ने वाली बेटी के ‘बूचड़खाना’ का अर्थ पूछने पर उसे बताया-” बेटा, बूचड़खाना उस स्थान को कहते हैं, जहाँ मासूम, भोली और निरीह गाय को काटा जाता है।”
उसका अगला प्रश्न सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए-” पापा, मेरी माँ की कोख को आप क्या कहेंगे? जहाँ छ: महीने बाद पैदा होने वाले भ्रूण को आपने उस दिन सिर्फ इसलिए कटवा दिया था , क्योंकि वह भोली थी। मासूम थी। निरीह थी।”
अब मैं निरूत्तर हो गया।

शरद सुनेरी