कहानी

एक था मोनू

बाजार से घर आते हुए एक जाना पहचाना स्वर सुनकर पीछे मुड़कर देखा । आवाज देने वाला कोई और नहीं ‘ मोनू ‘ था ।
मोनू एक दस वर्षीय अनाथ बालक था । अपनी दुकान के बगल में  चाय वाले की दुकान पर ही उसे पहली बार देखा था । मोनू अपना काम बड़ी जिम्मेदारी से और फुर्ती से करता था । चाय वाले को भी उससे कोई शिकायत नहीं थी कि अचानक एक दिन वह गायब हो गया । चायवाले से पुछने पर उसने बताया ” कुछ सिपाही आये थे और मोनू को काम करता देख ‘ बाल श्रम अधिनियम ‘ कानून के तहत गिरफ्तार करने और जुर्माना होने की बात कर रहे थे । बस उसी दिन मैंने उसको काम से हटा दिया था । फोकट में कौन यह सरदर्दी मोल ले ? ”
इस बात को लगभग दो महीने बित चुके थे और आज अचानक उसकी आवाज सुनकर आश्चर्य हुआ था । देखा उस छोटे से मंदिर के सामने मैले कुचैले चिथडेनुमा कपड़े पहने हाथ में कटोरा लिए वह बैठा हुआ था । उसके बगल में रखी बैसाखी देखकर मेरा मन कुछ सशंकित हुआ और फिर जैसे ही मेरी नजर उसके पैरों पर पड़ी कलेजा मुंह को आ गया । घुटने के नीचे उसका बायां पैर ही गायब था । अपने इसी पैर का प्रदर्शन कर अपनी लाचारी दिखाकर वह भीख मांग रहा था । उसकी हालत देखकर उसकी रामकहानी जाने बिना मुझसे रहा न गया और उसे इशारा करते हुए थोड़ी दूर स्थित चाय की दुकान पर आ गया । सड़क पर लगी खाली बेंच पर बैठते हुए चाय वाले से चाय लाने को कहकर मैं मोनू का इंतजार करने लगा । थोड़ी ही देर में वह भी बैसाखी के सहारे वहां पहुंच गया और मेज के किनारे खड़ा हो गया । बेंच पर बैठने में उसकी झिझक को देखते हुए मैंने उसे हाथ पकड़कर अपने बगल में ही बिठा लिया और चाय की गिलास उसके सामने सरका दी । चाय की चुस्कियों के बीच उसकी रामकहानी का सिलसिला शुरू हो गया जो उसीके शब्दों में लिखने की कोशिश कर रहा हूँ ।
” उस दिन पुलिस वाले द्वारा डांट पड़ने पर मेरा चाय वाला शेठ डर गया था । उनके जाने के बाद उसने मुझे पांच सौ रुपये जो मेरे पगार के उसके पास जमा थे देते हुए मुझे काम से निकाल दिया । मैं बहुत गिड़गिड़ाया था लेकिन शेठ ने मुझे फिर से काम पर नहीं रखा । आस पास की सभी दुकानों पर पुछा लेकिन मुझे कहीं काम नहीं मिला । एक फलों के थोक विक्रेता ने रहम खाकर एक टोकरी में कुछ केले मुझे दिए और बेच कर लाने के लिए कहा । पहले ही दिन टोकरी का सारा केला मैंने बेच दिया और उस व्यपारी ने अपने केले का दाम लेकर लेकर मुझे दो सौ रुपये का मुनाफा दे दिया । मैं बहुत खुश था । अब मुझे धंदे की समझ आ गयी थी । कुछ ही दिन बाद उस थोक विक्रेता ने अपने पास से मुझे एक ठेला दे दिया । मेरे पास जो भी रकम थी वह सब देने के बाद भी अभी उसे दो हजार रुपये और देने थे लेकिन कुछ पैसे कमा कर मेरे अंदर नए उत्साह और चैतन्य का संचार हो चुका था । इसके कुछ ही दिन बाद शहर के मुख्य सड़क पर अपने ठेले पर केले बेचने के लिए हांक लगा रहा था कि आसपास बैठे हुए सभी रेहड़ी ,ठेले वाले अपना अपना सामान लेकर गलियों की तरफ भागने लगे । अभी मैं कुछ समझ पाता कि तभी नगरपालिका की नीली गाड़ी से कुछ लोग आए और मेरा ठेला उठाकर उस गाड़ी में लाद दिए । मेरे लाख विनती करने और पैरों पर गिरने के बाद भी उन लोगों ने मेरी एक न सुनी और उस दिन मेरा सब कुछ बर्बाद हो गया । उसी दिन मैंने तीन हजार का केला उधार ही खरीदा था जो नगरपालिका वाले ठेले सहित उठा ले गए थे । मैं क्या मुंह दिखाता उस व्यापारी को ? वहीं सड़क पर बैठा रोता रहा । वहीं पर बैठकर रोते रोते शाम होने के बाद अंधेरा घिर आया लेकिन डर के मारे मैं वहीं बैठा रहा । लोगों की भीड़भाड़ कम हो गयी थी और रात गहराते ही मैं वहीं फ़ूटपाथ पर ही सो गया । किसी के पैर की ठोकर से मेरी नींद खुल गयी । देखा वह एक मदहोश शराबी था । बड़बड़ाते हुए वह तो झूमते झामते अपनी राह चले गया लेकिन अब मेरी नींद खुल चुकी थी । खाने को कुछ मिल जाये इसी आस में भटकते हुए इसी मंदिर के पास आ गया । मंदिर का पुजारी बचा खुचा प्रसाद गायों को खिलाने जा रहा था कि उससे विनती करके मैंने थोड़ा प्रसाद ले लिया और अपनी भूख शांत की । कुछ देर वहीं मंदिर के सामने ही बैठ गया और ऊँघने लगा । वहीं फ़ूटपाथ पर बैठा हुआ एक आदमी न जाने कब से मेरी गतिविधियों को देख रहा था । वह,उठकर मेरे पास आया और प्यार से मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछा ” भूखे हो ? ‘
मैंने हाँ में गर्दन हिलाई । उसने फिर पूछा ” अनाथ हो ? ” मैंने फिरसे हामी भर दी ।
उसने कहा ” अगर अच्छी जिंदगी चाहते हो तो आओ मेरे साथ । ”
क्या करता ? अच्छी जिंदगी की चाह किसे नहीं होती ? उसके पीछे पीछे चल दिया ।
लगभग आधा घंटा चलने के बाद मैं उस आदमी के साथ शहर की सीमा पर ही बने एक बड़े से कच्चे घर में था । वहां मेरी ही तरह कई बच्चे थे जो एक कमरे में बिछी चटाई पर लुढके हुए थे । मुझे भी नींद आ रही थी और सोना चाहता था लेकिन उस आदमी ने एक थाली में चावल और दाल लाकर मुझे खाने के लिए कहा । उस आदमी का दिया भोजन करके मैं उसके प्रति कृतज्ञ हो उठा था । उसे धन्यवाद कहकर मैं चटाई पर लुढके हुए उन बच्चों के बीच ही लुढ़क गया । सुबह देर से नींद खुली । वह आदमी सामने ही दूसरे कमरे में बैठा मिला । उसने ईशारे से मुझे पास बुलाया और प्रेम से सामने पड़ी कुर्सी पर बिठाकर पुछा ” अब क्या करने का इरादा है ? ”
मैं क्या जवाब देता ? अपनी पुरी रामकहानी उसे सुना दी । सुनकर वह बोला ” बेटे ! तुम अभी बहुत छोटे हो और यह दुनिया बड़ी जालिम ! लोग यूँही किसीको कुछ नहीं दे देते । तुम अनुभव कर ही चुके हो । तुम चाह कर भी ईमानदारी का काम नहीं कर सकते क्योंकि सारे नियम कानून सिर्फ हम गरीबों के लिए ही बने हैं । रईसों के तो ठोकरों में रहते हैं ये नियम , ये कानून । नहीं यकीन है तो खुद को देख लो चूंकि तुम गरीब हो तुम्हें काम भी नहीं करने दिया गया जबकि फिल्मों में तो पैदा होने के तुरंत बाद वाला बच्चा भी काम कर लेता है । समझे ? ”
उसकी बात सुनकर मैं उससे प्रभावित हो गया था । अतः बोला ” तो तुम ही बताओ मुझे क्या करना चाहिए ? ”
तपाक से वह बोला ” वही ! जो मेरे पास सारे बच्चे करते हैं । भीख मांगना । ”
सुनते ही मैं चीत्कार कर उठा ” नहीं ! ”
” कोई जबरदस्ती नहीं है । लेकिन एक बात समझ लो यहां से निकलने के बाद तुम भीख भी नहीं मांग सकोगे क्योंकि भीख मांगने के सारे अड्डे पहले ही बुक हो चुके हैं । ” उसने एक राज की बात बताई थी । ” यहां रहते हुए अगर तुम पूरे शहर में कहीं भी भीख मांगोगे तो किसी भी लफड़े से या पुलिस से मैं यानी यह ‘ विजू दादा ‘ तुम्हें साफ बचा लेगा और मुझे बदले में क्या चाहिए ? मुझे बदले में चाहिए तुम जो भी कमा कर लाओगे उसमें से एक हिस्सा । दो हिस्से फिर भी तुम्हारे पास ही रहेंगे । ”
मैं सिसक उठा था । भीख मांगने की सोच कर ही मुझे घिन्न आने लगी थी । उससे माफी मांग कर मैं उस घर से निकला और शहर की तरफ दौड़ पड़ा । सोचा था जाकर फिर से कोई धंधा कर लूंगा लेकिन तभी उस व्यापारी का  चेहरा नजरों के सामने घूम गया जिसके पैसे मेरे ऊपर बाकी थे । डरते डरते मैं वहीं जा पहुंचा जहां ठेला खड़ा करता था । एक दुसरा लड़का जो कि उसी व्यपारी से केला लेकर बेचता था मिल गया । मुझे देखते ही उसने बताया  वह सेेठ मेरे ऊपर बहुत नाराज था और मुझे ढूंढ रहा था ।
डर के मारे मेरी घिग्घी बंध गयी थी । और अगले कुछ ही समय बाद मैं उसी पुराने से घर में उसी आदमी के सामने सिर झुकाए खड़ा था । मेरे सामने और कोई चारा भी नहीं था
थोड़ी देर बाद वह आदमी जो खुद को विजू दादा बता रहा था अपने हाथों से मेरा मेकअप करने लगा । घर में ही पड़ा हुआ पुराना चिथड़ा नुमा कमीज पहना कर हाथों व पैरों पर मिट्टी सना हुआ हाथ घुमाकर मुझे बिल्कुल मैला कुचैला भिखारी उसने बना दिया था । खुद को आईने में देखकर मैं खुद को ही नहीं पहचान पाया । कुछ जरूरी जानकारी देकर उसने मुझे यहां इस मंदिर पर भेज दिया । अब मैं उस व्यपारी की तरफ से निश्चिंत था और कुछ ही दिनों में इस नए धंधे में रम गया । विजू दादा का बर्ताव भी मेरे प्रति अच्छा ही था ।

एक दिन मैं भोजन करके रात में सोया और जब मेरी नींद खुली मैंने अपने आपको एक बेड पर पड़े पाया । मेरी एक टांग काट दी गयी थी ,यह समझने में मुझे देर नहीं लगी । मैं बहुत रोया , चीखा ,चिल्लाया लेकिन अब क्या हो सकता था ?
सामने वही आदमी विजू दादा बैठा हुआ था । थोड़ी देर रो लेने के बाद वह मेरे पास आया ” मैं देख रहा था धीरे धीरे तुम्हारी कमाई कम होती जा रही थी । अब तुम्हारी कमाई दुगुनी हो जाएगी । जो हुआ उसे भूल जाओ और आगे का ध्यान दो । ”
वाकई ! अब मेरे पास और कोई चारा भी नहीं था । सचमुच अब मेरी कमाई दुगुनी हो गयी है । लेकिन साहब ! वाकई क्या कानून हम जैसे गरीबों के लिए ही है ? एक गरीब नाबालिग लड़का अगर मेहनत करके ईमानदारी से अपना पेट भरना चाहे तो वह जुर्म हो जाता है जबकि अमीरों के बेटे किसी टी वी शो के लिए कड़ी मेहनत करे तो उसे तालियां और सम्मान के साथ ही ढेर सारा पैसा मिलता है । ये दोगला कानून क्यों ? अमीरों के लिए कोई कानून नहीं ? पता नहीं वो दिन कब आएगा जब हम जैसे गरीबों को ध्यान में रखकर भी कानून बनाया जाएगा ? कानून लोगों के लिए है या लोग कानून के लिए ? आज अगर कानून की ये बेड़ियां नहीं होतीं तो मैं भी सम्मान पूर्वक मेहनत करके कमाकर खा रहा होता । सरकार तो गरीबों को सड़क पर अपना पेट भरने की भी इजाजत नहीं देती । हमारे जैसे कुछ लोग खुद्दारी से पेट भरने की जुगत लगाते हैं तो सरकार का रास्ता बाधित होता है जबकि ये पैसेवाले अपनी बड़ी बड़ी गाड़ियां कहीं भी खड़ी कर देते हैं तब इनका रास्ता बाधित नहीं होता । मेरी और मेरे जैसे हजारों मेहनत कश बच्चों के सुनहरे भविष्य का कत्ल करने के लिए जिम्मेदार हैं ये दोगले कानून । क्या आप कुछ कर पाएंगे कि फिर कोई मोनू भीख मांगने के लिए मजबूर न हो ? ”
कहकर वह खामोशी से खड़ा हो गया । उसकी बात सुनकर मन द्रवित हो गया था लेकिन उसके सवालों का जवाब मेरे पास भी नहीं था अतः दस रुपये का एक नोट जबरदस्ती उसके हाथ में ठूंसकर और चायवाले का पैसा देकर मैं जल्दी में होने का बहाना बनाकर अपने घर की तरफ चल पड़ा ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

6 thoughts on “एक था मोनू

  • हक़ीक़त के वही कड़वे सवाल जिनका शायद कोई जवाब नहीं है.
    इसी का नाम ज़िन्दगी है यही नियति है…फिर एक बार बेहतरीन कहानी बेहतरीन अंदाज़ वही कसी हुई कलम.
    बोहोत उम्दा राजकुमार जी,
    में भी ऐसे ही एक मोनू से मिल चुका हूँ ,एक शेर भी लिखा था उसके लिए….मुलायज़ा हो….

    जुबां की चोट का निशान कहाँ देखा है
    मेरी ग़ज़ल ये उनवान कहाँ देखा है

    मेरे कंधों का फ़क़त बोझ दिखा है उसको
    मेरी आँखों का ये अरमान कहाँ देख है

    • राजकुमार कांदु

      प्रिय अंकित जी !आपको कहानी पसंद आई जानकर खुशी हुई । कुछ बेहतर करने का सरकार का प्रयास भी मोनू जैसे लोगों के लिए नुकसानदेह हो जाता है यही दिखाने का प्रयास था । ऐसे मोनुओं की संख्या समाज में बहुतायत में है और आप भी ऐसे ही एक मोनू से मिल चुके हैं । इसी विषय पर लिखा आपका शेर बहुत ही उम्दा और नायाब है । अति सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद ।

  • लीला तिवानी

    प्रिय राजकुमार भाई जी, अत्यंत भावभीनी कहानी पढ़कर आंखें नम हो गईं. आपने दोगले कानूनों की असलियत को बेनकाब कर दिया है. अत्यंत सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका आभार.

    • राजकुमार कांदु

      आदरणीय बहनजी ! आपने कहानी पढ़ी और सराही यह मेरे लिए बहुत बड़ा इनाम है । बाल मजदूर को कानूनन बंद किया जाना कई गरीब परिवारों की आजीविका पर असर डालता है । अपने समाज में भिन्न भिन्न तबके के लोगों की प्राथमिकताएं भी भिन्न भिन्न होती हैं । सरकार को इसका कोई इल्म नहीं है और सबको सर्वशिक्षा अभियान में शामिल करने के चक्कर में जिसकी प्राथमिकता दो वक्त की रोटी है उनको शिक्षा का डोज दिया जा रहा है ।
      बेहद सुंदर प्रतिक्रिया द्वारा आशीर्वाद के लिए धन्यवाद ।

  • रविन्दर सूदन

    प्रिय राजकुमार भाई साहब जी,
    एक दर्दनाक सच्चाई । हमारे देश में विजु दादा ही सफल व्यक्ति है । जब एक क़ानून बनता है तो अपने देश के हालात अनुसार उसके बाद के परिणामों को नहीं देखा जाता । क़ानून का सबसे ज्यादा फायदा उठाते हैं उसे लागू करने वाले । उस क़ानून का हवाला देकर
    उनकी तो पौ बारह हो जाती है । जिनके लिए क़ानून बनता है वो और दुखी हो
    जाते हैं । अब रेलवे में और भर्ती की बात हो रही है, पहले जो भर्ती है उनसे
    तो पूरे समय काम नहीं ले सकते । कर्मचारी बढ़ने से काम नहीं होता , काम होता है काम करने से । भ्रष्टाचार क़ानून बनाने से नहीं क़ानून का पालन करने से होता है ।

    • राजकुमार कांदु

      आदरणीय रविंदर भाई जी ! आपने बिल्कुल सही फरमाया है कानून का सबसे ज्यादा फायदा उठाते हैं उसका पालन कराने वाले । ये कोई छिपी बात नहीं है कि पैसे के दम पर ही पैसेवाले बिना टिकट यात्रा करने की जोखिम उठाते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि चेक करनेवाला आखिर उसे छोड़ ही देगा कुछ ले देकर या फिर ज्यादा से ज्यादा जुर्माना ही तो करेगा । जबकि कोई गरीब यदि मजबूरी में टिकट नहीं निकालता तो उसकी जगह हवालात में होती है । गरीबी अपने आप में ही एक अभिशाप है जिससे दुर्भाग्यवश हमारी आधी के लगभग आबादी पीड़ित है । कहानी आपको अच्छी लगी जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई । बेहद सुंदर , सार्थक व उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से अभिनंदन व धन्यवाद ।

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