कविता

स्वप्न

एक स्वप्न
अंतहीन मृगतृष्णा की
जीवन से परे की दुनिया
रौशनी का नामोनिशां नहीं
चहुंओर, वर्चस्व है अँधेरे का….

भागना चाहता है मन
तत्पर कदम मुड़े पीछे की ओर
पर निकलूं किधर से?
कोई रास्ता नजर नहीं आता
हर ओर पसरा सन्नाटा
जो निरन्तर ले रही थी
मुझे अपने आगोश में…..

व्याकुलता बढ़ती गई
करने लगी, मेरे सांसों पे वार
पर एक उम्मीद जीने की मेरी
भरती रही मुझमें
दीपक की लौ की भांति
जिंदगी की आस….

लड़ती रही मैं
उस भयभीत मंजर से
अंतिम क्षण तक
तब तक….जब तक
चीर न डालूं मैं
अँधेरे का सीना और बिखेर न दूँ
हर ओर उजाला…..

हाँ ! लौटना ही होगा मुझे
मेरी दुनिया में
मन ने कहा – जहाँ पर्वत, नदियां;
पहाड़, झरने, धरती, आकाश
और मेरा प्यार….. कर रहा है इंतजार मेरा…..

तभी ! अचानक टूटी मेरी नींद
देखा चारों ओर बदहवास
आई एक आवाज धीरे से
शायद अंतरात्मा की…..

स्वप्नों का क्या है?
नींद से गहरा वास्ता है केवल….
जिंदगी अभी बाकी है

*बबली सिन्हा

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