कविता

बचपन

मोबाइल में उलझा हुआ बचपन
गांव की गलियों को याद नहीं करता
अकेले रहना पसंद करते हैं आजकल
उन बूढी दीवारों से कोई बात नहीं करता

वह झुर्रियों के बीच आंखें
आशीर्वाद देने को बहुत कुछ कहती हैं
फटे फटे कपड़े पहनते हैं लड़के आजकल
वह धोती तो यूं ही खूंटी पर टांगी रहती है

खेलते-खेलते लुकम छिपाई
गुडिया अब जा कर थक गई है
जिससे गुजरता था हमारा सारा दिन
उस गिल्ली-डंडा पर अब दीमक लग गई है

जो थे थोड़े से सांवले
समय की मार से काले हो गए हैं
परवीन भी बैठा रहता है किताबों में छुपा
बाकी जो बचे सारे पैसे वाले हो गए हैं

 

प्रवीण माटी

नाम -प्रवीण माटी गाँव- नौरंगाबाद डाकघर-बामला,भिवानी 127021 हरियाणा मकान नं-100 9873845733