लघुकथा

बड़ा घर

किशनलाल अपने बेटे मगन लाल व बहू के साथ नया घर देखने के लिए आया हुआ था । घर दिखाने के लिए आये हुए दलाल ने घर की तारीफ की ” देखो ! कितना बड़ा हॉल है । ये किचन भी काफी बड़ा है ।  और यह बैडरूम भी काफी बड़ा है । आपके लिए बहुत बढ़िया सौदा है ये । प्रकाश , पानी की कोई कमी नहीं है । अच्छे लोग और अच्छी सोसाइटी है । ” कहने के बाद उसने मगन लाल और किशनलाल की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखा ।
मगनलाल कुछ बोलता उसके पहले ही बहू बोल पड़ी ” ऐसा है भैया ! यह एक ही बेडरूम है और मेरा बेटा पांच साल का हो गया है । हम नहीं चाहते कि वह भी वही सब भुगते जो हमने अपने बचपन में भुगते हैं । मुझे तो कोई और इससे बड़ा घर दिखाओ । “
और बहू की बातें सुनकर किशनलाल की आंखों के सामने आज से पच्चीस साल पहले का दृश्य घूम गया जब मिल की तरफ से मिली दस बाइ दस की कोठरी में ही वह अपनी पत्नी और उसके भाई के साथ ही मगनलाल के साथ भी बड़े सुख से रहता था । जगह की कभी कोई कमी महसूस नहीं हुई थी ।
‘ तब लोगों के घर छोटे होते थे लेकिन दिल कितना बड़ा होता था । खुद अभावों में रहकर भी दूसरों की मदद करके खुश होते थे और अब …..घर बड़े और दिल छोटे होते जा रहे हैं । ‘

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।