लाल रंग
ख़ाली कैनवास पर उभरी हैं
आड़ी तिरछी घुमावदार आकृतियाँ
कमरे में फैली है
लिनसिड ऑयल की ख़ुश्बू
पैलेट पर कुछ सूखे खुरदुरे रंग
और ये कुछ बिखरी हुई कूचीयाँ
पीले मौसम के खुश रंग पत्तों की सरसराहट
और तुमसे जुड़ी हर एक बात
तुमने एक बार कहा था
तुम्हें लाल रंग बहुत पसंद है
समेट लिया ख़ुद को तब से लाल रंग में
ये मेरे कमरे की लालिमा
तुम्हारी आग़ोश का एहसास कराती है
डूब जाती हूँ तुममें जब होती हूँ तन्हा
अपनी दुनिया में
तुम भी तो बिना दस्तक चले आते हो
चीरते हुए मेरे तस्सवुर की दीवार
अब आ ही गए हो तो…
रुक जाना कुछ दिन इन अनछुए लम्हों में
ये तुम्हारे मेरे रंग मिलकर
कोई इंद्रधनुष बना लें शायद…!
— चारु अग्रवाल “गुंजन”