ग़ज़ल
रुके रुके से कदम मुड़ गये बढ़ा न सके
तमाम कोशिशें की पर उन्हें भुला न सके।।
कभी तो मुड़ के जरा देख लो मेरी जानिब
तुम्हारी सिम्त से अब तक पलक गिरा न सके।।
कहाँ कहाँ से है चटका ये दिल मेरा देखो
सिये हैं जख़्म कई पर तुम्हें दिखा न सके।।
हुआ जहान में रुसवा तू ख़ामख़ा ऐ दिल
कि तल्खियों से कभी फिर निजात पा न सके।।
उठीं हैं कितनी दफ़ा रात ये अकेले में
सुना के लोरी कभी इसको हम सुला न सके।।
मुझे वो भूल गया फिर भी याद आता है
कि नक़्श उसका कोई दिल से हम मिटा न सके।।
वजूद बिखरा पड़ा था यहीं कहीं “गुंजन”
समेट खुद न सके औ तुम्हें बुला न सके।।
— चारु अग्रवाल “गुंजन”