लघुकथा

आत्मज्ञान

उसने सुन रखा था-

”जब एक सच्चिदानंद स्वरूप सदगुरु व श्रद्धावान शिष्य का समन्वय होता है तो बेजोड़ ज्ञान का उदय होता है.”

समस्या यह थी, कि ऐसा सच्चिदानंद स्वरूप सदगुरु कहां मिले? साथ ही उस जैसे मगध साम्राज्य में आतंक का पर्याय बन चुके अंगुलिमाल राक्षस का श्रद्धावान बनना कहां और कैसे सम्भव होता? फिर आत्मज्ञान की प्राप्ति कैसे होती?

गौतम बुद्ध जैसे सच्चिदानंद स्वरूप सदगुरु के पास अंगुलिमाल का आना ही आत्मज्ञान के लिए काफी था. सच्चिदानंद स्वरूप गुरु को लोगों के हृदय परिवर्तन के लिए ज्यादा उपदेश नहीं देने पड़ते. उसकी उपस्थिति मात्र से व्यक्तित्व का रूपांतरण हो जाता है. उसकी छोटी सी प्रेरणा हृदय परिवर्तन करने में सक्षम होती है.

अंगुलिमाल से गौतम बुद्ध ने कहा, ‘पेड़ की शाखा से तोड़े गए दस पत्तों को तुम यथास्थिति में वापस नहीं जोड़ सकते, फिर भी अपने आपको ताकवर समझते हो! निर्दोष लोगों की हत्याएं करके अपने आपको बलशाली मानते हो!’ इतना सुनते ही अंगुलिमाल के हाथ से तलवार छूटकर जमीन पर गिर पड़ी. यही वह अनोखा क्षण था जब अंगुलिमाल के हृदय का रूपांतरण हुआ. आध्यात्मिक मार्ग हो या सांसारिक जीवन, सदगुरु की कृपा से प्रगति सुनिश्चित है.

इसी आत्मज्ञान ने अंगुलिमाल को आत्मज्ञानी बना दिया.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “आत्मज्ञान

  • लीला तिवानी

    वैशाख पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा भी कहते हैं। यह गौतम बुद्ध की जयंती है और उनका निर्वाण दिवस भी। इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। आज बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व में 50 करोड़ से अधिक लोग इस दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए बुद्ध विष्णु के नौवें अवतार हैं। अतः हिन्दुओं के लिए भी यह दिन पवित्र माना जाता है।

    इसी कारण बिहार स्थित बोधगया नामक स्थान हिन्दू व बौद्ध धर्मावलंबियों के पवित्र तीर्थ स्थान हैं। गृहत्याग के पश्चात सिद्धार्थ सात वर्षों तक वन में भटकते रहे। यहाँ उन्होंने कठोर तप किया और अंततः वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें बुद्धत्व ज्ञान की प्राप्ति हुई। तभी से यह दिन बुद्ध पूर्णिमा के रूप में जाना जाता है।

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