कहानी

आखिरी कहानी (भाग 5/5)

अध्याय 5 : आखिरी कहानी
निरंजन को अब अपने संकलन के लिए आखिरी कहानी की तलाश थी। कथामहोत्सव का समय जैसे-जैसे पास आता जा रहा था और वह वैसे-वैसे व्यग्र होता जा रहा था। उसे किसी ऐसे विषय की तलाश थी जो अद्‌भुत हो, अद्वितीय हो। मगर वह जितना बेचैन था, उसे उतना कम सूझ रहा था। जितनी व्याकुलता से वह विषय ढूँढ रहा था, विषय उससे उतना ही दूर भाग रहा था।

वह कुछ ऐसा लिखना चाहता था जो किसी गूढ़ रहस्य को उद्घाटित करता है, जिसके बारे में जानने के लिए लोग उत्सुक हों। मगर सब विषयों पर व्यापक स्तर पर जानकारी उपलब्ध थी। उसे खुद उत्सुकता थी कि लोगों को किस बात के बारे में जानने की उत्सुकता हो सकती है। उसने भीड़ भरी जगहों में जाना शुरु कर दिया। बसों-ट्रेनों-रेस्तराओं में वह कान लगाकर सुनने लगा कि क्या ऐसा है जो बहुत दिलचस्प हो।

एक दिन इसी क्रम में वह एक रेस्तराँ में अपने कान-आँख खोले बैठा था कि बगल वाली सीट पर बैठे दो युवकों की बातचीत ने उसका ध्यान खींचा।

“पुनर्जन्म पर विश्वास करते हो?”

“नहीं।“

निरंजन ने कनखियों से देखा। दो लड़के टी-शर्ट और टाइट जींस में कटिंग चाय पीते हुए टाइम काट रहे थे।

“क्यों?”

“क्या पता मरने के बाद क्या होता है? किसने देखा है?”

“अगर किसी ने देखा हो तो?”

“कौन देख सकता है? मरकर कोई ज़िंदा हुआ हो तो देख सकता है। भला मरकर कोई ज़िंदा हुआ है जो देख सके?”

“हम्म”

“लेकिन तू क्यों पूछ रहा है?”

“बस ऐसे ही। लोग जीते जी मौत से डरते रहते हैं और मौत है कि किसी ने देखी नहीं।“

निरंजन के दिमाग में बात घूम गई कि मौत है कि किसी ने देखी नहीं। उस कॉफी टेबल पर बैठा वह काफी देर तक यही सोचता रहा कि क्या कोई है जिसने मौत देखी हो और फिर भी बयां करने के लिए ज़िंदा हो।

इस उधेड़-बुन में उसे बड़े दिनों बाद सिगरेट की ज़ोरदार तलब लगी। उसने रेस्तराँ में चारों ओर देखा। ‘नो स्मोकिंग’ के बड़े – बड़े पोस्टर चारों ओर चिपकाए हुए थे। यहाँ तो सिगरेट मिलने से रही।

निरंजन रेस्तराँ से निकल गया और पनवाड़ी की दुकान ढूँढ़ने लगा। शुक्र है कि आज इतने बड़े-बड़े होटलों के ज़माने में भी इन टिन की गुमटियों का लोप नहीं हुआ है। निरंजन को ज़्यादा दूर नहीं जाना पड़ा। छोटी-बड़ी कई दुकानों के बीचों-बीच बाहर की ओर निकले हुए एक पान की दुकान पर वह जा पहुँचा।

दोपहर का समय था और ग्राहकों की संख्या शून्य थी। पनवाड़ी अपनी बित्ते-भर की दुकान में रखे बित्ते-भर की टी.वी. में खोया हुआ था। निरंजन उसका ध्यान भंग करने ही जा रहा था कि उसे उत्सुकता हुई कि यह आखिर इतनी तल्लीनता से क्या देख रहा है। उसकी नज़र टी.वी. पर पड़ी।

टी.वी. में मशहूर फिल्म ‘कुली’ का वह फाइटिंग सीन चल रहा था जिसने अमिताभ बच्चन की जान खतरे में डाल दी थी। वह सीन कुछ पल के लिए रुका और स्क्रीन पर कुछ लिखा हुआ आया। उतनी छोटी सी टी.वी. में निरंजन यह तो नहीं देख सका कि क्या लिखा है मगर वह जानता ज़रूर था। उसने कई बार देखी है यह फिल्म।

लेकिन इस समय तो उसे केवल यही सूझा कि अमिताभ बच्चन भी कुछ समय के लिए क्लिनिकली डेड घोषित थे। क्या हुआ होगा तब? क्या महसूस किया होगा? कौन बताएगा? अमिताभ जैसी हस्ती तो मिलने से रही। मगर कोई न कोई तो होगा जिसने यही सब झेला होगा। कौन होगा? वही कोई जो हॉस्पिटल से मरने की बजाय जीकर लौटा हो।

निरंजन अपने ख्यालों में खोया हुआ था कि पनवाड़ी की नज़र उस पर पड़ी।

“बोलिए साहब क्या दूँ? पान दूँ? ऐसा जर्दा डालकर खिलाऊँगा कि मरा हुआ भी जी उठे और वाह-वाह करे।“

निरंजन ने व्यंगात्मक मुस्कान के साथ कहा –“भला मरा हुआ भी कभी जी सकता है जो तुम्हारे पान की वाह-वाह करे। खैर! वो वाली सिगरेट का पूरा एक पैक देना ज़रा।“

पनवाड़ी ने सिगरेट का पैकेट उतारकर देते हुए कहा –“नहीं साहब! मरा हुआ आदमी थोड़े न लौट सकता है। मगर …”

निरंजन को इस “मगर” ने बाँध लिया।

“मगर? मगर…क्या?”

“मगर साहेब, मेरा एक दोस्त है। पीछे वाली रोड पर जो बड़ा सा अस्पताल है उसमें अटेंडेंट का काम करता है। कभी-कभी वहाँ के मुर्दाघर में भी उसकी ड्यूटी लगती है। बताता है कि उसने कभी-कभी लोगों को मरकर जीते देखा।“

“अच्छा! भला वो कैसे?”

“साहब! अजब किस्से सुनाता है। कहता है एक औरत के ऊपर से साँस लेनेवाली मशीन होती है न वो…क्या तो कहते हैं न वो..”

“वेंटिलेटर”

“हाँ, हाँ, वही। डॉक्टरों ने हटा दिया। कहा मर गई, मुर्दाघर ले जाना था। अभी 10-15 मिनट हुए कि दोस्त उसे ले जा रहा था तो हाथ हिलने लगा। मेरा दोस्त तो डर के मारे डॉक्टर के पास भागा और इधर वो औरत उठकर बैठ गई। अब इसको क्या कहोगे साहब्। मरकर जी जाना नहीं तो फिर और क्या?“

“अच्छा। ऐसा भी होता है।“

“यह तो कुछ भी नहीं साहब। वह तो बताता है कि कभी-कभी मुर्दाघर में रखे लोग उठकर बैठ जाते हैं। मेरा दोस्त कहता है कि अब तो उसे मुर्दाघर में ड्यूटी करने में बड़ा डर लगता है। पता नहीं कौन कब जिंदा हो जाए?“

निरंजन को दिल्लगी सूझी।

“अच्छा तो वही लोग तुम्हारा पान खाकर वाह-वाह किए थे क्या?“

पनवाड़ी ने मुँह बना लिया कि इतनी गंभीर बात को यह आदमी मज़ाक समझता है।

निरंजन ने सिगरेट के पैसे सामने रखे और चलने को हुआ कि एक ख्याल से वह ठिठक गया।

वापस मुड़कर निरंजन ने उस खीझे हुए पनवाड़ी की लगभग चिरौरी करते हुए कहा।

“भाई अपने उस दोस्त से मिलवा सकते हो?”

पनवाड़ी ने भवें टेढ़ीकर पूछा “भला वो क्यों? क्या करेंगे उससे मिलके?”

निरंजन ने ज़रा समझ-बूझ से पनवाड़ी को फँसाने की सोची। ऐसे तो यह बताएगा नहीं लेकिन अगर बात इसके आन-बान-शान की हो तो ज़रूर मदद करेगा।

“अगर उसके मुँह से ये सारी बातें सुनूँगा तो ज़रूर यक़ीन कर लूँगा।“

“ये बात है तो अभी बुलाए देता हूँ।“

अपनी बात को सच्चा साबित करने की पनवाड़ी को ऐसी लगन लगी कि उसने तुरंत अपने उस साथी को फोन लगाया और अपनी दुकान पर ही बुला लिया। उसका साथी दिनेश भी हड़बड़ाता हुआ दुकान पर यह सोचकर दौड़ा आया कि जाने क्या आपदा आन पड़ी। मगर आकर देखा तो यहाँ माजरा ही कुछ और था।

बातों-बातों में निरंजन ने दिनेश से पूछा कि क्या वह उसे उन लोगों से मिलवा सकता है जिनके साथ वे हादसे हुए थे। भला दिनेश को बेमतलब का काम करने की क्या पड़ी थी। उसने साफ़ मना कर दिया। मगर निरंजन को तो किसी कीमत पर अपनी आख़िरी कहानी चाहिए ही थी। सो उसे पैसों का प्रलोभन दे काम के लिए मना लिया।

पैसे देखकर दिनेश मदद के लिऐ तैयार तो हो गया मगर उन लोगों में से वह किसी को व्यक्तिगत तौर पर जानता थोड़े न था जो तुरंत मिलवा देता। सो इतना ही कर सकता था कि हॉस्पिटल के रिकार्ड से उसे उन लोगों के पते ला कर दे सके।

पहले तो निरंजन को लगा कि किसी एक से भी बात कर लेगा तो उसका काम हो जाएगा इसलिए एक पते के लिए पाँच सौ रुपए कीमत तय हुई। दिनेश ने पाँच सौ रुपए लिए और अस्पताल जाकर निरंजन को फोन किया और तुरंत एक पता नोट करवाया।

निरंजन कोई बड़ी फिल्म का प्रोड्यूसर तो था नहीं जिसके पास करोड़ों रुपए हों और एक बड़ी रिसर्च टीम हो। निरंजन के पास समय और पैसे दोनों की कमी थी। इन बचे हुए पैसों और समय से ही उसे अपनी आखिरी कहानी खोज लानी थी।

तो वह फटाफट दिए गए पते पर जा पहुँचा। आने-जाने में भी उसके बहुत पैसे खर्च हो रहे थे। मगर वह क्या करता?

पता तो सही था मगर वह आदमी अब वहाँ नहीं रहता था जिसका पता लेकर निरंजन निकला था और वहाँ किसी को पता भी नहीं कि वह आदमी उस मकान को छोड़कर कहाँ गया। निरंजन खाली हाथ लौट आया।

निराश हो उसने फिर दिनेश से संपर्क किया और इस बार पंद्रह सौ रुपए देकर तीन पते निकलवाए। ताकि एक नहीं तो दूसरा सही और दूसरा नहीं तो कम से कम तीसरा ही काम का निकल आए।

मगर निरंजन का वार इस बार भी खाली गया। पहले और आखिरी पते तो फर्जी निकल आए और दूसरे पते पर रहनेवाले व्यक्ति से मिलने के लिए अब दूसरे लोक की यात्रा करनी पड़ेगी जो निरंजन के लिए संभव नहीं थी।

निरंजन फिर दिनेश के पास पहुँचा। मगर अब उसके पास उसे देने के लिए पैसे नहीं थे। दिनेश को भी उसकी खस्ता हालत और इतनी कड़ी मेहनत करते देख उसपर तरस आ गया। उसने उस पर तरस खाकर उसके लिए एक नया रास्ता खोल दिया।

दिनेश ने बताया कि एक आदमी है जो ऐसी ही एक घटना का शिकार हुआ था और मृत घोषित होने के कुछ मिनटों बाद ही होश में लौट आया था। अक्सर वह आदमी अपनी बूढ़ी माँ के इलाज के लिए अस्पताल आया करता है। मगर अगली बार वह कब दिखाई देगा इसकी कोई गारंटी तो नहीं है।

निरंजन ने इस आखिरी डूबती किरण को पकड़ा और दिनेश से लगभग गिड़गिड़ाते हुए उससे मिलवाने का अनुरोध किया। दिनेश ने बताया कि अस्पताल के रिकार्ड में तो उसका और उसकी माँ का आधा-अधूरा पता दिया है इसलिए सिवाय उनका इंतज़ार करने के और कोई उपाय नहीं है।

निरंजन ने सब्र किया और कुछ दिन तक उसका बेसब्री से इंतज़ार किया। इस बीच वह कुछ नहीं कर पा रहा था इसलिए उसने अपने प्रकाशक से मिलकर संग्रह छ्पवाने की पूरी तैयारी कर ली थी। पैसे तो निरंजन के पास थे नहीं मगर उसके हुनर पर प्रकाशक को थोड़ा भरोसा ज़रूर था। अब बस साँस रोके आखिरी कहानी की प्रतीक्षा थी।

निरंजन की साँस में साँस आई जब दिनेश ने फोनकर बताया कि उसने उस आदमी को वहीं अस्पताल में रोककर रखा है और वह जल्दी से आ जाए। निरंजन तुरत-फुरत अस्पताल जा पहुँचा।

लिनेन की नीली धारीवाली सफेद शर्ट और गाढ़े हरे रंग का पैंट पहना वह व्यक्ति किसी भी दृष्टिकोण से खास नहीं लग रहा था। बगल में ही व्हीलचेयर पर सफेद साड़ी में लिपटी माँ भी घर जाने को बेचैन लग रही थी।

निरंजन ने उस आदमी से उसके उन क्षणों के बारे में जानना चाहा जिन क्षणों में उसकी धड़कनें बंद हुईं और दिमाग की नसें मरने लगीं। उस आदमी ने बड़े ही अनमने ढंग से बताया कि उसे उस समय एक तीव्र प्रकाश से भरी सुरंग दिखाई पड़ी थी और वह उसमें चला जा रहा था।

निरंजन ने उससे एक साथ कई सवाल पूछ डाले। जैसे उसे दर्द हो रहा था क्या? उसे ठंड लग रही थी या गर्मी महसूस हो रही थी? उसे खुशी मालूम हो रही थी या वह उदास था? उसे घृणा हो रही थी या प्रेम? उस समय उस सुरंग में क्या और भी कोई रंग बिखरे थे? वह सुरंग के मुहाने पर था या बीच में था या अंत में था? उसे सुरंग के उस पार कुछ दिख रहा था क्या? क्या कुछ आवाज़ भी सुनाई पड़ रही थी या सन्नाटा था या फिर शोर?

इतने सारे सवाल सुनकर वह व्यक्ति खीझ उठा और उसने झुँझलाकर कहा –“मुझे नहीं मालूम। मैंने इतना सब ध्यान नहीं दिया। मैं कोई लेखक या फिल्म का डायरेक्टर थोड़े न हूँ जो इतना ध्यान से सब देखता-सुनता-समझता?”

वह आदमी खीझ गया और अपनी माँ को लेकर चला गया। निरंजन के आस की आखिरी किरण भी डूब गई। पहले तो उसे बहुत-बहुत गुस्सा आया कि उस आदमी ने इतने बड़े अनुभव को ठीक से महसूस क्यों नहीं किया। जीवन के इतने बड़े रहस्य को इतनी सहजता से कैसे जाने दिया। आखिर दुनिया में ऐसे कितने लोग हैं जिनके साथ यह घटित होता है। यह तो एक अनमोल खज़ाना था, उसने ऐसे कैसे लुट जाने दिया।

लेकिन धीरे-धीरे निरंजन को अपनी असमर्थता का ज्ञान हो आया। उसे अस्पताल की उस कुर्सी पर बैठे-बैठे ही रुलाई आने लगी कि आखिर अब वह करे तो क्या करे? कहाँ से लाए अपनी आखिरी कहानी का अनुभव। अपनी आखिरी कहानी के लिए अनुभव की खोज आगे बढ़ाने के लिए उसके पास अब न तो समय बचा है और न ही पैसे।

वह अभी दोनों घुटने उस लोहे की कुर्सी पर मोड़ उनपर अपना सिर रखकर रोने ही वाला था कि उसे कुछ दूसरे ख्याल आए।

उसने सोचा कि जब उसे ‘तलछट की मछलियाँ’ लिखनी थीं तो रसीलीबाई और उसके आशिक के अनुभव से काम नहीं चला उसे खुद उसी नाव में सवार होना पड़ा। भले ही इसमें उसकी जान जाते-जाते बची हो।

उसी प्रकार जब ‘रगों में बहता दर्द’ लिखना पड़ा तो विपुल के नशे का अनुभव उतने काम का नहीं था जितना खुद का। कहानी के लिए वो नशा किया जिसने विपुल की जान ले ली। खुद तो बाल-बाल बच गया।

‘जलती धूनी’ में भी किसी की मदद काम न आई। खुद ही उस पाताल जैसी दुनिया में उतरना पड़ा। कुछ भी हो सकता था वहाँ। खुद की बलि भी चढ़ सकती थी या समाधि में हमेशा-हमेशा के लिए खुद भी जाना पड़ सकता था।

इसका मतलब क्या यह नहीं कि मेरी किस्मत बहुत तगड़ी है और मैं हर बार मौत के मुँह से निकलकर आ सकता हूँ। इतनी बार मैंने जोखिम लिया तो अपनी आखिरी कहानी के लिए क्यों न लिया जाए।

यही सब सोचते हुए निरंजन अस्पताल से बाहर निकल आया। बाहर आकर देखा तो शाम खत्म हो चुकी थी और आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे। सड़कों पर चहल-पहल बढ़ गई थी और दुकानों में जगमगाहट।

उसने सड़क के किनारे-किनारे चलना शुरू किया और सोचा कि अस्पताल के आस-पास ही अगर इस जोखिम को लिया जाए तो ठीक रहेगा। कोई न कोई समय से अस्पताल पहुँचा ही देगा।

फिर उसने आती-जाती गाड़ियों को देखा और गिन-चुन कर यह निर्णय लिया कि अगर किसी बड़ी गाड़ी के नीचे आया तो उसका बच पाना बहुत मुश्किल होगा इसलिए किसी छोटी गाड़ी को चुनना चाहिए।

कुछ देर तक वह आती-जाती गाड़ियों को देखता रहा और उनकी रफ्तार मापता रहा। फिर पूरी हिम्मत जुटाई और सड़क पर उतर आया।

सामने से आती एक कार की लाइटों के बीचों-बीच जाकर वह खड़ा हो गया। उस कार को चला रही महिला उसे सड़क के बीचों-बीच देख चीख उठी और उसने हड़बड़ाहट में कार का पूरा स्टीयरिंग घुमा दिया। कार सड़क से उतरकर फुटपाथ पर लगे बिजली के खंभे से टकरा गई।

मगर ऐसा नहीं हुआ कि निरंजन उस दुर्घटना से बच गया हो। कार के सड़क से नीचे उतरते ही उसके पीछे आ रही लॉरी निरंजन को कुचलते हुए निकल गई। लॉरी का चालक इतना डर गया कि उसने लॉरी रोकी ही नहीं और तेजी से भगा ले गया।

निरंजन का सारा हिसाब-किताब गड़बड़ा चुका था। वह बुरी तरह तड़प रहा था और लंबी साँसे-साँसे ले रहा था। कुछ ही पलों में उसकी धड़कनों ने उसका साथ छोड़ दिया और साथ ही दिमाग की नसों ने भी काम करना बंद दिया।

उसने महसूस किया कि वह एक रोशनी के बड़े से रास्ते के मुहाने पर खड़ा है। ठंडी सी जगह है और वह खुशी से भर गया है। उसे जाने कैसे पता है कि उसे इस मुहाने से उस मुहाने तक पहुँचना जहाँ कोई उसका इंतज़ार कर रहा है।

कोई उदासी नहीं है, कोई दर्द या दु:ख नहीं है बस मानसिक शांति ही शांति है। उसे अब कुछ हासिल नहीं करना, उसे कुछ पाना नहीं है अब। बस उस मुहाने तक पहुँचना है।

तभी एक रोशनी का पुंज सा उसके समीप आया। बिना जाने, बिना उसका आकार समझे जाने कैसे निरंजन को पता था कि यह पुंज विपुल ही है। उस पुंज ने निरंजन के करीब आकर विपुल की आवाज़ में कहा – “भैय्या आप चले जाओ। आप जल्दी लौट जाइए। जल्दी, जल्दी कीजिए भैया, नहीं तो बहुत देर हो जाएगी।”

विपुल की बात मानकर वह मुस्कुराते हुए पलटा। वह जिस असीम आनंद की अनुभूति कर रहा था उसके बारे में लिखना चाहता था। वह चाहता था अपने शरीर में वापस जाए और इस एहसास को लिखे, अपनी आखिरी कहानी लिखे।

जब वह पलटा तो उसने वह सड़क देखी जहाँ उसका मृत शरीर पड़ा था। लोग उसे घेरे खड़े थे और खून से लथपथ उसके शरीर पर अफसोस कर रहे थे। वह अपने शरीर के पास पहुँचा और उसके भीतर जाने का प्रयास किया।

लेकिन यह क्या? वह तो…वह तो…. वापस लौट ही नहीं पा रहा। उसका ही शरीर उसे वापस नहीं ले रहा। इतने में किसी ने जैसे उसके कंधे पर हाथ रखा हो। कोई नहीं था, कुछ भी नहीं था, मगर निरंजन जानता था कि वह विपुल ही है।

“अब कुछ नहीं हो सकता भैया।”

निरंजन अपने शरीर को देख रहा था। इस बार किस्मत ने उसका साथ क्यों नहीं दिया। अब क्या? वह तो आखिरी कहानी कभी नहीं लिख पाएगा। कभी नहीं।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com