कविता

रश्मि आकाश जो परश करती

रश्मि आकाश जो परश करती,
यान खिड़की से उझक जो जाती;
बात कुछ उनके हृदय की करती,
तरंगित प्राण मन किए चलती !
भाव में भर के रचना करवाती,
रचयिता विश्व का जता जाती;
शून्य में अनन्तित गति भरती,
अधर में धरा की धृति भरती !
कुँआरी सी है वो रही होती,
मिनट बस आठ की उम्र होती;
चली वह सूर्य से अभी होती,
भूमि को छुए वह कहाँ होती !
रुकी भी कहाँ वह रही होती,
राह में हर को बस लखी होती;
चलके वह पंचभूत छू लेती,
अछूयी अच्युत पर स्वयं होती !
द्युति अद्भुत दिखा किरण देती,
दृगों में ज्योति ‘मधु’ के भरती;
अजस्र विंव पुँज दिखलाती,
विन्दु प्रति प्रभु स्वरूप बिखराती !

गोपाल बघेल ‘मधु’