लघुकथा

अपनी माटी

” अपनी माटी ”

आज निर्मला का मन थोड़ा उदास था। पता नहीं किस सोच में डूबी थी वह। अभी कुछ ही दिन पहले की तो बात है, अमेरिका से बेटे के आने की खुशी में फुली नहीं समा रही थी। आस पड़ोस में उसने सबको बता रख थ कि मेरा बेटा आ रहा है मुझे ले जाने के लिए।
सोचा था कुछ महीने रहके फिर वापस आ जाएगी अपने देश।
पर….. जब से बेटे ने आकर कहा…”मां तुम्हारा ग्रीन कार्ड बन गया… अबकी बार तुम्हें मेरे साथ हमेशा के लिए अमेरिका जाकर रहना पड़ेगा।”
“पर हमेशा मैं कैसे रह पाऊंगी वहां पर ?”…. निर्मला ने बेटे से कहा।
“क्यों नहीं रह सकती वहां पर हमारे साथ, क्या परेशानी है तुम्हें ?”…. बेटे ने जवाब दिया!
“यहां पर हमारा घर है, तुम्हारी बाबूजी की यादें हैं। कितनी मेहनत से उन्होंने यह घर बनाया था। सब चीजों में उनकी यादें बसी हुई है। मैं कैसे यह सब कुछ छोड़ कर वहां जाकर रहूंगी। और फिर सारे नाते रिश्तेदार भी तो यहीं पर बसे हुए हैं।”…… निर्मला भावना में वह कर सब कुछ कह गई।
“रिश्तेदारों की बातें ना करो तो अच्छा है मां, बाबूजी के मृत्यु के पश्चात कौन से रिश्तेदारों ने आकर हमें सहारा दिया था। तुम सब कुछ भुला सकती हो पर मैं अभी तक भुला नहीं पाया वह दिन जब हम संघर्ष कर रहे थे, तब हमारा किसी ने साथ नहीं दिया ऊपर से सब हमें ताने मारने से नहीं चुकते थे।”
“क्यों निर्मला अपने बेटे को न्यूटन बनाना चाहते हो, इसलिए अमेरिका भेज रहे हो। वहां जाकर किसी मेम से शादी कर लेगा और वापस कभी नहीं आएगा। वह बात मैं कभी नहीं भूल सकता।”….. बेटा रवि ने कहा।
“तुम्हारे बेटे ने किसी मेम से शादी नहीं की और नाही तुम्हें भुलाया। अब मैं तुम्हें यहां अकेला नहीं छोड़ सकता और नाही मैं वापस आना चाहता हूं। मैं पुराने जख्म को कुरेदना नहीं चाहता।”….. रवि ने फिर कहा।
“पर…मैं अपनी माटी, अपना देश छोड़ कर कैसे रह पाऊंगी वहां पर। तू क्यों नहीं वापस आ जाता लौटकर। सब मिलकर यहीं पर रहेंगे।”… निर्मला का जवाब था।
“मां मुझे देश और देश की माटी बहुत प्रिय है और बाबूजी की यादें भी। पर..…वहां पर मेहनत से बनाई हुई चीजें और बच्चों के भविष्य को दांव पर लगाकर यहां एकदम से कैसे आऊं। जरा तुम भी हमारे बारे में सोचो। मैं तुम्हें यहां अकेला छोड़ कर कैसे रह सकता हूं। अब तक रह लिया और अब नहीं। मैं तुम्हें वृद्धाश्रम में छोड़ कर भी तो नहीं जा सकता। बड़ी मेहनत से तुमने मुझे इस लायक बनाया है। अब मेरी बारी है तुम्हारी सेवा करने की” रवि ने कहा..।
बेटे की आँखें नम देख कर निर्मला ने अपनी ज़िद छोड़ दी तथा जाने की तैयारी में जुट गई….।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com