कहानी

“भरोसा” भाग 2

डिनर टेबल पर ईशा खामोश बैठी मैन्यू देखने में व्यस्त थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था क्षितिज के साथ क्या बात करें और क्या नहीं। वह झिझक भी रही थी इसलिए स्वयँ को व्यस्त दिखाने का प्रयास ना कर रही थी। क्षितिज को भी समझ में नहीं आ रहा था कि ईशा से बातें शुरू कैसे की जाए। ईशा को खामोश देखकर क्षितिज ने पहल की..” हां तो ईशा बताओ, क्या आर्डर करें। तुम क्या खाना चाहती हो? मैं तो कुछ हल्का फुल्का लेने के मूड में हूं क्योंकि रात का खाना मैं हल्का ही लेता हूं।”
“मैं भी रात को हल्का खाना ही खाती हूं। मैं प्लेन डोसा और एक कप कॉफी लेना पसंद करूंगी।”
“मैं वड़ा, सांभर एक कप कॉफी लूंगा।”
डिनर करते करते भी ईशा चुप थी। वह सोच रही थी…. “क्षितिज एकदम से ‘आप से तुम’ पर आ गया। क्या यह सही है?” ईशा की चुप्पी क्षितिज को खल रही थी तो उसने पूछ ही लिया..” क्या बात है ईशा, ऑफिस में तो इतनी चुप्पी नहीं देखी कभी तुम्हारी। आज इतनी चुप क्यों हो तुम?”
“नहीं, नहीं, कुछ नहीं, ऐसे ही समझ में नहीं आ रहा है बात कहां से शुरू करूं। ऑफिस की बात और है ऑफिस में तो मुझे बात करने की ही सैलरी मिलती है। मेरा मुख्य काम तो कस्टमर डीलिंग ही है तो सबसे अच्छे से बात तो करनी ही पड़ेगी ना। ऑफिस में तो आप मेरे कस्टमर होते हैं परंतु यहाँ पर तो आप मेरे कस्टमर नहीं है। समझ में नहीं आ रहा है क्या बात करूं। मैं आपको यह सब क्यों बता रही हूँ, आप को सब पता ही है।”
“अच्छा तो मैं यहां पर क्या हूं, यह बताओ?”
“क्या है.. एक दोस्त है और क्या…!” ईशा ने चतुराई से जवाब दिया।
“बस..केवल एक दोस्त है और कुछ नहीं?”
“इस दुनिया में अच्छा दोस्त भी नसीब वालों को ही मिलता है। दोस्त होने में क्या बुराई है?”
“अच्छा.. तो मैं आपका अच्छा दोस्त हूं । तो अच्छा दोस्त होने के नाते यह बता दीजिए कि यह दोस्त आपको कैसा लगता है? दोस्त के बारे में कैसा ख्याल है?”
“अच्छा ख्याल है!”
“मेरा मतलब था मैं तुम्हें कैसा लगता हूं?”
“अच्छे सुलझे हुए। बातें भी अच्छी कर लेते हैं।”
“और क्या, मेरी पर्सनैलिटी तुम्हें अच्छी नहीं लगती? तुम्हारी तो मुझे बहुत अच्छी लगती है।”
“नहीं.. नहीं.. अच्छी लगती है, पर.. मैं एकदम से कैसे कह दूँ कि आपकी पर्सनैलिटी मुझे बहुत अच्छी लगती है?” शरमाते हुए ईशा ने कहा।
“तो.. फिर धीरे से ही कह दो। जो मन में आए कह दो। मैं तुम्हारे मन की बात जानना चाहता हूं। शर्माने वाली कोई बात ही नहीं है, हम कोई बच्चे तो है नहीं।”.. एक शरारती मुस्कान भी खेलते हुए क्षितिज ने कहा।
“हां, अच्छी लगती है।”.. ईशा ने शर्माते हुए कहा।

ईशा की सहमति पाकर क्षितिज की आंखों में खुशी की चमक ऐसी लग रही थी जैसे सर्दी की भोर में हरित तृणों की नोकों पर जब ओस की बूंदे गिरती हैं और उस पर सूर्य की रक्तिम आभा पड़ती है तो वह मोती जैसे चमकने लगती हैं। उसका मन उसे ईशा के करीब खींच कर ले जा रहा था। जीवन पुष्प वाटिका में जैसे खुशी के रंग बिरंगे फूल खिल कर चारों दिशाओं में खुशबू बिखेर रहे थे। और यह खुशबू हवा में घुलकर सांसों से होकर अंतर्मन को भी सुगंधित किए जा रही थी। ईशा का मन भी जीवन में पहली बार किसी की ऐसी बातें सुन कर चंचल हिरणी सा मचल उठा। जीवन के इस नई डगर पर चलना सुखद लग रहा था। दोनों की प्यार की गाड़ी एक ऐसे राह से होकर गुजर रही थी जिस राह पर फूल ही फूल बिछे हुए थे और उसकी खुशबू से चारों दिशाएं महक रही थीं। जिस पर कांटो की बिल्कुल चुभन न थी।

इस तरह दोनों कभी किसी कॉफी हाउस में मिलते, तो कभी किसी रेस्टोरेंट में जाकर बैठेते। कॉफी पीना और खाना, खाना तो बस एक बहाना था। दोनों एक दूसरे को जानना चाहते थे और एक दूसरे के करीब आने के लिए व्याकुल थे। शायद पहला पहला प्यार का नशा ऐसा ही होता है। प्यार का नशा और खुमारी दोनों की आंखों में ऐसी चढ़ी हुई थी कि दोनों को एक दूसरे की बुराई नजर नहीं रही थी। केवल अच्छाई अच्छाई नजर आने लगी। दोनों का प्यार इस हद तक परवान चढ़ चुका था कि जिस दिन दोनों नहीं मिलते तो, मन इतना व्याकुल रहता कि मन की बेचैनी आँखें बयां कर देती।
एक दिन ईशा की सहकर्मी ने पूछ लिया “क्या बात है ईशा? कुछ बेचैन सी नजर आ रही हो?”
“नहीं, नहीं, कोई बात नहीं है, बस.. एक फाइल ढूंढ रही थी।” ईशा को कुछ समझ ना आया तो घबराकर कर कहा।
“अरे, झूठ मत बोलो। चोपड़ा साहब का इंतजार कर रही हो ना? आते ही होंगे थोड़ी देर में, उनको भी कहां चैन पड़ने वाला है।”
“तुम भी ना कल्पना कुछ भी बक देती हो। किसने कहा कि मैं चोपड़ा साहब का इंतजार कर रही हूं।”
“तुम्हारी बेचैनी और तुम्हारी आंखें बता रही है। बार-बार दरवाजे की ओर नजर जा रही है तुम्हारी। तुमने शायद ध्यान नहीं दिया पर, मैंने पूरा ध्यान दिया है!” और कल्पना हंसने लगी।
अपनी चोरी पकड़ी गई देख कर ईशा चुप हो गई और अपनी नजरें नीची करके अपने काम में मन लगाने का प्रयास करने लगी। पर.. चंचल मन काम करने भी तो नहीं देता है।

एक दिन ऑफिस में आकर क्षितिज ने ईशा से कहा..” मेरे मम्मी पापा आए हुए हैं, जो पटियाला में रहते हैं। तुमसे और तुम्हारे मम्मी, पापा से मिलना चाहते हैं।”
ईशा को समझ में नहीं आ रहा था कि क्षितिज के मम्मी, पापा अचानक कैसे आए और क्यों मेरे मम्मी, पापा से मिलना चाहते हैं? फिर भी उसने हंसते हुए कहा..” ठीक है मिलना चाहते हैं तो एक दिन उन्हें घर ले आइए, जिस दिन आपको ठीक लगे।”
“ठीक है तो कल आते हैं। मम्मी, पापा ज्यादा दिन ठहरेंगे नहीं, बस.. एक हफ्ते के लिए आए हैं!”.. क्षितिज ने कहा।

क्षितिज के मम्मी पापा को ईशा की व्यवहार कुशलता एवं पर्सनालिटी बहुत अच्छी लगी। दोनों को ईशा भाग गई।
“आपकी बेटी हमें बहुत पसंद आई। जितनी खूबसूरत है उतनी ही शालीन तथा पढ़ी-लिखी भी है। हमें एक ऐसी ही बहू चाहिए थी।”.. क्षितिज की मम्मी ने कहा।
“आपका बेटा भी बहुत आकर्षक व्यक्तित्व का है और इतनी अच्छी कंपनी का मालिक भी है। हमारे मन को तो भा गया वह।”.. ईशा की मम्मी ने भी खुश होते हुए कहा।

क्षितिज और उसके मम्मी, पापा के जाने के बाद, ईशा के मम्मी पापा आपस में बात कर रहे थे। ईशा के पापा ने कहा..” बड़े सज्जन हैं दोनों, और क्षितिज भी उतना ही सुलझा हुआ लड़का है! भई हमें तो यह रिश्ता मंजूर है। उनकी एक बात हमें बहुत अच्छी लगी कि उन्हें दहेज नहीं चाहिए। उन्होंने लेन-देन की बात हम पर ही छोड़ दी है।”
“हां आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। उनका यह कहना बड़े हृदय होने का द्योतक है ‘आप जो भी देना चाहे अपनी बेटी को दीजिए, हमें दहेज का लोभ नहीं है, हमारे पास भगवान का दिया हुआ सब कुछ है।’ हमें भी सब लोग बहुत अच्छे व शरीफ लगे! ईशा बेटा, तुम क्या कहती हो।”.. ईशा की मम्मी ने कहा।
“आप लोग मुझसे ज्यादा अनुभवी है। आप लोगों को वे अच्छे लग रहे हैं, तो.. अच्छे ही होंगे और क्षितिज को तो मैं पहले से ही जानती हूं। अच्छा सुलझा हुआ है।”.. ईशा ने धीरे से कहा।
“फिर क्या.. मियां बीवी राजी, तो क्या करेगा काजी।”.. ईशा के पापा जोर से हंस पड़े तो सभी एक साथ हंस पड़े।

ईशा की शादी क्षितिज के साथ हो गई। शादी के बाद ईशा के मम्मी, पापा उसके भाई के पास, जो मुंबई में रहता है, वहां पर चले गए। ईशा अपने पति क्षितिज के साथ दिल्ली मे रहने लगी। ईशा अपनी नौकरी छोड़ना नहीं चाहती थी पर क्षितिज के कहने पर कि..” तुम मेरी कंपनी में मेरी सहायता करो। पढ़ी लिखी हो, अनुभवी हो, तुम्हारा अनुभव मेरी कंपनी को आगे बढ़ाने में मदद करेगा। तुम्हें ऑफिस में देख कर ही मैंने तुम्हारा अनुभव परख लिया था।”
अपने पति से तारीफ पाकर ईशा गदगद हो उठी। ईशा ने खुशी-खुशी नौकरी छोड़ दी यह सोच कर कि “अगर क्षितिज को मुझ पर इतना भरोसा है कि मैं उसके कंपनी में सहायक हो सकती हूं। तो.. मुझे अपनी नौकरी छोड़ कर कंपनी को आगे बढ़ाने के लिए सहयोग देना चाहिए। यह तो अच्छी बात है कि हम दोनों मिलकर अपनी कंपनी चलाएंगे और उसे एक ऊंचाई तक ले जायेंगे। क्षितिज भी काफी समय से संघर्ष कर रहा है। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं क्षितिज के कंधे से कंधा मिलाकर कंपनी को एक मुकाम तक पहुंचा दूँ।”
सारी बातें सोचकर ईशा का मन एक आत्म संतुष्टि से भर उठा..!!

क्रमशः

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com