कविता

चक्रव्यूह

विजयी होकर भी अभिमन्यु शकुनि की चालों से हारा।
चक्रव्यूह तोड़ा दुश्मन का पर अपनों में फँसा बेचारा!

धृतराष्ट्रों की सेना पूछे- कहाँ गए आँखों के तारे?
ज़रा बताओ हमको गिन-गिन, तुमने कितने सारे मारे?
एक बार की बात मान ली, पर माने कैसे दोबारा?
विजयी होकर भी अभिमन्यु शकुनि की चालों से हारा।

एक बार क्या कई बार मैं, चक्रव्यूह में चरण धरूँगा
एक बार मर गया था लेकिन, अब छल से कभी मरूँगा
रूप बदल आऊँ हर युग में, जब भी माँ ने मुझे पुकारा
चक्रव्यूह भेदे अभिमन्यु, गद्दारों से कभी ना हारा।

शरद सुनेरी