कविता

मौन

मोबाइल की स्क्रीन पर सारे कैद हैं
कैदियों की तादाद बहुत ज्यादा है
पहाड़ों की तलहटी पर रहने वाला
एक परिवार दूर है
इस कैद से मुझे भी जाना है वहां
कैदी नहीं रहना
जहां पर लोग दिलों की बात करते हैं
सोचते हैं ,समझते हैं
चेहरा देखकर पहचान लेते हैं
घाव कहां -कहां पर हैं
गले लगा कर लगा देते हैं मरहम
यह भीड़ कहां जा रही है
और कहां जा रहे हैं
बिना मंजिल के सारे अजनबी हैं
इस समाज में अब सचमुच
संवेदनाओं की कमी है
पहुंच देते हैं आंसू इधर
जिस किसी की आंख में जरा सी भी नमी है
आगे जाने की होड़ में पता नहीं
किसने क्या-क्या कहा
दिल की गहराई से आवाज आती है
भीड़ में इंसान
इंसान नहीं रहा
जहां भी डालू नजर
किसी को भी देख नहीं पाता हूं
अब प्रकृति की गोद में
बस मौन रहना चाहता हूं

 

प्रवीण माटी

नाम -प्रवीण माटी गाँव- नौरंगाबाद डाकघर-बामला,भिवानी 127021 हरियाणा मकान नं-100 9873845733