गीतिका/ग़ज़ल

मजा ही कुछ और है

यादों के गुलिस्तां में मन भटकता चहुं ओर है,
तुम्हें सोचने का जाने क्यों मजा ही कुछ और है।

हकीकत में सब हासिल हो यह मुमकिन नहीं,
ख्वाबों में हकीकत को सजाने का मजा कुछ और है।

जमीन हो या हो आसमान नहीं मिलता सबको,
क्षितिज में दोनों को पाने का मजा ही कुछ और है।

खुशी में छलके या दुख में नम हो जाए आंखें,
दोनों ही एहसास से गुजरने का मजा ही कुछ और है।

मंजिल तक पहुंच जाना कोई बड़ी बात नहीं,
राह के मुश्किलों से जूझने का मजा ही कुछ और है।

—  कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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