कहानी

कहानी – मेरी मां

“मां” एक ऐसा शब्द जिसमें समस्त ब्रह्माण्ड समाया है।नारी के अनेक रूपों में से मां को सर्वश्रेष्ठ रूप कहना अनुचित नहीं होगा।वह एक ओर वात्सल्य की प्रतिमूर्ति है तो दूसरी ओर अपनी संतान के उचित मार्गदर्शन के लिए कठोर कदम उठाने से भी नहीं चूकती।मेरी मां भी ऐसी ही थीं।वह हम चारों भाई बहनों को परिवार रूपी घोंसले में ऐसे सहेजे हुए थी जैसे चिड़िया अपने बच्चों को।नुकसान पहुंचाना तो दूर मजाल है कि कोई हमें घूर कर भी देख ले।हां,लेकिन यदि किसी ने भी अनुशासन भंग किया तो उसे दंड का भागी बनना पड़ता था।दंड यह कि कोई भी संबंधित से दिन भर बात नहीं करेगा।हमारे लिए तो यही सज़ा जानलेवा थी इसलिए हमारी ये कोशिश रहती थीं कि वे नाराज़ न होने पाएं।

मां ग्रामीण परिवेश में पली बढ़ी एक सीधी सादी किन्तु दृढ़ संकल्पित महिला थीं।दृढ़ संकल्पित कहना इसलिए उचित होगा क्योंकि उन्होंने मुझे और मेरी बहनों को उस जमाने में शिक्षित करने का निर्णय लिया जिस समय लोगों की बालिका शिक्षा के प्रति सोच बहुत सकारात्मक नहीं थी।मुझे यह लिखते हुए बड़े गर्व का अनुभव हो रहा है कि हम तीनों बहनें अपने गांव की उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली लड़कियां थीं।मुझे भली प्रकार याद है कि मेरे पापा शुरुआत में हमें बहुत पढ़ाने लिखाने के पक्ष में नहीं थे।उनका मानना था कि लड़कियों को उतना ही पढ़ाना पर्याप्त है जितने में वे ससुराल से चिट्ठी पत्री लिख सकें।लेकिन मां ने उनका कहना नहीं माना और अपनी जिद पर अड़ी रही।उन्होंने खुद जाकर हम लोगों का एडमिशन कराया।पापा थोड़ा नाराज़ हुए कि कर लो अपनी मनमानी। मां ने प्रतिउत्तर नहीं दिया। एक दिन मैंने उनसे पढ़ाई के प्रति उनके इस जुनून का कारण जानना चाहा तो पता चला कि मां की हार्दिक इच्छा थी कि  वे भी अपने भाइयों के साथ स्कूल जाएं किन्तु मान प्रतिष्ठा का हवाला देकर उन्हें रोक दिया गया।नानाजी गांव के सरपंच और स्त्री शिक्षा के प्रबल विरोधी थे।नानीजी में भी ये साहस नहीं था कि वे मां को स्कूल भेजने के लिए राजी कर सकें। मां की दोनों बहनों में भी पढ़ाई के प्रति कोई ख़ास रुचि नहीं थी इसलिए उनकी इच्छा को अनसुना कर दिया गया।घर पर ही भाइयों की किताब पढ़ना चाही तो छीन लिए गई। चौदह वर्ष की आयु में कन्यादान करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली।ससुराल में देवरों को पढ़ते देख उनका भी जी ललचाता। उन लोगों की उम्र में कोई खास अंतर नहीं था फिर भी वे मां को भाभी मां कहते थे।जब उन्हें मां की इच्छा के बारे में पता चला तो उन्होंने चुपके चुपके उन्हें भी पढ़ाना शुरू कर दिया।जल्द ही मां ने अपना नाम लिखना सीख लिया।एक दिन चूल्हे की राख पर जब वे अपना नाम लिख रही थीं तो दादी ने देख लिया और बहुत मारा। उसी दिन उन्होंने मन ही मन एक निर्णय ले लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए वे अपनी लड़कियों को जरूर पढ़ाएंगी।ये सब बताते हुए मां की आंखों में आंसू छलक आए।
उनके अथक प्रयासों के चलते नारी शिक्षा को लेकर न केवल पापा की सोच में परिवर्तन आया बल्कि उन्होंने मां के साथ खड़े होकर सभी विरोधों और आर्थिक संकटों को झेलते हुए हमें स्नातकोत्तर स्तर तक की शिक्षा दिलाई। वर्तमान में हम सभी शासकीय विभाग में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।आज मुझे यह लिखते हुए गर्व का अनुभव हो रहा है कि हम तीनों बहनें उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाली पहली बेटियां बनीं। आज वे हमारे बीच नहीं हैं।उनकी मृत्यु हुए लगभग पंद्रह साल हो गए।लेकिन उनके द्वारा दी गई शैक्षिक धरोहर आशीर्वाद के रूप में सदा हमारे साथ रहेगी।
— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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