कविता

आए हैं अलग रहते थलग

आए हैं अलग रहते थलग, जाएँगे विलग;
सहचर हैं रहे सूक्ष्म काल, संचरी सुमग !

सौंदर्यवान सुभग धरा, रहत हमरे पग;
एक नभ में उठत आगे बढ़त, धरिणी एक डग !
सोहे हैं श्याम मुरली अधर, सुर ले मनोहर;
हैं व्याप्त लगे नयन कोर, अभय दिए उर !

आधार धार परे रहा, धुरी पर विचर;
बन के मयूर नृत्य किया, कृत्य कर अधर !
कौतूहलों की अजब सृष्टि, भृकुटि में सजग;
मोहन में ‘मधु’ कहाँ आत, मोहन रखि दृग !

✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’